मंगलवार, 13 अक्तूबर 2015

कुछ लोकरंग देवी को अर्पण -

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मइया पधारी मोरे अँगना,
मलिनिया फुलवा लै आवा,
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ऊँचे पहारन से उतरी हैं मैया,
छायो उजास जइस चढ़त जुन्हैया.
रचि-रचि के आँवा पकाये ,
 कुम्हरिया ,दीपक के आवा.
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सुन के पुकार मइया जाँचन को आई  ,
खड़ी दुआरे ,खोल कुंडी रे माई !
वो तो आय हिरदै में झाँके ,
घरनिया प्रीत लै के आवा ,
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दीपक  कुम्हरिया ,फुलवा  मलिनिया   ,
चुनरी जुलाहिन की,भोजन किसनिया.
मैं तो  पर घर आई - 
दुल्हनियाँ के मन पछतावा.
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 उज्जर हिया में समाय रही जोती .
रेती की  करकन से  ,निपजे रे   मोती.
काहे का सोच बावरिया,
मगन मन-सीप लै के आवा !
हिया जगमग हुआ जावा !
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सोमवार, 5 अक्तूबर 2015

अन्तर -

(यह कविता आप सबसे शेयर करना चाहती हूँ -
 रचनाकर्त्री को आभार सहित - प्रतिभा.)

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    हम भिंचे हैं दो पीढ़ियों के बीच
    बुरी तरह ।


    पुरानी पीढ़ी की आशाओं को फलीभूत करने में
    बिता दी उम्र सारी ।
    उनके आदेशों को शिरोधार्य करते रहे ,
    जीते रहे ,लगभग जैसा चाहा उन्होंने ।
      भागीदार बनाया उन्हें जीतों में , हारों में ।

*
      पर आज का ये धर्म-संकट !
      दिखाता है कुछ नया रंग,  नया ख़ून ।
      नई माँगें , नये मानदण्ड,
      कुछ उचित , कुछ अनुचित ।

      एक बड़ा सा प्रश्नचिह्न , प्रतिक्षण , प्रतिपल
      मुँह फाड़े खड़ा है ।

*
    
      नीवें  हिलने सी लगी हैं ।
      क्या घर को बनाए रखने के लिये
      हम समझौते ही करते जाएँगे ?
      हाय ! कैसी विडम्बना है यह भाग्य की ?
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                              पुष्पा सिंह राव
                                      मुम्बई