क्या लाई हूँ !
क्या लाई हूँ अतीत से अपने साथ बाँध,
थोडे से अपनेपन के साथ परायापन,
कुछ मुस्काने कुछ उदासियाँ ,
हर जगह साथ चलता जो एक अकेलापन!
*
बेबसी अजब सी ,जिसे समझ पाना मुश्किल
कुछ ऐसा स्वाद कहें फीका या तीखा सा
आगे चलने के क्रम में जो छूटा जाता ,
उसमें से कितना कुछ है साथ चला आता !
कैसी विरक्ति ,कुछ मोहभंग जैसा विभ्रम,
जो भी ढूँढो वह तो मिलता ही नहीं कभी
सारा हिसाब गडबड हो जाता तितर-बितर,
जोडने जहाँ बैठो लगता घट गया सभी
कुछ यादें मीठी -खट्टी ,औ' नितान्त अपनी
जिनकी मिलती कोई भी तो अभिव्यक्ति नहीं,
ऐसी प्रतीति जो मन को भरमाती रहती,
विश्वास जमाने को है कहीं विभक्ति नहीं !
कुछ भूलापन सा अंतर में उमड़ा आता,
अटका ठिठका जो रुका कंठ में वाष्प बना !
टूटे संबंधों के कुछ चुभन भरे टुकड़े
भर जाते हैं मन में फिर-फिर अवसाद घना
आँचल की खूँट बँधी होंगी मीठी यादें,
कडवी तीखी घेरों को घेर रही होंगी
चुन्नट में सिमटा बिखरा कुछ कड़वापन-सा,
कितनी बेबसियाँ मन के द्वार पड़ी होंगी
उलझी गाँठोंवाली डोरी आ गई साथ
मन में यादों का उडता एक सिरा पकड़े
सुलझाने में डर है कि टूट ना जायँ कहीं ,
काँटों की सोई चुभन कहीं फिर से उमड़े !
अपनी भूलों का बोझ और पछतावा भी,
भारी सा असंतोष फिर-फिर से भर जाता!
यह भान कि आगे बढ़ने में कितना खोया,
बन कर सवाल मुँह बाये खड़ा नजर आता !
पग बढ़ने के पहले ही अंधड़ गुजर गये,
अनगिनती बरसातें आ फेर गईं पानी ,
अंतर के श्यामल-पट पर कुछ उजले अक्षर,
जो पढ़ न सकी मौसम की ऐसी मनमानी !
कितनी शिकायतें अपने साथ लगा लाई,
किस तरह सामना करूँ समझ बेबस होती ,
कुछ कही-सुनी बातें कानों में अटकी हैं,
जो वर्तमान से लौटा वहीं लिये जातीं !
क्यों साथ चली आती है इतनी बडी भीड़ ,
जिसका अपनापन बहुत पराया सा लगता ,
सपने जैसे लगते हैं,दिन जो गुजर गये,
हर तरफ एक अनजानापन पसरा दिखता
झरने लगता अँजुरी की शिथिल अँगुलियों से,
जितना भी करती हूँ समेटने का प्रयास,
यह दुस्सह बोध अकेले पड़ते जाने का,
बेगाने होते जाते अपनों की तलाश !
अन्तर्विरोध आ समा गये जाने कितने ,
पल भर को भी विश्राम नहीं मन ले पाता ,
अपने सुख- दुख जिससे कह लूँ हो सहज भाव
भूले से ही मिल जाय कहीं ऐसा नाता !
क्या लाई हूँ अतीत से अपने साथ बाँध,
थोडे से अपनेपन के साथ परायापन,
कुछ मुस्काने कुछ उदासियाँ ,
हर जगह साथ चलता जो एक अकेलापन!
*
बेबसी अजब सी ,जिसे समझ पाना मुश्किल
कुछ ऐसा स्वाद कहें फीका या तीखा सा
आगे चलने के क्रम में जो छूटा जाता ,
उसमें से कितना कुछ है साथ चला आता !
कैसी विरक्ति ,कुछ मोहभंग जैसा विभ्रम,
जो भी ढूँढो वह तो मिलता ही नहीं कभी
सारा हिसाब गडबड हो जाता तितर-बितर,
जोडने जहाँ बैठो लगता घट गया सभी
कुछ यादें मीठी -खट्टी ,औ' नितान्त अपनी
जिनकी मिलती कोई भी तो अभिव्यक्ति नहीं,
ऐसी प्रतीति जो मन को भरमाती रहती,
विश्वास जमाने को है कहीं विभक्ति नहीं !
कुछ भूलापन सा अंतर में उमड़ा आता,
अटका ठिठका जो रुका कंठ में वाष्प बना !
