रविवार, 1 सितंबर 2024

बीज - मंत्र .

*

शब्द बीज हैं!

बिखर जाते हैं,

जिस माटी में ,  

उगा देते हैं कुछ न कुछ.

संवेदित, ऊष्मोर्जित

रस पगा बीज कुलबुलाता

 फूट पड़ता , 

रचता नई सृष्टि के अंकन !

*

शब्द मंत्र हैं,
उच्चरित-गुञ्जित 
अंतराग्नि में आहुतियाँ देते
 चलता रहे जीवन-यज्ञ!
फिर-फिर हरियाये धरा.
जीवन-गंध बाँटे पवन
विश्व-मंगल और ,
सृष्टि का  नव-नवोन्मीलन!
*

गुरुवार, 15 अगस्त 2024

नियति -

 मानव रचना का वृहत् कार्य कर ,सृष्टि निरख हो कर प्रसन्न.

अति तुष्टमना सृष्टा लीलामयि सहचरि के साथ मग्न

देखा कि मनुज हो सहज तृप्त, हो महाप्रकृति के प्रति कृतज्ञ

आनन्द सहित सब जीवों से सहभाव बना रहता सयत्न .


वन, पर्वत, सरिता, गग,न पवन से साँमंजस्य बना संतत,

 ऋतुओं से ,कालविभागों के अनुकूल सदा नियमित संयत

जड़-चेतनमय जग जीवन को करता चलता सादर स्वीकृत,

तब विधना धरती के मानव से बोल उठा यों स्नेह सहित -


मानव तुम मुक्त विहार करो यह सब अधीन हैं संरक्षित

इन सब के साथ चले जीवन, सबका हित ही हो अपना हित.

ये गिरि मालाएँ वन शाद्वल,ये हरित द्रोणियाँ ,उच्च शिखर

तुम इन सबके संरक्षक हो, जगजीवन हो सुखमय सुन्दर.


वसुधा कुटुम्ब है, जड़-चेतन.संसार यही है सर्वभूत,

तू जी, औरों को जीने दे ,सुविधाएँ सबके हित प्रभूत.

नत-शीश मनुज बोला, उपकृत हूँ पा इतनी सार्थ्य देव!

हम महाप्रकृति की संतानें लघुतम या दीर्घाकार जीव.


हो गयी धरा वरदानमयी ,फिर चलने लगा सृष्टि का क्रम, 

सीखता रहा धीरे-धीरे सुखमय जीवन का कर उपक्रम.

सदियाँ बीतीं, होता जाता था वह प्रबुद्ध औ' कर्म-कुशल,

लेकिन अति सुख-सुविधाओँ का लोभी बनकर हो गया विकल.


तब शेष जगत के लिए मनुज होता ही गया सँवेदहीन,

अधिकाधिक अधिकारों के हित औरों का हिस्सा रहा छीन.

अति हुई और हिल उठी धरा ,आकाश थरथरा गया सहम,

सागर उफनाए रुद्ध दिशाएँ आर्तनाद से भरा पवन.


भऱ अहंकार में लगा रहा कैसे अनिष्ट के महादाँव.

हो चकित विधाता देख रहा क्या बदल गया मानव-स्वभाव!

हो रम्य प्रकृति से दूर ,सृष्टि का अनुशासन कर रहा भंग,

स्वच्छंद और अतिचारी होता जाता है दिन-दिन प्रचंड.


चर-अचर सभी पर मनमाना अपना अधिकार अबाध मान

व्यवहार-क्रूरता औ' अनीति से कर देता कम्पायमान.

भूधर की रीढ़ें तोड़-फोड़ ,जल के स्रोतों में ज़हर घोल,

आकाश दिशाएँ धुआँ-धुआँ,भूगर्भों तक गहरे खखोल.


बेचारे पशुपक्षी निरीह, वञ्चित अशरण हो गए दीन,

आतंक मनुज का छाया प्रकृति मलीन,विवश अति शान्तिहीन. 

अब तो इतना चढ़ गया, आदमी हुआ आदमी का बैरी ,

अपने विनाश का कारक ही बन बैठा चालें चल गहरी.


