रविवार, 10 जुलाई 2011

रचयिता से -

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श्री गणेश के धर शुभांक चल पड़ी लेखनी  भूर्ज-पत्र पर
स्वर- शब्दों की गंगा-यमुना सरस्वती मय त्रिगुण  रूप धर
उर पर धरा  कठिन हिमगिरि सा भारत का यह  महा कथानक
 वाणी में ढल, वेद  व्यास के शब्दों में  बह चला अचानक !
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ले उद्विग्न मनस्थिति , अनुभव ले कुछ कड़वे खट्टे ,तीते ,
अंतर-बहिर्द्वंद्व मनस-तल तक  मथते जैसे युग बीते
तानो-बानो में पूर-पूर सारे आँसू, सारे अँगार
जय महाकाव्य  की रचना में बुन डाला युग को आर-पार.
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अंधे पांडुर ,विदुर सभी का वंश ,   तुम्हारा ही तो अंशज,
 कौन दूध का धुला वहाँ पर, सब  फिसले पड़ते ही संकट  ,
क्या बीता तुम पर लिखने में अपनी संततियों का लेखा ,
 कैसे यों  निर्लिप्त भाव धर  लिखा दिया सब आँखों देखा ,
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कथरी जो  ओढ़ी थी ,उसके टाँकों में जो शाप सिल गये ,
उन पात्रों को निज में जीते , सारे ही विश्वास हिल गये
 उन पापों का  अनुभव करते पाए हों कितने  पश्च-ताप ,
तुम से विरक्त ने ओढ़ लिया   पूरे युग  का गहरा विषाद
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अपने लिक्खे  से  छुटकारा ओ व्यास,कभी क्या मिल पाया
या घिरी रही अंतर्नभ पर वह छल-छद्मों वाली छाया
बाढ़ लौट  जाए सारे तट पर ज्यों   कूड़-कबाड़ छोड़     ,
अट्ठारह दिन सच और झूठ का द्वंद्व भरे आतंक ओढ़  !
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और युद्ध के बाद नशा सा उतरा जब ,अवसाद शेष बस .
क्या समझा था किन्तु हुआ क्या फीका सब उछाह का उत्सव
 क्या  दायित्व निभा पाया ,ले शंका और हताशा मन में
प्राण भीष्म ने त्यागे होंगे इसी विषम चिन्ता के क्षण में ,,
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उस दिनान्त के बाद अँधेरी रात ,व्याध के शर सी बेधक ,
गीता के गायक के स्वर चिर मौन हो गये होंगे लेखक
जिसने सबकी पीर सही ,जो अनासक्त ही रहा जनम भर ,
लिख उसका अवसान व्यास,क्या कर पाये थे तुम मन को थिर
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 युग के घटकों का संयोजन जिसके संकेतों पर निर्भर
कर लीला का संवरण  गया वह एक रहा जो- परम्पूर्ण नर
काल-व्याध का एक तीर कर गया उसे भी एक  किनारे
भील लूटते कुल-वधुओं को  ,उघड़ी लज्जा कौन उबारे ,
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कृष्ण बिना सब विरस,विषण्ण हताशा से संसार भर गया
शंकाओं से बोझिल सारा  लोक -वेद  व्यवहार रह गया
व्यास ,कहाँ ला छोड़ा तुमने नारायण से हीन धरा पर ,
सखा ,सारथी और गुरु बिना  ,हत-सामर्थ्य मलीन हुआ नर !
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पृष्ठों के उजलेपन पर भी फैल गई होगी कुछ  स्याही
अंक विरूपित बिखरे होंगे ,घुले नयन जल में सहसा ही
लिखते हुये लेखनी रोई ,लगा कालिमा सी घिर आई
हे हेरंब ,लेखनी ठिठकी होगी नयन दृष्टि  धुँधलाई!
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जीता कौन ,पराजय किसकी किस पर राज करे हारा मन ,
सारे ही संबंध झूठ थे  व्यर्थ हुआ सारा आयोजन
कौन सुखी हो सका ,कौन संतुष्ट हुआ क्या हाथ लगा रे
डूबे कितने वंश और कितने रोदन-रत साँझ-सकारे  !
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बर्बरीक* का मुंड वृक्ष पर टँगा  देखता आँखें फाड़े,
सब विरूप ,विशृंखल हो आ जाता दृष्टि पटल के आड़े
अमर पीर ले भटक रहे हैं  अश्वत्थामा* कजरी वन में
मणिविहीन माथा चिर  शापित-घाव टीस भऱता क्षण-क्षण में.
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घटना क्रम का रंगमंच षड्यंत्र,छलों से रहा सजा है    !
गीता का सारांश सौंपते लगा कि कुछ तो हाथ लगा है,
व्याकुलता को ढाँक सके जो मिला शान्ति का  कहीं आवरण      
 उस अव्यक्त अथाह दाह से कैसे मुक्त हुए द्वैपायन ?  
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जब तक वाणी की करुणा-धारा से सिक्त न हो अंतरतम,
सघन शान्ति की मनोभूमि में जग न जाय कोई रचना-क्रम
वेदव्यास ,बस यह बतला दो ,,उबरे किस विध कठिन दाह से
महा समर के बाद कि जैसे शीतल औ'अतिशान्त  तपोवन
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फिर तुमने कुछ लिखा कि जिससे मन को कुछ आश्वस्ति मिल सके ,
अंतर्दाह शमित हो जाए , थकित चेत  विश्रान्ति मिल सके ,
उस अन्याय अनीति कथा के बाद ,स्वस्थ  हो सका विकल चित्
 कुछ उपाय कर  पाया हो तो व्यास बता दो स्वस्ति प्राप्ति हित .
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हर रचना के बाद शेष  रह जाता भीतर चुभता सा कुछ
