गुरुवार, 22 अक्तूबर 2009

गगन ने धरा से कहा एक दिन

गगन ने धरा से कहा एक दिन ,
सिर्फ पत्थर बसे हैं तुम्हारे हृदय में !
*
झरे फूल कितने इसी धूल में ,
पर कभी भी तुम्हें मोह करना न आता ,
मिटे रूप कितने तुम्हारे कणों में,
कभी भी तुम्हें याद करना न भाता !

सदा अर्थियों की चितायें जलीं ,
पर तुम्हें एक आँसू बहाना न आया ,
सदा तुम मिटाती रही कि तुम पर
कभी वेदना का जमाना न आया !

न जाने तुम्हारा न नाता किसी से
किसी का तुम्हें साथ भाता नहीं है ,
कि उर्वर तुम्हें जो बनाया प्रकृति ने
वही गर्व उर में समाता नहीं है !
सदा खेलती तुम रही जीवनो से ,
न काँटे खटकते तुम्हारे हृदय में !
*
धरा कुछ हिली अब न बोलो गगन ,
मै विवश हूँ कि मुझको दिखाना न आता ,
सतह देखती रोशनी ये तुम्हारी ,
उसे प्राण मन मे समाना न आता !

धधकती अनल को न देखा न देखी
करुण वारि-धारा छिपाये हुये हूँ ,
इसी धूल की रुक्षता के सहारे
अरे सृष्टि का क्रम चलाये हुये हूँ !
*
मिटाया न अपने लिये हाय उनको ,
कि जिनको खिलाय कभी अँक मे ले !
जनम औ'मरण बीच मैं ही पडी हूँ ,
न जीवन जनम दे ,मरण गोद ले ले !
कहो सुख कहूँ या इसे दुःख मानूँ ,
बसा एक कर्तव्य मेरे हृदय में !
*

4 टिप्‍पणियां:

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  3. सुंदर सुगठित सरल और सहज रचना...एकदम ह्रदय में उतर गयी.....खासकर धरती की बातें.....
    :) आकाश की जानिब से जो आपने लिखा..वो पढ़ते हुए ज़रूर लगता रहा कि,''..हाँ सही तो है...और ऐसा क्यूँ है..?'' फिर धरती के बातें पढने के बाद लगा...आकाश ने उन चीज़ों की तो चर्चा ही नहीं की...जहाँ धरती से जीवन प्राप्त हो रहा है..मसलन वनस्पतियों के अंकुर...पशुओं/मानव के आश्रय वगैरह..!

    'कि उर्वर तुम्हें जो बनाया प्रकृति ने
    वही गर्व उर में समाता नहीं है !'

    न न ! :) कित्ती कठोर बात कह दी गगन ने भी...:/

    'सदा तुम मिटाती रही कि तुम पर
    कभी वेदना का जमाना न आया !'

    :/:/ गगन भी एकदम पगलू है..:/ जाने धरती पर छाये हुए ऊंघता रहता है...जो देख नहीं पाता...किस तरह से खुरचती है धरती माँ..तब जाके अन्न मिलता है.......:( मृत देह (किसी की भी हो..) उसे अपनी गोद में जगह देने वाली धरती की ममता का कहाँ कोई सानी है...मानव तो झटपट किसी अपने के मरे हुए शरीर से छुटकारा पा लेना चाहता है.......देह और अस्थियों को धरती भी गोद में न जगह दे तो बस हो गया अतिम संस्कार फिर ..आजकल तो गिद्ध और चील भी नहीं बचे...विलुत्प होने के कगार पर हैं सब...:/:/


    ''मै विवश हूँ कि मुझको दिखाना न आता ,''
    हम्म....मगर बिना ज़ाहिर किये भी स्नेह स्पष्ट तो हो ही जाता है..फिर भाषा चाहे आँखों की हो..मनोभावों की...या मूक स्पर्श की.......हमेशा शब्दों की दरकार नहीं रहती..:) गगन ही को समझना नहीं आता...:)

    ''कहो सुख कहूँ या इसे दुःख मानूँ ,
    बसा एक कर्तव्य मेरे हृदय में ''

    हम्म....कर्तव्य का क्षितिज....जहाँ सुख दुःख आकर मिल जाते हैं...जहाँ धर्म कि परिभाषा ह्रदय पर हावी हो जाती है........सचमुच निश्चित कर पाना कितना कठिन है.......

    बहुत प्यारी कविता......और सबसे अच्छी चीज़ जो अभी अभी मैंने देखी...धरा का सहज और विनम्र स्वर...कहीं भी गर्व या दंभ नहीं.......
    बहुत बधाई !

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