भृकुटी टेढ़ी कर विधना ने तब लिखी मनुज के लिए मियति ,

अब तक तू ही तू रहा ,किन्तु अब कर पापों का प्रायश्चित्.

बेबस निरीह, तन-मन से रोगी,परम विकल ज्यों शापग्रस्त.

तू नेपथ्यों में रह जा कर यह विश्व हो सके पुनः स्वस्थ.


रे घोर पातकी, तेरे पापों ने जो दूषण फैलाया है 

उसके निस्तारण हेतु प्रकृति का निर्णय सम्मुख आया है.

अपने जीवन का समाधान अब तो तुझ पर ही है निर्भर

 संयत-संयम धर सुधर या कि फिर घिसट एड़ियाँ रगड़-रगड़! 


सब-कुछ पाकर भी चूक गया ,सब किया धरा हो गया वृथा.

मानव की यह विकास-गाथा या कहें पतन की विषम-कथा?

इस कालचक्र के घूर्णन में ,नव उदय, विकास, समापन दे 

अविराम कथाएं रचती रहती नियति नटी अपने क्रम से! 

  - प्रतिभा सक्सेना.


 


 



























बुधवार, 17 मई 2023

अनायास -

 *

नयन अनायास भर आते हैं कभी,

 यों ही  बैठे बैठे!

नहीं ,

कोई दुख नहीं ,

कोई हताशा नहीं ,

शिकायत भी किसी से नहीं कोई.

क्रोध ? उसका सवाल ही नहीं उठता .


जाने क्यों  बूँदे झर पड़ती है ,

बस ,यों ही चुपचाप बैठे .

कारण कुछ नहीं !


मन ही तो है!!

यों ही उमड़ पड़े कभी,

कभी बादल कभी धूप 

कहाँ तक रहे बस में !


जाने दो !

मन को मन ही रहने दो ,

जीवन यों ही चलता है 

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शनिवार, 6 मई 2023

श्री गणपति-गौरा को अर्पित !

*

पधारो श्री गणपति मोरे अँगना ,

पग धारो माँ गौरा, हमारे अँगना .

तुम्हरी कृपा सों मंगल कारज,चन्दन चौकी विराजो अंगना !

लाई गंगाजल सोने के कलसा ,चुन-चुन बेला चमिलिया के फुलवा ,

होवे कुलचार हमारे अँगना !

मंगल मिलि सौभागिनि गावें, सखि मिलि मोतिन चौक पुरावें .

बाजे  ढोलक-मँजीरा, हमारे अँगना .

गणपति रिधि-सिधि संग लै अइयो ,लाभ-सुभहिं  हँकार बुलइयो  !

विहरैं दोऊ आवैें  हमार भवना  .

बाधा-विघन दूरि करि डारौ, गणपति सब विधि काज सँवारो.

सब विधि हम भए , तुम्हारी सरना ! 

सब सुख पावैं आरुषि-केतन सफल सारथक होवै जीवन 

करो पूरन कामना, माँ पुरणा !

गौरा-गणेश कृपालु भए रे, रिधि-सिधि सब ही काज निबेरे .

सजे मंगल साज , हमारे अँगना !

*



शनिवार, 25 मार्च 2023

एक दिन...

 


एक दिन 

एक दिन अति शान्त मन ,
मैं चली आऊँगी तुम्हारे पास !
*
और, विचलित न हो जब थिर हो सकूँ`
मौसमों से दोस्ती के बीज फिर से बो सकूँ
अभी थोड़ा भ्रम बचा ही रह गया होगा ,
उबर कर मैं चली आऊँगी तुम्हारे पास !
एक दिन अति सहज,आरोपण हटाकर .चली आऊंगी तुम्हारे पास
*
अभी राहें कहाँ चल कर पास आने को
रीति-नीति सभी निभाने को पड़ी हैं ,
निर्णयों में देर ही होती चली जाती,
और भी कठिनाइयाँ आकर अड़ी हैं ,
अभी कहाँ निवृत्ति मेरी ,शेष हैं कुछ ऋण चुकाने को
एक दिन जब चुप न रह कर बहूँ निर्झऱ सी बिना आयास
*
मत बुलाना ,फिर कहीं
कोई विवशता टेर लेगी
टेरना मत अभी
द्विविधा लौट कर फिर घेर लेगी
रस्ते से बुला ले कोई रुकावट कहीं ,फिर जाऊँ वहीं चुपचाप
दीप की कँपती हुई लौ जल सके निर्वात ,
तभी आऊँगी तुम्हारे पास
*
एक दिन सबसे उबर लूँ ,सिर चढ़े जो दोष
उसी दिन ऐसा लगेगा अब न कोई टोक ,
बीत जाये यह विषम घड़ियाँ बड़ी हैं
तपन औ', विश्रान्ति शीतल हो कि जब अनयास .
*
कुछ समझना रह गया होगा .
कहीं कच्चापन बचा होगा .
पार हो जायें सभी व्यवधान ,
पूर्ण अपने स्वयं का संधान ,
एक दिन आँसू जमे जब,
पिघल-गल बह जायँ अपने आप !
एक दिन अति स्निग्ध औ'निष्पाप
चली आऊंगी तुम्हारे पास .
*