जिसने भी दुख कथा लिखी उसके पल्ले बँध गया वही दुख
वह  अभिशप्त जिये आजीवन, जीवन-विजन बने प्रायश्चित ,
कोई ठौर नहीं बचता केवल एकाकी औ'बीहड़ पथ !
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अब तो सब लिख गया सदा को  सोच हृदय अकुलाया होगा  
वेदव्यास ,वह दाह कठिन  किस तरह सहन कर  पाया होगा
किस उपाय से शान्त कर सके   वह उद्विग्न अवस्था मन की
या कि उसी द्विविधा में जीना नियति बनी बाकी जीवन की
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रच युगंधरी गाथा तुम क्या  पूर्णकाम हो सके व्यास या
घिर आया श्लथ मन पर प्रतिक्षण भारी होता घना कुहासा
वेद व्यास रचना के क्रम में ,आदि अंत तक सब जी डाला ,
सारा द्वापर आत्मसात् कर एक महाभारत रच डाला
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 सागर तक  अविराम यात्रा करता व्याकुल एकाकी मन ,
 महाविलय के साथ समर्पित  आत्म-कथामय व्यथा कथा-क्रम
पाये करुणा-वरुणा के  कण ,शाप-ताप से त्रस्त थकित स्वर,
व्यथित तप्त अचला को शीतल कर दे स्वस्ति शान्ति का निर्झर !  
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यह अपार गाथा मानव के संबंधों की ,दुर्बंधों की
तृष्णा ,लोभ अनीति असत्यों की दुर्मन के  षड्यंत्रों की
कुछ सुन्दर करणीय नीति वच के पर खुले नये वातायन
महाकाव्य के महा रचयिता तुम्हें प्रणाम कृष्ण द्वैपायन!
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बर्बरीक -
वे महान पाण्डव भीम के पुत्र घटोतकच्छ और नाग कन्या अहिलवती के पुत्र है। बाल्यकाल से ही वे बहुत वीर और महान यौद्धा थे।
महाभारत का युद्ध कौरवों और पाण्डवों के मध्य अपरिहार्य हो गया था, यह समाचार बर्बरीक को प्राप्त हुये तो उनकी भी युद्ध में सम्मिलित होने की इच्छा जाग्रत हुयी। जब वे अपनी माँ से आशीर्वाद प्राप्त करने पहुंचे तब माँ को हारे हुये पक्ष का साथ देने का वचन दिया।
कृष्ण ने बालक बर्बरीक से पूछा कि वह युद्ध में किस और से सम्मिलित होगा तो बर्बरीक ने अपनी माँ को दिये वचन दोहराये कि वह युद्ध में जिस और से भाग लेगा जो कि निर्बल हो और हार की और अग्रसर हो। कृष्ण जानते थे कि युद्ध में हार तो कौरवों की ही निश्चित है, और इस पर अगर बर्बरीक ने उनका साथ दिया तो परिणाम उनके पक्ष में ही होगा।
उन्होनें बर्बरीक को समझाया कि युद्ध आरम्भ होने से पहले युद्धभूमीं की पूजा के लिये एक वीर्यवीर क्षत्रिय के शीश के दान की आवश्यक्ता होती है, उन्होनें बर्बरीक को युद्ध में सबसे वीर की उपाधि से अलंकृत किया, अतैव उनका शीश दान में मांगा. बर्बरीक ने उनसे प्रार्थना की कि वह अंत तक युद्ध देखना चाहता है, श्री कृष्ण ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली। नका सिर युद्धभुमि के समीप ही एक पहाडी पर सुशोभित किया  गया, जहां से बर्बरीक सम्पूर्ण युद्ध का जायजा ले सकते थे।
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अश्वत्थामा -
 को मुख्यतः कौरव राजकुमार दुर्योधन के परम मित्र के रूप में जाना जाता है। जब भीम ने दुर्योधन का वध किया तो क्रोधित हो अश्वत्थामा ने पांडवों के सभी पुत्रों को मार डाला । जब पांडवों को पता चला तो वे उसे मारने को उद्यत हो गए। लेकिन कृष्ण ने उन्हें रोका । पर अश्वत्थामा ने उन सभी की हत्या करने के लिए ब्रह्मास्त्र निकाल लिया। लेकिन ब्रह्मा के यह उसे यह समझाया और उसने वह महाविनाशक अस्त्र उत्तरा के अजन्मे शिशु की तरफ मोड़ दिया । इस प्रकार वह बना इतिहास का सर्वप्रथम भ्रूण-हत्यारा। क्रोधित हो कृष्ण ने उसे शाप दिया और उसे मृत्यु से वंचित कर दिया । से मृत्यु -तुल्य पीड़ा का अनुभव तो मिलना था परन्तु मृत्यु नहीं ।
वहअमर है  .
सूचना - अब कुछ समय यात्राओँ पर ,अतः 10-12 दिन की छुट्टी .

शनिवार, 2 जुलाई 2011

जोड़-घटा.



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जीवन में कितने दुख हैं ,
जीवन में कितने सुख हैं,
जोड़ घटा कर देख ज़रा ,थोड़ा सा अंतर होगा .
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कितना थोथापन घेरे ,
थोड़ा कहीं वज़न हो रे ,
छान पछोर अलग कर ले ,असली उतना भर होगा .
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आती-जाती हैं राहें,
उठती है हरदम चाहें,
 सारा रोना है मन का ,फिर काहे का डर होगा .
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मेले की दूकानों में
बिके हुए इन  नामों में
भरमाते हैं विज्ञापन ,  चेताता कुछ स्वर होगा .
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शंका मत कर और न डर,
अपने को समझाये चल ,
जितना बने  निभाये जा  ,अंत परम सुन्दर होगा !
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