शनिवार, 17 अप्रैल 2010

क्या कर लोगी

*
स्वेच्छाचारिणी ,
एक गाली है तुम्हारे लिए .
जैसा चलाया जाय चलो
और सन्नारी कहाओ!
*
स्वयंवर ?
कैसी बात करती हो !
ज़बर्दस्ती उठा लाएँगे तुम्हें ,
हो गया स्वयंवर!
*
हमारी लूट का माल ,
हमने जीता !
देंगे जिसे चाहे !
नकारा पति ,संतान पैदा न कर सका तो क्या ,
जिससे चाहें ,नियोग करवा देंगे
तुम्हारी स्वीकृति का सवाल कहाँ !
और तुम्हारी रुचि?
बेकार बात !
*
स्वीकार करना पड़ेगा जिससे हम कहें ,
चाहे वितृष्णा से आँखें बंद कर लो ,
चाहे भय से पीली पड़ी रहो ,
धृतराष्ट्र और पाँडु पैदा हो जायँ ,
हो जाने दो !
पैदा हम करवा रहे हैं .
*
हम जो चाहे करेंगे ,
बुढ़ापे को भड़काती इच्छाएँ पूरी करेंगे ,
जवान पुत्र दाँव लगा कर .
कोई क्या कर लेगा हमारा ?
*

3 टिप्‍पणियां:

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  2. पहले भी ये कविता padhi थी...तब बहुत क्रोध आया था पढ़ कर....आज पढ़ रही हूँ तो पूर्ण शान्ति है मन में......वजह है आपकी ''उत्तर-कथा''....

    दृष्टिकोण किसी पूर्वाग्रह से पीड़ित नहीं होना चाहिए......इतिहास और धर्म को कम से कम क्षति पहुंचाए bina मैं सकारात्मक दिशा में किसी चरित्र या पात्र को अपने दृष्टिकोण के अनुसार गढ़ सकती हूँ.....

    माता सीता को निरीह समझती रही थी.....एक किताब ने मुझे सोचने की नयी दिशा di...उसके फलस्वरूप ये ''स्वेच्छाचारिणी'' भी आज मुझे उत्तेजित नहीं कर पायी........

    उस दिन इस कविता को मैंने एक nirbal stri के मन से padha था शायद.......मगर आज एक sabal naari की drishti से dekha.......siwaay purushon के vyarth के dambh के ..कुछ और dikhayi नहीं दिया......wahi mukhar है यहाँ...

    naari तो naari है.....sehti रही तो sehti ही rahegi...jis दिन samay आया तो माँ kaali का roop भी dhar legi........मगर ...''कोई क्या कर लेगा हमारा ? '' इस prashn के उत्तर में maun ही rehti है rehna chahiye....sahi samay पर उसके karm ही bolte hain.......dambh नहीं

    आभार है aisi कविता के लिए और naman hai pun: uttar katha ko bhi

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