बुधवार, 21 अक्तूबर 2009

शब्द मंत्र बन जायँ

जयति, ज्योतिमयि ,माँ अंबे , जय, जग की पालनकारिणि ,
जय विराट् छवि ,विश्वरूप ,जय अखिल सृष्टि उर धारिणि !
जयति प्रभामयि ,स्वयं सिद्धि तुम, अपरा परा अपारा ,
ऋद्धि-सिद्धि-नव- निद्धि प्रदायी जय-जयकार तुम्हारा !
*
यह ब्रह्माण्ड तुम्हीं से शोभित अपना जीवन धारे ,
व्याप रहीं अक्षर-अक्षर मे तुम्हीं रूप विस्तारे !
वर्ण-वर्ण में गान तुम्हारा ,कर्म-कर्म में पूजन ,
पग-पग में तव प्रदक्षिणा ,औ' नैन- नैन में दरशन !
*
तुम चिर वास करों इस मन में जीवन में प्राणों में
मुखरित हो आराधन मेरे हर स्वर की तानों में !
मेरा जीवन वास तुम्हारा ,श्वास-श्वास हो दासी ,
अर्पित मेरे सभी कर्म इन चरणों में सुखराशी !
*
सुप्ति तुम्हारा ध्यान बने जागरण तुम्हारी अर्चा ,
जल-थल में तुम अँबर में तुम यही तुम्हारी चर्चा !
वर्ण-वर्ण मेरा हो माँ तेरे सिंगार की माला ,
करुणामयि ,शब्दों में भर दो मंगलमय उजियाला !
*
गर्जन करता सिन्धु निरंतर वाहन सिंह तुम्हारा ,
धरारूपिणी ,वक्षस्थल पर मुक्तहार जल-धारा !
अरुण कमल हैं चरण सुशोभित ,स्वाति बूँद लख ज्योती ,
एक दृष्चि में प्रलय दूसरी बीज सृष्टि का बोती !
*
अखिल लोक में व्याप्त तुम्हीं ,तन पर नीलांबर धारे ,
सूर्य,चन्द्र और अग्नि, नेत्र त्रय ,तन- द्युति झिलमिल तारे !
बुद्धिरूप तुम ,शक्ति रूप तुम ,असुर विनाशिनि माया ,
लक्ष्मी रूपे अगजग में तेरा ऐश्वर्य समाया !
*
नाम ,अर्थ औ' भाव अलक्षित अगणित रूप तुम्हारे ,
सरस्वती तुम हंस-वाहिनी वीणा पुस्तक धारे !
प्रकृति तुम्हीं ,तुम कालरूपिणी ,कला, चिरंतन विद्या ,
तुम्हीं सुकृति ,तुम विकृति, पराकृति, परमा, परम प्रसिद्धा !
*
भृकुटि-विलास सभी जो दिखता और न जो दिख पाता ,
अखिल लोक पालन -संभव -लय-कारिणि हे जग-त्राता !
शब्द-रूप-रस गन्ध परस तुम ,तुम्हीं रहित सब ही से ,
कैसे हो संधान तुम्हारा सर्व स्वरूप अरूपे !
*
उतरो माँ ,संतप्त हृदय में बरसाओ करुणा-कण ,
दो सामर्थ्य, विवेक और प्रतिपल सत् का अवलंबन !
जग- जीवन की विषम यात्रा जब कुण्ठित कर जाये ,
विघ्न और बाधायें ठुकरायें संताप बढायें !
*
तेरा नाम कवच बन कर इस जीवन पर छा जाये ,
अनुकम्पा कर, माँ द्विविधा में पड मन हार न जाये !
जो प्रमादवश दोष किये हों जननी क्षमा करो तुम ,
नमित शीष चरणों में ,मस्तक पर शुभ हाथ धरो तुम !
*
बाधा-विघ्न विनाशिनि ,मंगल आशिष अब बरसा दो ,
व्याकुल और तरसते मन को सरसा दो, हरषा दो !
सुख संपति औ'शान्ति सुविद्या से भंडार भरो माँ ,
जो अपूर्ण रह गया कृपा कर उसको पूर्ण करो माँ !
*
स्वर्ग बने जन का घर आँगन ,बस जाओ लक्ष्मी बन ,
सरस्वती बन बुद्धि -दीप्त कर दो, जीवन का क्षण-क्षण !
सुख -सौभाग्य,निरामय तृप्ति , प्रसाद यही हों तेरे ,
तेरा ही सौंदर्य चतुर्दिक धरा - गगन को घेरे !
*
तेरी करुणा के कण पाने कब से टेर रही माँ ,
ध्यान तुम्हारा पाने को मैं कब से हेर रही माँ !
माँ आंचल पसार जो माँगा भर दो मेरी झोली ,
एक बार फिर से आकर कह जाओ हाँ की बोली !
*
कभी स्वप्न मे आईं थीं तुम संग-साथ मिल खेलीं ,
वही स्नेह अधिकार मुझे दो मेरी संग-सहेली !
पर धरती पर धरे असीम गगन में वास तुम्हारा ,
इस अपरूप रूप से परसित रहे दृष्टि की धारा !
*
पूर्ण- काम हो जाये मन तेरे चरणों में आया ,
बनी रहे अविरल ,मस्तक पर तेरा अंचल छाया !
उठीं सिन्धु में लोल लहरियाँ चरण परस लेने को ,
धरती हरियाली चूनर जीवन का रस लेने को !
*
सुरभि वसन्त-बयार, तुम्हारी ये मलयज सी साँसें ,
चन्दन अक्षत चाँद- सितारे चढे गगन से आ के !
फूल-फूल खिल गये कि तुमने दृष्टि धरा पर डाली ,
ढाँक दिया अग-जग को पहना शाम-सुबह की जाली !
*
करुणा हाथ बढाकर छूलो शाप-ताप खो जायें ,
ये अनुराग-विराग तुम्हें पा तुममें लय हो जायें !
खारा नयनों का जल मेरा और न कुछ आराधन ,
महाकाल- प्रभु सहित तुम्हारे श्री- चरणों में पावन !
-
जय बोलो रे ,बार बार ,जिसने यह तन दे पाला ,
जिसने बुद्धि और विद्या दे मन में किया उजाला ,
श्वासों को आकाश दिया और जीवन को दी वाणी ,
वह आरती तुम्हारी बन कर रहे सदा कल्याणी !
*
कितना कुछ भी कह कर लगता ,कुछ न अभी कह पाया
हरदम शेष रह गया उतना ,जितना भी गुण गाया !
जग मंगलमय करो जननि ,,जीवन को सुन्दर कर दो ,
सफल करो कामना हृदय की स्नेहमयी माँ ,वर दो !
*
तुम अक्षय भंडार भरे हो ,फिर अभाव क्या जन को
टेर रही संतान जननि ,तुम कैसे विमुख रहोगी ,
वाणी में वर्चस्व ,प्राण में ओज कान्ति गरिमा दो ,
अंतर तम की इस पुकार पर तुम न अबेर करोगी !
*
बनें विकृतियाँ सुकृति ,कुरूप तुम्हें छू सुन्दरतर हों ,
शब्द मंत्र बन जायँ ,तुम्हारी श्री का एकाक्षर हो !
वचनों से है परे रूप गुण औ' ऐश्वर्य तुम्हारा ,
जय जय जय जगदम्बे मंगल ,पावन स्मरण तुम्हारा !

