कल्पनामय आज तो जीवन बना ,
पर जिन्दगीमय कल्पना हो क्या कभी ऐसा न होगा !
एक पग आगे बढा तो शूल पथ के मुसकराये,
एक क्षण पलगें खुलीं तो हो गये सपने पराये ,
एक ही मुस्कान ने सौ आँसुओं का नीर माँगा ,
एक ही पथ में समूचे विश्व के अभिशाप छाये !
स्वप्नमय ही हो गई हैं आज सारी चेतनायें ,
चेतनामय स्वप्न हों ये ,क्या कभी ऐसा न होगा !
*
एक बन्धन टूटने पर युग-युगों का व्यंग्य आया ,
एक दीपक के लिये तम का अपरिमित सिन्धु छाया ,
एक ही था चाँद नभ में किन्तु घटता ही रहा ,
जब तक न मावस का अँधेरा व्योम में घिर घोर आया !
इसलिये मैं खोजती हूँ चैन जीवन की व्यथा में ,
वेदना ही शान्ति वन जाये कभी ऐसा न होगा !
*
चाह से है राह कितनी दूर भी मैने न पूछा ,
क्या कभी मँझधार को भी कूल मिलता है न बूझा ,
किन्तु गति ही बन गई बंधन स्वयं चंचल पगों में ,
छाँह देने को किसी ने एक क्षण को भी न रोका !
ये भटकते ही रहे उद्ध्रान्त से मेरे चरण
पर भ्रान्ति में ही बन चले पथ क्या कभी ऐसा न होगा !
*
अब कभी बरसात रोती कभी मधुऋतु मुस्कराती ,
कभी झरती आग नभ से या सिहरती शीत आती ,
सोचती हूँ अनमनी मैं बस यही क्रम जिन्दगी का ,
किन्तु मैं रुकने न पाती ,किन्तु मैं जाने न पाती १
आज खो देना स्वयं को चाहती विस्मृति-लहर में
भूल कर भी मैं स्नयं को पा सकूँ ऐसा न होगा !
*
पर जिन्दगीमय कल्पना हो क्या कभी ऐसा न होगा !
एक पग आगे बढा तो शूल पथ के मुसकराये,
एक क्षण पलगें खुलीं तो हो गये सपने पराये ,
एक ही मुस्कान ने सौ आँसुओं का नीर माँगा ,
एक ही पथ में समूचे विश्व के अभिशाप छाये !
स्वप्नमय ही हो गई हैं आज सारी चेतनायें ,
चेतनामय स्वप्न हों ये ,क्या कभी ऐसा न होगा !
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एक बन्धन टूटने पर युग-युगों का व्यंग्य आया ,
एक दीपक के लिये तम का अपरिमित सिन्धु छाया ,
एक ही था चाँद नभ में किन्तु घटता ही रहा ,
जब तक न मावस का अँधेरा व्योम में घिर घोर आया !
इसलिये मैं खोजती हूँ चैन जीवन की व्यथा में ,
वेदना ही शान्ति वन जाये कभी ऐसा न होगा !
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चाह से है राह कितनी दूर भी मैने न पूछा ,
क्या कभी मँझधार को भी कूल मिलता है न बूझा ,
किन्तु गति ही बन गई बंधन स्वयं चंचल पगों में ,
छाँह देने को किसी ने एक क्षण को भी न रोका !
ये भटकते ही रहे उद्ध्रान्त से मेरे चरण
पर भ्रान्ति में ही बन चले पथ क्या कभी ऐसा न होगा !
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अब कभी बरसात रोती कभी मधुऋतु मुस्कराती ,
कभी झरती आग नभ से या सिहरती शीत आती ,
सोचती हूँ अनमनी मैं बस यही क्रम जिन्दगी का ,
किन्तु मैं रुकने न पाती ,किन्तु मैं जाने न पाती १
आज खो देना स्वयं को चाहती विस्मृति-लहर में
भूल कर भी मैं स्नयं को पा सकूँ ऐसा न होगा !
