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विषम क्षणों में
 उचाट हो टेर उठता
अंतस्थ आत्म जब
सर्व व्याप्त परमात्म को,
एक स्निग्घ बोध जाग जाता  अनायास -
कि कहीं कुछ और नहीं ,
बस एक सत्ता 
अपने आप में 
लघु नहीं, संपूर्ण मैं .
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आत्म में निवसित बाह्य-निरपेक्ष.
सारे बोध, भावना ,विचारणा ,संकल्पना ,
व्यवधानरहित ,
सम्पूर्ण मानसिक सत्ता एकात्म!
अवरोध हीन 
वर्जना रहित.
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सतत चैतन्य
स्थिर ,अचल ,उदग्र
अनुपम ऋत की पारणा ज्यों, 
मेरा निजत्व . 
जैसे रची हुई सारी सृष्टि
मेरे भीतर -बाहर,
आत्म-निहित और सर्वत्र .
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एक ही तार की झंकार 
कभी वेदना -उल्लास कभी विराग-राग .
उस व्याप्ति मैं ,
कहीं नहीं कोई और 
किसी का मानना-जानना 
कोई अर्थ नहीं रखता जहाँ
विराट् चैतन्य से समाहित ,
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अत्यल्प अवधि को भले ,
समाधि स्वरूपा ,
मुझ में लयलीन 
अपरूप दिव्य,
ओ,मेरी व्याप्ति 
प्रणाम तुम्हें !
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