शुक्रवार, 25 अप्रैल 2014

सहयात्री.

(एक बहुत पुरानी कविता कागज़ों में  दबी पड़ी रही , अब मिल गई तो  उसी रूप में यहाँ उतारे दे रही हूँ -)
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सहयात्री -
रस्ते के कंकड़-पत्थर ,पग-पग की ठोकर ,
तपता आतप ताप और ये काँटे .
चलना है स्वीकार इन्हें कर .
काँटों का विष-वमन ,धूप की तपन,
 राह दुर्गम है !
नीरस जीवन भार  
 नेह को दो ही बोल सहज कर जाते ,
दो क्षण की मुस्कान सँजो लेते
  पथ के ये विषमय  काँटे ,
जग की मौन उपेक्षा,उपालंभ, आरोपण ,
तो फिर तोड़ न पाते
ओ सहयात्री, अपने नाते !
*
तेरी-मेरी एक कहानी ,
जहाँ नहीं रुकने का कोई ठौर-ठिकाना ,
उसी जगह से चरण चले थे.

पहला पग जब उठा
 राह बोली थी - आगे,आगे देखो.
एक-एक कर कितनी दूरी इसी तरह मप गई.
पथ के साथी ,
साथ छूटता पर पहचान शेष रह जाती ,
मन में उमड़-घुमड़ जाता व्यवहार स्नेह का ,
जीवन के आतप में जो छाया दे लेता .
*
कह लो कुछ, कुछ सुन लो ,
सूनापन बस जाए दो ही क्षण को :
आगे कितनी दूर अकेले ही जाना है
अपने पथ पर तुमको -हमको !
ओ सहयात्री,
तेरी-मेरी एक कहानी.
जग की कसक भरी रेती पर
जहाँ नहीं रह जाती कोई शेष निशानी .
दो क्षण की पहचान भटकते से चरणों की.
काल फेर जाएगा चापों पर फिर पानी !
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सोमवार, 21 अप्रैल 2014

बटोहिया -

*
राह तीर पनघट पे गागर को धोय माँज,
सीस साधि  इँडुरी ,जल धारि पनिहारिया
पंथी से पूछि रही, 'कौन गाम तेरो ,
तोर नाम-काम कौन, कहाँ जात रे बटोहिया ?'
*
'जनम से चलो जात ,मरण की जातरा पे,
मारग में धूप-छाँह आवत-है जात है !
कोई छाँह भरो थान देखि बिलम लेत कुछू ,
कोई थान ,घाम- ताप गात अकुलात है !
बेबस चलो जात कोऊ रोके को दिखात नाहीं
मारग पे जात लोग साथ रे बटोहिया !
*
'जाने कहां ते ई धरती पे आय पड़्यो
जाने कइस ,जाने कहाँ ,जाने काहे जानो नाहिं
कोऊ नाहीं हुतो, कोऊ जान ना पिछान
खाली हाथ रहे दूनौ, आप हू को पहचानो नाहिं
मारो-मारो  फिरत हूँ  दुनियाँ की भीर
चलो जात हूँ अकेलो  कहात हूँ बटोहिया !
*
'साथ लग जात लोग ,और छूट जावत हैं
नाम मोय नायं पतो ,लोग धर दीनो है
जातरा में पतो कौन, आपुनो परायो कौन
सुबे से चलो हूँ संझा तक गैल कीन्हों है .'
पूछति है बार-बार कौतुक से भरी नार,
'पथ को अहार कहा लायो रे, बटोहिया?'
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'माथे धरी पोटली में धर्यो करम को अचार ,
रोटी तो  पोय के इहाँ ही मोहे खानी है ।
मोह-नेह भरे चार बोल तू जो बोल रही 
ताप और पियास हरि जात ऐसो पानी है.'
'आगे को रँधान हेत करम समेट मीत,
बाँध साथ गठरी में गाँठ दै बटोहिया !'
*
राह अनबूझी  सारे लोग अनजाने इहाँ ,
आय के अकेलो सो परानी भरमात  है
वा की रची जगती के रंग देखि देखि मन
ऐसो चकियायो अरु दंग रहि जात है !
धोय-माँज मन की गगरिया में नेह  पूरि    
पल-पल  सुधि राख, जिन पठायो रे बटोहिया!'

*
'उहै ठौर जाए बे पूछिंगे कौन काम कियो ,
सारो जनम काटि, कहो लाए का कमाय के?'
 पनिहारी हँसै लागि , 'ऐ हू बताय देहु
बात को जवाब कइस देहुगे बनाय के ?
भूलि गयो भान  काहे भेजो हैं इहाँ पे ठेल
ओटन को लाय के  कपास रे बटोहिया!'
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शुक्रवार, 11 अप्रैल 2014

सूपनखा का जन्म -

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 होली आई होली आई ,बड्डू जी ने भाँग चढ़ाई .
जा बैठे कुर्सी पर बड्डू,खाने लगे उठा कर लड्डू
मस्त हुए दस लड्डू खा कर लगे नाचने हथ उठा कर .
हँसने लगे अचानक यों ही ,बात हुई क्या बोला कोई .
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लंका में तूफान उठा है ,हनूमान को नहीं पता है .
जीते राम, गए लंका में ,त्रिजटा पड़ी बड़ी शंका में ,
सबके पूरे हुए काम जी ,पर कुछ सोचो, अरे राम जी ,
सूपनखा अब कहाँ जायगी ,कैसे अपना घर बनायगी ?
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राम और लक्ष्मण जाते हैं उसका न्याय न कर पाते हैं
अब रावण भी नहीं यहाँ पर , किसके पास रहेगी जाकर .
चक्कर में पड़ गए राम जी ,उसका भी तो बने काम जी.
जुड़ी रहेगी राम-लखन से ,किन्तु काम अपने ही मन के ,
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लक्ष्मण पुर का नाम लखनऊ,वही तुम्हारा बने धाम जू,
आधा नाम दूसरा होगा , कोई   राम   साध ही देगा
 ऐसा पहुँचा गुरु पाएगी, पर अनब्याही रह जाएगी  .
ठाठ करेगी ,राज करेगी ,मनमानी हर बात करेगी ,
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हाथी-साथी साथ रहेंगे, लादे तेरा बोझ रहेंगे .
कलियुग में शासन की डोरी , तेरे हाथों थोरम-थोरी,
चाहे जितने ही युग बीतें ,मायाविन तेरी तरतूतें,
जुड़ी रहें माया से  माया ,सूपनखा का जनम सुनाया.
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अब  वह धरती पर आई है ,अपनी  माया फैलाई है
इच्छा पूरी होय तुम्हारी ,पूरी कर दी जुम्मेदारी .
कुर्सी- माया जाय न जानी , बड्डू जी ने कही ज़बानी.
प्रकटी माया  राम धन्य हो ,सूपनखा कलि में प्रणम्य हो !
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