टूटे संबंधों के कुछ चुभन भरे टुकड़े
भर जाते हैं मन में फिर-फिर अवसाद घना
आँचल की खूँट बँधी होंगी मीठी यादें,
कडवी तीखी घेरों को घेर रही होंगी
चुन्नट में सिमटा बिखरा कुछ कड़वापन-सा,
कितनी बेबसियाँ मन के द्वार पड़ी होंगी
उलझी गाँठोंवाली डोरी आ गई साथ
मन में यादों का उडता एक सिरा पकड़े
सुलझाने में डर है कि टूट ना जायँ कहीं ,
काँटों की सोई चुभन कहीं फिर से उमड़े !
अपनी भूलों का बोझ और पछतावा भी,
भारी सा असंतोष फिर-फिर से भर जाता!
यह भान कि आगे बढ़ने में कितना खोया,
बन कर सवाल मुँह बाये खड़ा नजर आता !
पग बढ़ने के पहले ही अंधड़ गुजर गये,
अनगिनती बरसातें आ फेर गईं पानी ,
अंतर के श्यामल-पट पर कुछ उजले अक्षर,
जो पढ़ न सकी मौसम की ऐसी मनमानी !
कितनी शिकायतें अपने साथ लगा लाई,
किस तरह सामना करूँ समझ बेबस होती ,
कुछ कही-सुनी बातें कानों में अटकी हैं,
जो वर्तमान से लौटा वहीं लिये जातीं !
क्यों साथ चली आती है इतनी बडी भीड़ ,
जिसका अपनापन बहुत पराया सा लगता ,
सपने जैसे लगते हैं,दिन जो गुजर गये,
हर तरफ एक अनजानापन पसरा दिखता
झरने लगता अँजुरी की शिथिल अँगुलियों से,
जितना भी करती हूँ समेटने का प्रयास,
यह दुस्सह बोध अकेले पड़ते जाने का,
बेगाने होते जाते अपनों की तलाश !
अन्तर्विरोध आ समा गये जाने कितने ,
पल भर को भी विश्राम नहीं मन ले पाता ,
अपने सुख- दुख जिससे कह लूँ हो सहज भाव
भूले से ही मिल जाय कहीं ऐसा नाता !
प्रतिभा जी आप ब्लाग की दुनिया से जुडीं इसके लिए धन्यवाद। आपने बहुत अच्छा लिखा, ऐसे ही आगे भी लिखते रहें।
जवाब देंहटाएंसुनील पाण्डेय
इलाहाबाद।
09953090154
प्रतिभा जी आप ब्लाग की दुनिया से जुडीं इसके लिए धन्यवाद। आपने बहुत अच्छा लिखा, ऐसे ही आगे भी लिखते रहें।
जवाब देंहटाएंसुनील पाण्डेय
इलाहाबाद।
09953090154
बढ़िया प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई.
जवाब देंहटाएंढेर सारी शुभकामनायें.
SANJAY KUMAR
HARYANA
09254102333
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
बहुत बढियां कविता...बहुत सूक्ष्मता से लिखी हुई..बहुत बारीक काम lafzon ka....एहसासों का.....बहुत पसंद आई ये कविता प्रतिभा जी...
जवाब देंहटाएंप्रवाह तो हमेशा की तरह अबाध है...मन बहता गया दूर तक....अंत की पंक्ति या पूरा छंद ही...बहते मन को थामने में सफल हुआ....
चुन्नट में सिमटा कड़वापन..अहा! मन को भा गयी थी एक यही अकेली पंक्ति...बहुत मीठा है ये कड़वापन....
हम्म....हर एक भाव बहुत पसंद आया....सरल और सहज लिखा हुआ....आसानी से समझ आ जाने वाला...कंट्रास्ट भी अच्छा लगा प्रतिभा जी....कहीं कदम जड़ हैं...कहीं बैचैन मन की सी गति है कविता में.....कहीं व्याकुलता है कहीं पीछे छोड़ आये समय की टीस.....उसे वापस पा लेने की चाह........
फिर से कहूँगी..अंत बहुत अच्छा है.....सबकी जिंदगी में ये बातें होती ही हैं....बिरले ही होते हैं जिन्हें ऐसा सहज और सरल नाता मिल जाता है किसी न किसी के रूप में....
और एक और बात...मृत्युंजय पढ़ रही हूँ ना......कर्ण को बहुत निकट से जानने का मौक़ा मिल रहा है...आत्मसात कर सही हूँ उसके जीवन प्रसंग....तो ये कविता इसका हर एक शब्द और भाव...ऐसा लगा मानों कर्ण के ह्रदय को छू कर आया हो........खासकर आखिरी से दूसरा पद....''दुस्सह बोध अकेले पड़ते जाने का...''
खैर...बहुत बहुत बधाई...ऐसी कविता के लिए..जिससे कोई भी अपने आप को आसानी से जोड़ सकता है...!