देह के , मन के अभी तो शेष हैं घेरे
यहाँ के व्यवहार के
बाकी अभी फेरे
कामना के साथ कितने जाल
घेरते बन व्याल .
नृत्य सी लालित्यमय बन जाय हर पदचाप,
तभी आऊंगी तुम्हारे पास
*
(पूर्व लिखित)

मंगलवार, 17 जनवरी 2023

एक बरस बीत गया,

 *

एक बरस बीत गया,

जीवन-घट जल अधिकांश बीत, रीत गया 

पहुँचे सभी को प्रणाम और जुहार विनत ,     

बोले-अनवोले मीत,पांथ-पथिक संग-नित,            ,

देखे-अनदेखे संग चलते मुखर-मौन भले 

उन सब को मेरा हृदय से प्रेम-भाव मिले,

कह न सकूँ जो भी पर मन तो भरा आता है 

सबसे जुड़ा रास्ते का अनकहा-सा नाता है .

उसके ही बल पर कभी मै बोलती रही 

अपने को, कभी और को भी तोलती रही 

 *

कोई जो कहता  कान खोल  सुन लेती हूँ 

 बहुतेरी बार कुछ कहे बिन गुन लेती हूँ 

हम सब सुदूर कहीं यों ही  बह जायेंगे /

पतझर के पत्तों से, कभी न साथ आएँगे! 

कहा-सुना भला बुरा यहीं छूट जाएगा 

समय के साथ मीत, सभी बीत जाएगा!

हाथ जोड़ मेरी इस  विनती का मान धरें

मुझसे दुख पहुँचा हो,, कृपया, क्षमादान करें !


मंगलवार, 22 नवंबर 2022

ओ नारी ,

*

ओ नारी ,

अब जाग जा,

उठ खड़ी हो ! 

कब तक भरमाई रहेगी?

मिथ्यादर्शों का लबादा ओढ़,

 कब तक  दुबकी रहेगी, 

परंपरा की  खाई में ?

*

 चेत जा,

उठ खड़ी हो!  

मार्ग मत दे ,

 निरा दंभी , मनुजता का कलंक

 कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा तेरा

अहंकारी हो कितना भी .

अपने आप में क्या  है?

जान ,समझ!

 पहचान अपने को ,

सृजन  सार्थक कर !

*

किसका भय ?

तू दुर्बल  नहीं ,

तू विवश नहीं ,

तू नगण्य नहीं

धरा की सृष्टा,

निज को पहचान!

*

अतिचारों का  कैंसर,

पनप रहा दिन-दिन, 

विकृत  सड़न फैलाता  कर्क रोग.

निष्क्रिय करना होगा 

तुझे ही  वार करना होगा   ,

निरामय सृजन के

दायित्व का वास्ता !

*

 लोरी में भर जीवन-मंत्र ,

 पीढ़ियाँ पोसता आँचल का अमृत-तंत्र ,

तू समर्थ हो कर रह  ,

अपनी कोख  लजा मत !

*

 शीष उठा कर  रह

 सहज, अकुंठित स्वरूप में .

अन्यथा

 विषगाँठ का पसरता दूषण,

और धरती का छीजता तन ,

मृत पिंड सा 

 टूटता -बिखरता अंतरिक्ष में

विलीन हो जाएगा !

*