रविवार, 17 फ़रवरी 2019

श्रद्धाञ्जलि ?


*
श्रद्धाञ्जलि ?
ओह -
अंजलि भर फूल सिर झुका कर  गिरा देना
मन का गुबार शब्दों में बहा  देना ,
गंभीरता ओढ़ माथा झुका देना -
  हो जाती है श्रद्धञ्जलि ?

नहीं ,
तुम्हारे प्रति
 मन-बचन -कर्म से  ,शब्दों में अर्पित
यह ज्ञापन है ,
हमारी  अंजलि में ,
कि दायित्व सिर्फ़ तुम्हारा नहीं  
हम सबका है.


छिप कर घात करती   पाशविक मानसिकता का,
तुम्हें वंचित करने वाली इस अमानुषी वृत्ति का,
प्रतिकार  किये बिना
 ऋण - मुक्त नहीं होंगे हम -
सहस्राब्दियों की संचित थातियां,
वंशानुक्रम से प्राप्त संस्कारों में
समाये संस्कृति के आदान,
सँभालने का दायित्व ,
 हर संतान का है.

यह ज्ञापन
 हमारी अंजलि में ,
और अंतर मन को कचोटता  पछतावा भी कि
हमारी सारी  ढील की कीमत तुम्हें चुकानी पड़ी .
कि सारा दायित्व तुम पर डाल 
हम निश्चिंत बैठ गये  .

साँप, छिपे रहे आस्तीनों में और बाँबियों में
फूत्कारों से नहीं चेते  ,
तो दोष किसका ?

नहीं अब नहीं
यह श्रद्धाञ्जलि ,
फूल नहीं ,शब्द नहीं,
अंतर्मन से उठती टेर है
आत्म- मंथन के क्षण हैं  ,
एक अनुस्मरण -
कि  सिर्फ़ तुम्हारा नहीं
 दायित्व हम सब का है!

*







शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2019

ओ, मेरे बंधु-बाँधवों,

*
नहीं ,आँसू नहीं ,
आग है !
धधक उठा अंतस् 
रह-रह उठती लपटें ,
कराल क्रोध-जिह्वाएँ 
रक्तबीज-कुल का नाश,
यही है संकल्प .
बस !
शान्ति नहीं ,
चिर-शान्त करना है  
सारा भस्मासुरी राग.

यह रोग ,
रोज़-रोज़ का 
चढ़ता बुख़ार ,यह विकार ,
मिटाना है जड़-मूल से .
नहीं मिलेगी शान्ति, कहीं नहीं ,
जब तक एक भी कीटाणु 
शेष है .

सावधान ,
ओ, मेरे बंधु-बाँधवों,
निरंतर सावधान -
कोई अवसर न देना इन्हें पनपने का.
ये  परजीवी कीट ,
चौगुने से चौगुने प्रजनन में लीन ,
धरती के कलंक
कुचैल,कुटिल कुअंक,
नरक के जीव.
जब तक रहेंगे, जहाँ रहेंगे 
छिप-छिप चलाएँगे ज़हरीले डंक .

बहुत हुआ
बस करो ,
कीट-नाशक
ज़रूरी है    
रोगाणुओं के लिए, 
कि एक भी 
कहीं भी दबा छिपा 
बचे नहीं ,

तभी त्राण पाएगी मनुजता
गगन -पवन- सलिल ,निर्मल 
दिशायें प्रकाशित  
और धरा मुक्ति की साँस लेगी.
*

सोमवार, 4 फ़रवरी 2019

विसर्जन के फूल

विसर्जन के फूल
*
फूल उतराते रहे दूर तक,
 महासागर के अथाह जल में. 
समा गये संचित अवशेष
कलश से बिखर हवाओं से टकराते,
सर्पिल जल-जाल में
 विलीन हो गए .
*
अपार सिंधु की
उठती-गिरती लहरों में
ओर- छोरहीन,
अनर्गल पलों में परिणत,
बिंबित होते  बरस- बरस,
जैसे अनायास पलटने लगें
एल्बम के पृष्ठ.
 *
समर्पित फूल
जल के वर्तुलों में
चक्कर खाते, थरथराते, थमते
लौट आने के उपक्रम में
फिर-फिर पलटते
उमड़ती लहरों के साथ.
अनजान तट बह गए.
*
नाव की पहुँच ,
आगे बस पटाक्षेप.
अरूप-अनाम निष्क्रम
गहन प्रशान्त के अतल
अपरम्पार में,
शेष का विसर्जन .
अराल सिन्धु-छोर  ,
आगे कुछ नहीं !
*