शनिवार, 3 नवंबर 2012

सोने का हिरन


 एक मनोदशा -

काहे राम जी से माँग लिया सोने का हिरन,
सोनेवाली लंका में अब रह ले सिया !
*
अनहोनी ना विचारी जो था आँखों का भरम ,
छोड़ आया महलों को ,काहे ललचा रे मन !
कंद-मूल ,फल-फूल तुझे काहे न रुचे ,
धन वैभव की चाह कहाँ रखी थी छिपा .
सोने रत्नों की कौंध ,आँख भर ले , सिया !
*
वनवास लिया तो भी मन उदासी ना भया ,
कुछ माँगे बिना जीने का अभ्यासी ना भया,
मृगछाला सोने की तो मृगतिषणा रही,
तू भी जान दुखी हरिनी के मन की विथा .
ढल जाय तू ही मूरत न सोने की, सिया!
*
घर-द्वार का सपन काहे पाला मेरे मन,
जब लिखी थी कपाल में जनम की भटकन !
छोटे देवर को कठोर वचन बोले थे वहाँ ,
अब लोगों में पराये दिन रात पहरा ,
चुपचाप यहाँ सहेगी, पछतायेगा हिया !
*
काहे राम जी से माँग लिया सोने का हिरन,
सोनेवाली लंका में जा के रह ले सिया !
*

इस पुरानी कविता की आज याद आ गई .सबसे बाँटने का मन हुआ ,अतः अपने एक  पुराने ब्लाग 'लोक-रंग' से  यहाँ स्थानान्तरित कर रही हूँ - - प्रतिभा.

27 टिप्‍पणियां:

  1. बिलकुल ही अनोखा दृष्टिकोण पढ़ने को मिला ....रोचक !!!

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  2. होइहै वही जो राम रची राखा ...

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  3. काहे राम जी से माँग लिया सोने का हिरन,
    सोनेवाली लंका में जा के रह ले सिया !.... इस चाह ने सबकुछ खत्म कर दिया

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  4. जाने क्या सोचते हैं हम और क्या हो जाता है....

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  5. बहुत ही सुंदर रचना... समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है http://mhare-anubhav.blogspot.co.uk/

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  6. माता जी प्रणाम सिया वर रामचंद्र की जय

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  7. वाह!
    आपकी इस ख़ूबसूरत प्रविष्टि को कल दिनांक 05-11-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-1054 पर लिंक किया जा रहा है। सादर सूचनार्थ

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  8. इक छोटी सी चाह जो, रेगिस्तानी भ्रम |
    भरे जिंदगी आह से, करवाए दुह-श्रम ||

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  9. बहुत ही बढिया ... लिखा है आपने

    सादर

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  10. ठगती सबको लालसा, मानव हों या देव।
    लालच बुरी बलाय है, इससे बचो सदैव।।

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  11. सुन्दर रचना ....लालच न जाने क्या क्या करवा देता है ..सबकुछ जानते समझते हुवे भी कुछ और पाने कि लालसा ही सीता हरण का कारण बनता है ..लालच का परिणाम अंत में दुःख ही होता है ...

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  12. वनवास लिया तो भी मन उदासी ना भया ,
    कुछ माँगे बिना जीने का अभ्यासी ना हुआ,
    मृगछाला सोने की तो मृगतिषणा रही,
    तू भी जान दुखी हरिनी के मन की विथा !
    कहीं सोने की तू ही न बन जाये री सिया !

    बहुत सशक्त विश्लेषण प्रधान रचना है .बधाई .

    (मृग तृष्णा ,हिरणी ,व्यथा )

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  13. काहे राम जी से माँग लिया सोने का हिरन,
    सोनेवाली लंका में जा के रह ले सिया !...


    सब कुछ जो घटित हुआ बस यही सब घटना थी। बहुत ही खूबसूरती के साथ लिखा हैं .... बहुत सुन्दर पंक्तियाँ साँझा करने के लिए बहुत बहुत आभार

    आपके ब्लॉग पर आकर काफी अच्छा लगा।मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत हैं।अगर आपको अच्छा लगे तो मेरे ब्लॉग से भी जुड़ें।धन्यवाद !!

    http://rohitasghorela.blogspot.in/2012/11/blog-post_6.html

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  14. वनवास लिया तो भी मन उदासी ना भया ,
    कुछ माँगे बिना जीने का अभ्यासी ना भया,
    मृगछाला सोने की तो मृगतिषणा रही,
    तू भी जान दुखी हरिनी के मन की विथा !
    कहीं सोने की तू ही न बन जाये री सिया !
    baarahaa बारहा पढने को बाध्य करती पंक्तियाँ हैं यह इस कविता की .आपकी टिप्पणियाँ हमारी शान हैं ,अभिमान हैं .शुक्रिया .

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  15. मन से निकली रचना मन तक पहुँची. अनुपम कृति हेतु बधाई.

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  16. आपकी टिप्पणियाँ हमारी शान हैं ,अभिमान हैं .शुक्रिया .

    बहुत सशक्त विश्लेषण प्रधान रचना है .बधाई .

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