सोमवार, 3 सितंबर 2012

नये संस्करण


(शिक्षक-दिवस पर ) -

*
आज सामने हो मेरे ,
कल नहीं होगे !
तुम्हारे साथ होने का यह काल
जीवन का बहुत सार्थक,
बहुत सुन्दर ,काल रहा !
पढ़ाते हुये और पढ़ते हुये तुम्हें,
निरखती रही अपने ही नये संस्करण,
मेरे परम प्रिय छात्र !
*
कोशिश करती रही
तुम्हें जानने की -समझने की.
अगर बूझ सकी तुम्हें
तो मेरे प्रयास सार्थक .
अन्यथा -
ये उपाधियाँ व्यर्थ ,
प्रयास खोखले,
अध्ययन-अध्यापन मात्र दंभ.
सब निष्फल !
उपलब्धि शून्य !
*
पर मैं देख रही हूँ
कुछ बेकार नहीं गया -
लगातार एक नई समझ
पाते रहे हम-तुम.
मेरे अंतस की ऊर्जा में पके,
अक्षरों के नेह सिझे बीज
सही माटी में पड़े.
इस आत्म का एक अंश तुममें प्रस्थापित,
और मैं निश्चिन्त!
*
तुम्हारे नयनों में पाई
उजास-किरणों की पुलक.
यही था काम्य मेरा !
तुमसे पाया अथाह स्नेह-सम्मान,
अजस्र भाव-प्रवाह .
मेरी उपलब्धि!
सँजोये लिये जा रही हूँ,
गाँठ में बाँध-
मेरा पाथेय यही !
*
संभावनाओं भरे जीवन की
आगत पौध विकसते देख रहे हैं ,
मेरे तरलित नयन !
आज यह अध्याय भी समाप्त -
मेरे तुम्हारे बीच के पाठ
पूरे हुये !
*
मैं जहां तक थी,
तुम्हें ले आई.
अब बिदा !
इस कामना के साथ -
कि आगे का उचित मार्ग
द्विधा रहित होकर ,
तुम स्वयं चुन सको,
और मंगलमय भविष्य
तुम्हारे स्वागत को प्रस्तुत हो !
*
(पूर्व-रचित)

17 टिप्‍पणियां:

  1. प्रतिभाओं के नित नये अध्याय इस विश्व का मान बढ़ायेंगे।

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  2. यह आशीर्वाद फलित हों ...
    प्रणाम !

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  3. अच्छा लगा पढ़कर। सुख की अनुभूति हुई।

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  4. शिक्षक दिवस पर बहुत सुंदर आशीष वचन..

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  5. बहुत सुन्दर...
    मगर शायद मेरे तुम्हारे बीच के पाठ कभी पूरे नहीं होंगे....

    सादर
    अनु

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  6. मैं जहां तक थी,
    तुम्हें ले आई.
    अब बिदा !
    इस कामना के साथ -
    कि आगे का उचित मार्ग
    द्विधा रहित होकर ...

    गुरु अध्यापक टीचर अपना काम करते जाते हैं ... ज्ञान की गंगा बहाते रहते हैं ... इस लाएक बनाते हैं की आगे का सफर सुचारू रहे ... नमन है सभी अध्यापकों को ...

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  7. संभावनाओं भरे जीवन की
    आगत पौध विकसते देख रहे हैं ,
    मेरे तरलित नयन !
    आज यह अध्याय भी समाप्त -
    मेरे तुम्हारे बीच के पाठ
    पूरे हुये !.... आपकी कलम मुझे चाहिए :)

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  8. पर मैं देख रही हूँ
    कुछ बेकार नहीं गया -
    लगातार एक नई समझ
    पाते रहे हम-तुम.
    मेरे अंतस की ऊर्जा में पके,
    अक्षरों के नेह सिझे बीज
    सही माटी में पड़े.
    इस आत्म का एक अंश तुममें प्रस्थापित,
    और मैं निश्चिन्त!

    माता जी को प्रणाम सहित काश ऐसा हो पाता कि मै आपका शिष्य होता.

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  9. बहुत सुन्दर...शिक्षक दिवस पर बहुत सुंदर पोस्ट..आभार

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  10. शकुन्तला बहादुर10 सितंबर 2012 को 8:40 pm बजे

    "मैं जहाँ तक थी,तुम्हें ले आई.....द्विधारहित होकर।" और "मेरे अंतस की ऊर्जा में पके,अक्षरों के नेह सिझे बीज,सहीमाटी में पड़े।"
    रचना का एक एक शब्द अपनी शिष्याओं के लिए शुभाशीष,स्नेह, मंगलकामना और उद्बोधन से आपूरित है। साथ ही एक कर्तव्यपरायण आदर्श शिक्षिका के आत्मसंतोष और विश्वास का परिचायक भी है।
    मन पर छा जाने वाली अद्भुत अभिव्यक्ति!साधुवाद!

