शुक्रवार, 20 नवंबर 2009

याचना.

तपा-तपा कर कंचन कर दे ऐसी आग मुझे दे देना !
सारी खुशियाँ ले लो चाहे,तन्मय राग मुझे दे देना !
*
मेरे सारे खोट- दोष सब ,लपटें दे दे भस्म बना दो ,
लिपटी रहे काय से चिर वह ,बस ऐसा वैराग्य जगा दो !
रमते जोगी सा मन चाहे भटके द्वार-द्वार बिन टेरे ,
तरलित निर्मल प्रीति हृदय की बाँट सकूँ ज्यों बहता पानी ,
जो दो मैं सिर धरूं, किन्तु विचलन के आकुल पल मत देना
*
सारे सुख सारे सपने अपनी झोली में चाहे रख लो,
ऐसी करुणा दो अंतर में रहे न कोई पीर अजानी !
सहज भाव स्वीकार करूँ हो निर्विकार हर दान तुम्हारा,
शाप-ताप मेरे सिर रख दो ,मुक्त रहे दुख से हर प्राणी !
जैसा मैंने पाया उससे बढ़ कर यह संसार दे सकूँ ,
निभा सकूँ निस्पृह अपना व्रत बस इतनी क्षमता भर देना !
*
आँसू की बरसात देखना अब तो सहा नहीं जायेगा ,
दुख से पीड़ित गात देख कर मन को धीर नहीं आयेगा !
इतनी दो सामर्थ्य व्यथित मन को थोड़ा विश्राम दे सकूँ
लाभ -हानि चक्कर पाले बिन मुक्त-मनस् उल्लास दे सकूँ
सुख -दुख भेद न व्यापे ऐसी लगन जगा दो अंतर्यामी ,
और कहीं अवसन्न मनस्थिति डिगा न दे वह बल भर देना !
*
ऐसी संवेदना समा दो हर मन , मन में अनुभव कर लूं
बाँटूँ हँसी जमाने भर को अश्रु इन्हीं नयनों में धर लूं !
हँसती हुई धरा का तल हो जग-जीवन हो चिर सुन्दरतर !
हो प्रशान्त , निरपेक्ष-भाव से पूरी राह चलूँ मन स्थिर !
सिवा तुम्हारे और किसी से क्या माँगूँ मेरे घटवासी ,
जीवन और मृत्यु की सार्थकता पा सकूँ यही वर देना !
*
दो वरदान श्रमित हर मुख पर तृप्ति भरा उल्लास छलकता
निरउद्विग्न हृदय से ममता ,मोह ,छोह न्योछावर कर दो !
अंतर्यामी ,विनती का यह सहज भाव स्वीकार करो तुम,
उसके बदले चाहे मेरी झोली अनुतापों से भर दो !
मेरे रोम-रोम में बसनेवाले मेरे चिर-विश्वासी,
हर अँधियारा पार कर सकूँ मुझको परम दीप्त स्वर देना !
*

गुरुवार, 12 नवंबर 2009

ओ,अंतर्यामी

मैंने क्या किया ?
कुछ नहीं किया मैंने ,तुम अर्जुन ,तुम दुर्योधन ,
द्रौपदी अश्वत्थामा और व्याध भी तुम्हीं !
सूत्रधार और कर्णधार सब कुछ तुम्ही तो हो
तुम्ही ने रचा सारा महाभारत
और झेलते रहे सारे शाप ,संताप ,
सबके हृदय का उत्ताप !
*
मुझसे क्या पूछते हो मेरे कर्मों का हिसाब !
सब पहले ही लिख चुके थे तुम
एक एक खाना भर चुके थे !
मुझे ला छोड़ा बना कर मात्र एक पात्र ,
अपने इस महानाट्य का ,ओ नटनागर !
मुझे तो पूरी इबारत भी पता नहीं थी ,न आदि न अंत !
एक एक वाक्य ,थमाते गये तुम
पढ़ती गई मै !
*
निमित्त मात्र हूँ मैं तो !
रखे बैठे हो पूरी किताब!
अब पूछो मत !
नहीं ,
नहीं दोहरा पाऊँगी अब !
*
ओ,अंतर्यामी ,
छोड़ दिया है मैंने
अपने को तुम्हारे हाथों में !
पूछो कुछ मत,
जो चाहो ,करो !

बुधवार, 4 नवंबर 2009

धरोहर -

शताब्दियाँ फटक-पछोर कर सँवारती रहीं जिसे,
युग-युगान्तर ठोंकते-बजाते परखते रहे ,
कसी जाती ,निखरती रही
निरंतर नये परिवेश के साथ,
और लोकमन चंदन- सा माथे चढाये रहा ,
दिग्दिगन्त महक उठता जिस सुवास से ,
पाई है हमने जो धरोहर ,
- हमारी संस्कृति !
अगली पीढ़ी को सौंपे बिना
शान्ति कहाँ ,मुक्ति कहाँ !
*
एक ही कथा है
जिसके भन्न-भिन्न पात्र हैं हम ।
एक ही विरासत !
और यहाँ भी सारा हिन्दुस्तान सिमट आया ,
धारे अपना वहीं वेष !
*
यहाँ भी -
दुर्गा - लक्ष्मी और गणपति रुचिपूर्वक रचनेवाली ,
और समारोह पूर्वक विसर्जित करनेवाली
अपने देश की माटी हर बरस जता जाती -
जीवन-मृत्यु दो छोर हैं
समभाव से ग्रहण करो !
सृजन को जीवन का उल्लास
और विसर्जन को उत्सव बनाना ही
है -जीवन का मूल राग !
*
यहाँ की चकाचौंध जिसे भरमा ले दौड़ती भागती बिखरन ही उसके हाथ
आई , तृप्ति तो मुझे कहीं नज़र नहीं आती ।
इस नई दुनिया की ,आँखों को चौंधियाती चमक देखो, कितने दिन की
पर सहस्राब्दियों की कसौटी पर कसी
पुराने की अस्लियत अंततः सामने आ ही जाती है ।
पर जीवन का जो अंश वहाँ छोड़ आये
उसकी कमी हममें से किसे नहीं सताती ।
कभी अकेले में ,
किसकी आँख नहीं भऱ आती ।
*
जब यहाँ होती हूँ ,
अपना देश चारों ओर देख लेती हूँ ,
और वही दृष्टि इन सब आँखों में देख
एक गहरा संतोष मन को आश्वस्ति से भर जाता है ।
*