मंगलवार, 18 अक्तूबर 2011

धवलिमा


*
भाल पर चंदन टिकुलिया सा चँदरमा,
टाँक कर बैठी शरद की यह धवलिमा.
साँझ भी उजला गई अब तो !
*
स्वच्छ दर्पण सा किया बरसात ने धो, दिन उपरना धूप का काँधे सजाये
गुलमोहर का तिलक माथे  ,झर पड़े अक्षत ,जुही ने पाँखुरी दे जो लगाये,
अमलतासों ने सुनहरे छमक-छल्लेदार झूमर
डाल-डाल सजा लिये अब तो !
*
गगरियाँ ले  बदलियाँ वापस हुईं ,निश्चिंत पच्छिम की हवायें  ,
पोंछ  झरते बूँद जल के, पहन उजले वस्त्र  बैठी हैं दिशायें
गगन के  पट में बँधे बादल धुयें से उड़ गये ,
रुपहली मुस्कान ऋतु की  छा गई अब तो
*
खुल गये सब रास्ते ,परदेस में  भटकी  पिया की याद आये  
उड़ रहे, हिम-श्वेत बादल हंस जैसे चोंच में  पाती दबाये
नयी सी  बातास नव आकाश के रँग,
आस के वर्षा-वनों में नव बहारें आ गईँ अब तो‍
*
दहकते हैं फूल-फूल पलाश तिन पतिया डँगालें खाखरे्# की, l
लहरती है कोर मेंहदी रचे पग पर वन-विहारिन नव-वधू के घाघरे की,
रजत- घुँघरू खनकते रह-रह कि बिछुये बोल-बतलाते हृदय का राग ,
 उठते ही नज़र शरमा गई अब तो !
 *
क्षितिज पर  रंगीन वस्त्र अबाध ,फूले काँस अब ध्वज सा फहरते ,
नाचती है बाजरे की कलगियाँ ,लो खुले जाते  सब्ज़ चुन्नी के लपेटे .
निशि दमकता मुँह उघाड़े, केश ढीले
तारकों से जड़ा नीलांबर झमकती  आ गई अब तो !
*
# ढाक



20 टिप्‍पणियां:

  1. वंदना जी कि बात से सहमत बहुत सुंदर चित्रण ....
    समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
    http://mhare-anubhav.blogspot.com/2011/10/blog-post_18.html

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  2. क्षितिज पर रंगीन वस्त्र अबाध ,फूले काँस अब ध्वज सा फहरते ,
    नाचती है बाजरे की कलगियाँ ,लो खुले जाते सब्ज़ चुन्नी के लपेटे .
    निशि दमकता मुँह उघाड़े, केश ढीले
    तारकों से जड़ा नीलांबर झमकती आ गई अब तो !
    ...bahut sundar manoram chitran...aabhar

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  3. गज़ब की रचना ...
    आपकी शब्द सामर्थ्य का अहसास कर मुग्ध रह जाता हूँ !
    शुभकामनायें आपको !

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  4. सौन्दर्य ही अटा पड़ा है सम्पूर्ण कविता में।
    "दहकते हैं फूल-फूल ..... गई अब तो !" कितना मधुर, कितना मनोहारी!

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  5. बहुत मनोहारी चित्रण .. आपकी हर रचना बस पढ़ती ही रह जाती हूँ

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  6. bahut sunder mahohari chitran kiya aapne.

    bahut bahut badhayi aur shubh deepawali.

    mere blog par aapka intzar rahega.

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  7. आप तो जानती ही हैं कि आपकी कविता पढ़ती तो बहुत बार हूँ पर तब तक कुछ लिखती नहीं उनपे जब तक तन-मन दोनों सौ प्रतिशत उनमें ओतप्रोत न हो जाएं. और इसके अलावा जब तक एक बार गा नहीं लेती उनको ...पर आज तबीयत से हार मान केवल बोल के ही टिप्पणी लिख रही हूँ ... बहुत बहुत सुन्दर कविता! ऐसी, कि जैसे मन चांदनी का हो गया मेरा इस प्राकर्तिक सौन्दर्य से! कितना सुन्दर वर्णन!! कितना मनभावन दृश्य! क्या दृष्टि पाई है आपने, क्या ही शब्द सामर्थ्य! बस नमन नमन नमन!
    कुछ बिम्ब तो बस वाह वाह वाह, परमानंद!
    चंदन टिकुलिया सा चँदरमा, दिन उपरना धूप का काँधे सजाये, गुलमोहर का तिलक , जुही की पाँखुरी के अक्षत, अमलतासों के झूमर (याद है आपको, एक बार सुनहरी लटों से दिखे थे ये मुझे भी:)
    निश्चिंत पच्छिम की हवायें ( हवाएं और निश्चिन्त :)--- नाटक करती है ये प्रतिभाजी, नटखट हैं !! )
    पोंछ झरते बूँद जल के, (हाय ! आपकी सधस्नाता वाली कविता याद आ गई! )
    कैसे मन में समेटूं इन बिम्बों को : पहन उजले वस्त्र बैठी दिशायें, गगन के पट में बँधे बादल, ऋतु की रुपहली मुस्कान , हिम-श्वेत बादल- हंस जैसे चोंच में पाती दबाये, नयी सी बातास नव आकाश के रँग, आस के वर्षा-वन, तिन पतिया डँगालें, बाजरे की कलगियाँ-- जानती है आप, कितने ही मैथिली जैसे शब्दों को लिखती हैं न तो मेरी तो बस जान ही निकल जाती है खुशी से... आप को कितनी दुआएं दूँ!
    दिसंबर में मिलूंगी, तब सुनूंगी और ख़ुद गा के भी सुनाउंगी...जल्दी जल्दी नए गीत लिखिए अब...आसान सी राग वाले :)...सपरिवार प्रणाम करती हूँ इन शुभ पर्वों पे, आशीष दें! ...सादर शार
    उफ्फ! मेरे कमेन्ट कितने लम्बे हो जाते हैं, खत में ही लिख दिया करूँ टिप्पणी?

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  9. 'उफ्फ! मेरे कमेन्ट कितने लम्बे हो जाते हैं, खत में ही लिख दिया करूँ ?'
    नहीं,ख़त में क्यों शार?जहाँ की बात वहीं पर हो .मन से लिखी गई बात लंबी हो ही जाती है .और मुझे भी तो संतृप्ति मिलती है पढ़ कर .
    दीपावली पर हमारी हार्दिक शुभ कामनायें-सारे परिवार के लिये !

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  10. गगन के पट में बँधे बादल धुयें से उड़ गये ,
    रुपहली मुस्कान ऋतु की छा गई अब तो

    प्रकृति की छटा बिखेरती यह रचना मन को हर्षित कर गई।

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  11. अति सुन्दर! आपको दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें!

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  12. वाह! बहुत ही सुन्दर ओर मनभावन प्रस्तुति है आपकी.

    सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.

    दीपावली के पावन पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ.

    मेरे ब्लॉग पर आईयेगा,प्रतिभा जी.

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  13. क्षितिज पर रंगीन वस्त्र अबाध ,फूले काँस अब ध्वज सा फहरते ,
    नाचती है बाजरे की कलगियाँ ,लो खुले जाते सब्ज़ चुन्नी के लपेटे .
    निशि दमकता मुँह उघाड़े, केश ढीले
    तारकों से जड़ा नीलांबर झमकती आ गई अब तो !

    वाह ....
    अद्भुत ......
    रूह तृप्त हुई .....

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  14. बहुत सुन्दर रचना|
    आपको तथा आपके परिवार को दिवाली की शुभ कामनाएं!!!!

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