1 टिप्पणी:

  1. प्रतिभा जी...
    बता नहीं सकती कितनी ज़्यादा शांति देने वाली रचना है....मन क्या आत्मा के कण कण में ये शब्द मन्त्र गूँज रहे हैं......

    ''श्वास-श्वास हो दासी '' ...सुनने में बहुत ही अच्छा लगा...

    ''उतरो माँ ,संतप्त हृदय में बरसाओ करुणा-कण ,
    दो सामर्थ्य, विवेक और प्रतिपल सत् का अवलंबन''....

    बस ये दो पंक्तियाँ चुन लीं अपने लिए.....बार बार दोहराती रहूंगी...

    ''कभी स्वप्न मे आईं थीं तुम संग-साथ मिल खेलीं ,
    वही स्नेह अधिकार मुझे दो मेरी संग-सहेली ! ''

    ..माँ (देवी माँ) के लिए सहेली शब्द लुभा गया मन को बहुत ज़्यादा...शायद यहाँ आपके उस स्वप्न का जिक्र है..लालित्यम पर पढ़ा था...

    खैर..

    ''कितना कुछ भी कह कर लगता ,कुछ न अभी कह पाया
    हरदम शेष रह गया उतना ,जितना भी गुण गाया !''
    ekdum satya hai..:)

    बहुत बहुत सुंदर है रचना...saral भी....एक एक भाव दिल को छू गया प्रतिभा जी......वरना वो भारी भारी वजनदार भजन तो मुझे भगवानजी लोगों से जोड़ ही नहीं पाते...

    आभार इस रचना के लिए......''गंगा तीरे'' जैसी रचना लगी....कई बार पढूंगी.....मन kee शांति के लिए !!

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