एक बार भोले शंकर से बोलीं हँस कर पार्वती ,
' चलो जरा विचरण कर आये ,धरती पर कैलाशपती !
विस्मित थे शंकर कि उमा को बैठे-ठाले क्या सूझा ,
कुछ कारण होगा अवश्य, मन ही मन में अपने बूझा !
' वह अवंतिका पुरी तुम्हारी ,बसी हुई शिप्रा तट पर ,
वैद्यनाथ तुम ,सोमेश्वर तुम, विश्वनाथ , हे शिव शंकर !
बहिन नर्मदा विनत चरण में अर्घ्य लिये, ओंकारेश्वर ,
जल धारे सारी सरितायें ,प्रभु, अभिषेक हेतु तत्पर !
इधर बहिन गंगा के तट पर देखें कैसा है जीवन ,
यमुना के तटपर चल देखें मुरली-धर का वृन्दावन !
बहनों से मिलने को व्याकुल हुआ हृदयहे महायती ! '
शिव शंकर से कह बैठीं अनमनी हुई सी देवि सती !
जान रहे थे शंभु ,जनों के दुख से जुडी जगत- जननी ,
जीव-जगत के हित- साधन को चल पडती मंगल करणी !
' जैसी इच्छा ,चलो प्रिये ,आओ नंदी पर बैठो तुम ,
पंथ सुगम हो देवि, तुम्हारे साथ-साथ चलते हैं हम !'
अटकाया डमरू त्रिशूल में ऊपर लटका ली झोली ,
वेष बदल कर निकल पड़ , शंकर की वाणी यह बोली -
'' जहाँ जहाँ मैं ,वहाँ वहाँ मुझसे अभिन्न सहचारिणि तुम ,
हरसिद्धि ,अंबा ,कुमारिका ,भाव तुम्हारे हैं अनगिन !
'ग्राम-मगर के हर मन्दिर में नाम रूप नव- नव धरती !'
हिम शिखरों के महादेव यों कहें ,'अपर्णा हेमवती !
मेकल सुता और कावेरी ,याद कर रहीं तुम्हें सतत,
यहाँ तुम्हारा मन व्याकुल हो उसी प्रेमवश हुआ विवश ! '
उतरे ऊँचे हिम-शिखरों से रम्य तलहटी में आये ,
घन तरुओं की हरीतिमा में प्रीतिपूर्वक बिलमाये !
आगे बढ़ते जन-जीवन को देख-देख कर हरषाते ,
नंदी पर माँ उमा विराजें, शिव डमरू को खनकाते !
हँसा देख कर एक पथिक ,'देखो रे कलियुग की माया ,
पति धरती पर पैदल चलता ,चढी हुई ऊपर जाया !'
रुकीं उमा ,उतरीं नंदी से ,बोलीं,'बैठो परमेश्वर!
मैं पैदल ही भली ,कि कोई जन उपहास न पाये कर !'
' इच्छा पूरी होय तुम्हारी ,'शिव ने मान लिया झट से ,
नंदी पर चढ़ गये सहज ही अपने गजपट को साधे !
आगे आगे चले जा रहे इस जन संकुल धरती पर ,
खेत और खलिहान ,कार्य के उपक्रम में सब नारी नर !
उँगली उनकी ओर उठा कर दिखा रहा था एक जना ,
कोमल नारी धरती पर ,मुस्टंड बैल पर बैठ तना !'
' देख लिया ,सुन लिया ?' खिन्न वे उतरे नंदी खड़ा रहा ,
उधर संकुचित पार्वती ने सुना कि जो कुछ कहा गया !
' हम दोनों चढ़ चलें चलो, अब इसमें कुछ अन्यथा नहीं ।
शंकर झोली टाँगे आगे फिर जग-जननि विराज रहीं !
दोनों को ले मुदित हृदय से मंथर गति चलता नंदी ,
हरे खेत सजते धरती पर बजती चैन भरी बंसी !
' कैसे निर्दय चढ़ बैठे हैं,,स्वस्थ सबल दोनों प्राणी ,
बूढ़ा बैल ढो रहा बोझा ,उसकी पीर नहीं जानी !'
कह-सुन कर बढ़ गये लोग ,हत्बुद्धि उमा औ' शंभु खड़े ,
कान हिलाता वृषभ ताकता दोनों के मुख, मौन धरे !
' चलो,चलो रे नंदी, पैदल साथ साथ चलते हैं हम ,
संभव है इससे ही समाधान पा जाये जन का मन !'
जब शंकर से उस दिन बोलीं आदि शक्ति माँ धूमवती ,
चलो ,जरा चल कर तो देखें कैसी है अब यह धरती !
हा,हा, हँसते लोग मिल गये उन्हें पंथ चलते-चलते ,
'पुष्ट बैल है साथ देख ले, पर दोनों पैदल चलते ,
जड़ मति का ऐसा उदाहरण ,और कहीं देखा है क्या ?'
वे तो चलते बने किन्तु ,रह गये शिवा - शिव चक्कर खा !
' कैसे भी तो चैन नहीं दुनिया को ,देखा पार्वती ,
अच्छा था उस कजरी वन में परम शान्ति से तुम रहतीं !'
'सबकी अपनी-अपनी मति ,क्यों सोच हो रहा देव, तुम्हें ,
उनको चैन कहाँ जो सबमें केवल त्रुटियाँ ही ढूँढे !
दुनिया है यह, यहाँ नहीं प्रतिबन्ध किसी की जिह्वा पर ,
चुभती बातें कहते ज्यों ही पा जाते कोई अवसर !
अज्ञानी हैं नाथ, इन्हें कहने दो ,जो भी ये समझें ,
निरुद्विग्न रह वही करें हम, जो कि स्वयं को उचित लगे !
कभी बुद्धि निर्मल होगी जो छलमाया में भरमाई !
इनकी शुभ वृत्तियाँ जगाने मैं,हिमगिरि से चल आई ,
ये अबोध अनजान निरे ,दो क्षमा -दान हे परमेश्वर !
जागे सद्- विवेक वर दे दो ,विषपायी हे,शिवशंकर ! '
भोले शंकर से बोलीं थीं , उस दिन दुर्गा महाव्रती
अपनी कल्याणी करुणा से सिंचित करतीं यह जगती !
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