बुधवार, 21 अक्तूबर 2009

ओ,मधुर मधुमास.

*
जल रहे हैं ढाक के वन
लाल फूलों के अँगारों से दहकते !
हहरती वनराजि ,
तुम आये वसन्त सिंगार सज कर ,पुष्प-बाणों को चढाये !
मन्द,शीतल और सुरभित पवन बहता
दहकते अंगीर दूने ,
सुलगता है प्रकृति का उर !
पीत सुमनों की लपट क्षिति से उठी है ,लाल लाल प्रसून ये अंगार जलते ,
हरे वृक्षों की सलोनी गोद में रह रह सुलगते !
लाज अरुणिम कोंपलें ,शृंगार सारे दहक से भर ,
झुलस जाते तितलियों के मन ,
भ्रमर कुछ गुनगुनाते छेड जाते !
ये दहकते फूल अपने रूप की ज्वाला सँजोये ,
छू जिसे तन हहरता ,मन भी सिहरता ,
मुस्कराता लाज भीना मुग्ध आनन !
*
ओ मधुर मधुमास !
तुम आये कि जागा शिथिल सा मन ,इस धरा का अरुण यौवन जल रहा है !
जल रहे हैं लाल लाल अँगार तरु पर वल्लियों में और वन मे,
ये हरे तन ,ये हरे मन ये हरे वन जल रहे हैं !
सुलगता सा अलस यौवन !
पंचशर लेकर किया संधान कैसा पुष्प धन्वा ,
सघन शीतल कुञ्ज भी ले लाल नव पल्लव सुलगते ,
प्रकृति के तन और मन मे आग सुलगी
आ गये हो धरा का सोया हुआ यौवन जगाने के लिये !
ढाल दीं उन्माद मदिरा की छलकती प्यालियाँ,
जड और चेतन को बना उन्मत्त,
कर निर्बाध चंचल ,
अल्हड बनीं-सी डोलतीं साँसें पवन मे !
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