मंगलवार, 23 जुलाई 2013

काँवरिया.

सावन महीना बम्भोले को हिये धारि
त्यागि गृह साधु-भेस धारै है काँवरिया !
*
फूलन-बसन सों रुच-रुच सजी निहारि
ग्राम-जुवती बढ़ि आई राह कोर पे ,
काँवर की सोभा निहारि रही नैनन सों,
भइया रे ,इहाँ आय ठाड़ै, कौन छोर ते ?
कइसन जतन से सजाई ओहार डारि,
मोर मन देखि के जुड़ात,  रे कँवरिया !
*
काँवर में भरि जल लाये लाये कौन तीरथ को ,
काहे ते ओहिका धरा ते ना छुआत हौ ?
दूर-पार देस ,भार काँवर को काँधे लै ,
मारग अगम, पाँ- पयादे चले जात हौ ?
और बात पीछे, पहले इहै बताय देउ
आये कहाँ ते, कहाँ जात रे, कँवरिया ?
*
जीवन- जलधार अथाह आदि-अंत नाय
काँवर में नीर हौं तहाँ से लै जात हौं
सीतल विमल ताही स्रोत को प्रवाह-जल ,
 जाय के दिगंबर भूतनाथ को चढ़ात हौं !
धरती की रज छुये, राजस न होइ जाय
सुद्ध सतभाव को बढ़ावत कँवरिया !
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मन की उमंगा लिये गंग की तरंगा ,
आपुन लघु पात्र जित समायो ,भरि लायो हूँ!
कामना न मोरी कछु ,भावना चलाय रही
जाया-धाम-पूत-नात सब बिसारि आयो हूँ.
राग-द्वेस ,मोह-मान भूलि के, विराग धारि
जीवन के पुन्य-राग लीन हौं कँवरिया!
*
कुछू बिलमाय लेहु चौतरा पे बैठि ,नेक
राम की रसोई को परसाद पाय लेहु रे ,
नीम की बयार में जुड़ाय लेहु स्रमित देह
धूप बरसात की तपाय कष्ट देत रे !
उत्तर की ओर मुड़ि जात वृत्ति जीवन की
देह धरे तीरथ लखात है कँवरिया !
*
भाव-लीन मानस में भूख-प्यास ,सीत-ताप ,
व्यापत न ,सींचति है भावना फुहार-सी !
माई री ,ममता में मन को न बोर, ई है
तप की विराग भरी बेला त्योहार सी ,
एक व्रत है, सो निभाइ के रहौंगो ताहि
सुविधा के हाथ ना बिकाइ हैं कँवरिया !
*
देह-भान भूलि ,भाव-लीन मन, धारि व्रत
जात्रा में ऐते दिन परम सुख पायो रे !
कुछू नायँ चाहै बे रहत समाधिलीन ,
प्रकटन कृतज्ञता को आपुनो उपायो रे.
पुन्य-थल भक्ति -जल परम पुनीत भरे
सत्य ही कृतारथ ह्वै जात है कँवरिया !
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इतै दिन मन साधि रहौं साधु निहचय करि ,
फिर तो गृहस्थ हूँ, जगत को निभाइहौं ,
व्रत को सत-भाव आसुतोस को प्रभाव
धारि, मानस की वृत्तिन को निरमल बनाइहौं
माई , आनन्द-नीर मानस पखारन को
पाप-ताप-साप हू नसाये, रे कँवरिया !
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बरस-बरस, मास-मास ऐही व्रत धारि धारि ,
या सों सत-भाव ही सुभाव बनि जात रे,
काँटे और कंकर जो संकर की साधना में
ऊँची-नीची राह को प्रसाद बनि जात रे !
मानुस को जनम ,सुबुद्ध दई दाता ने
आपुनपो हारि बढ़ि जात रे ,कँवरिया !
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बिसम दाह तिहुँपुर के धारि कंठ नील भयो
धीर-गंभीर चंद्रमौलि वे दिगंबरा !
उनही के चाहे जन्म-मृत्यु के विधान भये
विगत मान, आत्मरूप धारे विशंभरा.
तिनही के माथ ,जल डारन के काज हेतु
साधन बनायो तुहै धन्य रे कँवरिया !
*
काँवर उठाये चलि दीन्हों पयादे पाँय ,
राह चलत और साथ वारे मिलि जायेंगे ,
और देस-दिसा सों अनेक व्रतवारे साथ
एक ही प्रवाह एक धारा बन जायेंगे .
'ॐ बम्भोले-नाद' गगन गुँजाय रहे ,
एक रूप -प्राण ह्वै जात हैं कँवरिया !
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गुरुवार, 11 जुलाई 2013

जल-महोत्सव .

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शिरो स्नान कर  गीले बदन चल दीं हवाएँ ,
उधर पूरव दिशा में  जल-महोत्सव चल रहा होगा !
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बिखरते जा रहे उलझे टपकते  केश काँधे पर
दिशाओं   में अँधेरा रेशमी फैला ,
 सिमट कर  रोक लेती
सिक्त पट की जकड़ती लिपटन,
उठा पग थाम कर बढ़ने नहीं देता!
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 सिहरते पारदर्शी गात की आभा नहीं छिपती
दमक कर बिजलियों सी
कौंध जाती चकित नयनों में ,
दिशाएँ चौंक जातीं ,
दृष्य-पट सा खोलकर सहसा
हवा चलती कि पायल-सी  झनक जाती.
 *
रँगों की झलक छलकी पड़ रही
श्यामल घटाओं में ,
कि ऋतु का नृत्य- नाटक ,
पावसी परिधान ले सारे
वहाँ का मंच अभिनय से जगा होगा  !
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 मृदंगों के घहरते स्वर ,
उमड़ते आ रहे रव भर.
वहाँ  उन मदपियों  की रंगशाला में,
उठा  मल्हार का सुर 
दूर तक चढ़ता गया होगा !
 महोत्सव चल रहा होगा !
*