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  11. स्नेह से पगे भरे ये शब्द, अंतस तक उतर आते हैं।
    श्रद्धावश शीश झुक आता है हर शिक्षक-शिक्षिकाओं हेतु।

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  12. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  13. बारहवीं कक्षा तक के जो गुरुजन पाए..वे ऐसे थे कि परम सौभाग्य समझती हूँ अपना जो उनके सान्निध्य में अध्ययन किया.उन्होंने प्रोत्साहन दिया..कुछ नहीं बनता था तो धैर्य से सिखाया...मुझमे अपना विश्वास सदा बनाए रखा.और इस विश्वास की आयु कितनी लम्बी थी उसका अंदाजा पिछले वर्ष अपनी इतिहास की शिक्षिका से (१४ वर्ष बाद) बात करने के बाद हुआ. इस वर्ष के सितम्बर में अपने उन्ही शिक्षकों के हृदय से लग कर बहुत बार बहुत अधिक रोया मेरा मन.इतना व्यवसायीकरण हो चुका का है हर क्षेत्र का कि मन कहीं सुकून नहीं पा पाता.अभी भी इतना लिखते हुए नेत्र भीग गए.इसीलिए इतने विलम्ब से आई इस पोस्ट पर कि थोड़ा व्यवहारिक होकर कुछ लिख सकूँगी...किन्तु कविता ही ऐसी है..संयत हो ही नहीं पायी.बिलकुल पहली बार पढ़ी थी तब ख़ुशी से मन भर भर आया था..कितनी देर इस रचना ने अपनी अनुभूतियों में जकड़ के रखा था...कह नहीं सकती.और आज इसे पढ़कर मन बहुत बहुत हुलस रहा है पुन: अपने उन्ही गुरुजनों के पास जाने को और उनसे मार्गदर्शन पाने को.

    **
    (तकरीबन डेढ़ वर्ष पहले ये कविता पढ़ चुकी हूँ..और विस्तार से आपको लिख भी चुकी हूँ अपने मनोभाव.उस समय मेल किया था..पुन: अपनी टिप्पणी (:( लम्बी टिप्पणी) सलग्न कर रही हूँ.कविता के साथ रहेगी तो उचित रहेगा.)
    **

    bahut bahut bahut khoobsoorat kavita rachihai Pratibha ji............baar baar is kavita ko padha hai maine......har baar apni history ki ma'am ka chehra ankhon ke aage aa jata hai..........
    मैं जहां तक थी,
    तुम्हें ले आई.
    अब बिदा !
    इस कामना के साथ -
    कि आगे का उचित मार्ग
    द्विधा रहित होकर ,
    तुम स्वयं चुन सको,
    और मंगलमय भविष्य
    तुम्हारे स्वागत को प्रस्तुत हो !

    ये शब्द हर बार आँखों में आंसू ले आये..apni 12 vi kaskha ka vidaayi samaroh yaad aa gaya.saare gurujanon ke chehre gadd-madd ho gaye....main bata nahin sakti aapki ye waali kavita mujhe kin yaadon mein le jaati hai.....thode samay ke liye sahi main poorn roop se man se aur aatma se....apne un guruon ke saannidhya mein pahunch jaati hoon...jinhone mujhe is level tak pahunchaya hai....bahut udwelit sa mehsoos ho raha hai......थोड़ी मैं भी ज़्यादा ही भावुक हूँ....जो पढ़ती हूँ....अपनी ज़ाती ज़िन्दगी से जोड़ लेती हूँ..शायद इसलिए भटक जाया करती हूँ...:(

    ''तुमसे पाया अथाह स्नेह-सम्मान,
    अजस्र भाव-प्रवाह .
    मेरी उपलब्धि!
    सँजोये लिये जा रही हूँ,
    गाँठ में बाँध-
    मेरा पाथेय यही !''

    ''इस आत्म का एक अंश तुममें प्रस्थापित,
    और मैं निश्चिन्त!''

    मुलायम शब्द....सादगी भरा ताना बाना....ह्रदय को झुलाते हुए से भाव...समर्पण..पूर्णता...आशीर्वाद.......कितना भी सोच सोच के लिखूं..इस कविता और इसकी आत्मा ...इसके आधार और इस गुरु शिष्य के नाते के लिए मेरे पास शब्द कम पड़ने ही पड़ने हैं.....

    कित्ता अभिभूत कर देते हैं आपके शब्द प्रतिभा जी.......ह्रदय छलक छलक पड़ता है...
    कितने भाग्यशाली होंगे वे..जिनके लिए या जिनकी वजह से ये कविता आपने लिखी है......धन्य हैं आप और धन्य हैं वे जो आपके इस अतिरिक्त स्नेह और आशीर्वाद के पात्र बने.......सच कहूं तो इस भावपूर्ण मनोदशा में भी इर्ष्या हो रही है....:)

    खैर..बहुत बहुत आभार......इस कविता के लिए........आपके अनसुनी आज्ञा से आपके नाम के साथ सहेज के रख ली ये कविता अपनी पूज्य गुरु की स्मृति में....

    (क्षमा कीजियेगा.....ये कविता कई बार पढ़ी...वहां कुछ कहने के लिए कोई option नहीं था..:( आज फिर से ये कविता आँखों के आगे आई........सो आज दिल नहीं माना...मेल कर दिया..:( )

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  14. ह्रदय सदैव नतमस्तक रहता है..

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