रविवार, 14 मई 2017

बेटी-माँ.


 बेटी ,माँ बनती है जब
समझ जाती है.
अब तक,माँ से सिर्फ पाती रही थी -
लाड़-चाव,रोक-टोक नेह के उपचार,
 विकस कर कली से फूल बन सके.
देखती  व्यवहार, जीने के  ढंग ,
माँ थोड़ी मीठी,थोड़ी खट्टी.
 समझदार हो जाती है बेटी ,
माँ बन कर .
बहुरूपिया है माँ ,कितने रूप धरती है,
 पढ़ लेती सबके मन .
माँ, तुम्हारा मन कहाँ रहा था लेकिन ?
जानने लगी हूँ तुम्हें, सचमुच ,
बेटी जब माँ बनती है,
समझ जाती है.
एक आँख से सोती है माँ,
पहरेदार,हमेशा तत्पर.
कुछ नहीं से कितना कुछ बनाती 
सारे रिश्ते ओढ़े चकरी सी नाचती ,
निश्चिन्त कहाँ थी माँ .
जब बेटी माँ बनती है
समझ जाती है -
कैसी होती है माँ .
-
- प्रतिभा.

11 टिप्‍पणियां:

  1. दिनांक 16/05/2017 को...
    आप की रचना का लिंक होगा...
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी इस चर्चा में सादर आमंत्रित हैं...
    आप की प्रतीक्षा रहेगी...

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (16-05-2017) को
    टेलीफोन की जुबानी, शीला, रूपा उर्फ रामूड़ी की कहानी; चर्चामंच 2632
    पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "अपहरण और फिरौती “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  4. माँ को समर्पित....
    बहुत सुन्दर...।

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  5. सुन्दर अभिव्यक्ति ,आभार।

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  6. निश्चित ही बेटी माँ बन जाती है ... हूबहू उसका रूप हो जाती है ... जाने कैसे माँ चुपके से लौट लौट आती है ... शायद बच्चों से दूर नहीं रह पाती है ... सुंदर रचना ...

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  7. माँ और बेटी के संबंधों को परिभाषित करती सुंदर रचना..वाकई माँ बनकर ही माँ को समझा जा सकता है..

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  8. सूक्ष्मता से संबंध को बाँधा है ।

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  9. सच में ... बहुत सी बाते स्वयं माँ बन कर ही जानी .

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