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बेहद खूबसूरत रचना..बहुत सुंदर भाव,,,,,,,
जवाब देंहटाएं'स्वप्नमय ही हो गई हैं आज सारी चेतनायें ,
चेतनामय स्वप्न हों ये ,क्या कभी ऐसा न होगा'
वाह~! बहुत खूबसूरत...
'इसलिये मैं खोजती हूँ चैन जीवन की व्यथा में ,
वेदना ही शान्ति वन जाये कभी ऐसा न होगा !'
न न ! ऐसा होता है....भारतीय नारियां इस कला में एकदम निपुण होतीं हैं...बचपन से प्रशिक्षण मिलता है ना...:/
'किन्तु गति ही बन गई बंधन स्वयं चंचल पगों में ,
छाँह देने को किसी ने एक क्षण को भी न रोका'
woww..गति का bandhan ban jana....पढने में और apne ही मन की aawaz में sunne में aanand aa रहा है...sahi है इतना tez jayenge तो kaun rokne kee himmat करेगा भला........दूसरी चीज़ इसका अर्थ इस तरह से भी लिया..:)....आप बहुत बहादुर हैं...तो भी कोई आपसे ये नहीं पूछने आएगा कि आप ठीक हैं अथवा आपको किसी की ज़रुरत है.....
एकदम ''सुनामी'' पंक्तियाँ थीं ये दोनों...प्रतिभा जी........:) (हमारे कॉलेज में किसी बहुत बड़ी बात को सुनामी कहा जाता था......जैसे 'सुनामी मार्क्स आयें हैं उसके' या 'सुनामी वायवा गया ')
सोचती हूँ अनमनी मैं बस यही क्रम जिन्दगी का ,
हम्म और ये धूप छाँव / सुख-दुःख के मौसम अविचल भाव से गुज़ार देने चाहिए...ऐसा भगवदगीता कहती है....
'किन्तु मैं रुकने न पाती ,किन्तु मैं जाने न पाती १
आज खो देना स्वयं को चाहती विस्मृति-लहर में
भूल कर भी मैं स्नयं को पा सकूँ ऐसा न होगा !'
कित्ता मनोहारी असमंजस और दुविधा है.....सच में मुझे पढने में बहुत बहुत अच्छा लगा...एकदम लय में और सहज..
''भूल कर भी स्वयं को पा लेना...'' :)
जितनी पंक्तिया मैंने चुनी..उनके भाव-सौंदर्य से अभिभूत होकर...बहुत अच्छा कंट्रास्ट भावों का.....इनके अलावा जितनी पंक्तियाँ बचीं हैं (जो मैंने नहीं चुनी..) उनका शब्द सौन्दर्य अनुपम है.....
'एक ही मुस्कान ने सौ आँसुओं का नीर माँगा'
अच्छा लगा ये पढना...अमूमन आँखों से अश्रु मांगे जाते हैं.....यहाँ मुस्कान आंसुओं से जल मांग रही है.....बहुत सुंदर थी पंक्ति....लिखते लिखते भी मुस्कान तैर रही है मेरे चेहरे पे..:)
'जिन्दगीमय कल्पना'...यहाँ ''जीवनमय कल्पना''...होना था शायद....मैंने ऐसे ही पढ़ा इसे..:)
बेहद शानदार लगी ये सरल दिखने वाली गहन कविता......सबसे अच्छा इसका अंत....:)
बधाई नहीं इस कविता के लिए बहुत सारा आभार...इस कविता के माध्यम से मेरे ज़ेहन को सुकून मिला......
शुभ रात्रि..:)
'एक बन्धन टूटने पर युग-युगों का व्यंग्य आया ,
जवाब देंहटाएंएक दीपक के लिये तम का अपरिमित सिन्धु छाया ,
एक ही था चाँद नभ में किन्तु घटता ही रहा ,
जब तक न मावस का अँधेरा व्योम में घिर घोर आया !
इसलिये मैं खोजती हूँ चैन जीवन की व्यथा में ,
वेदना ही शान्ति वन जाये कभी ऐसा न होगा !'
वेदना में शांति ढूढने का ''कारण'' बहुत बहुत सटीक और नया है.......हर काली रात के बाद नयी सुबह आती है.......इसके ठीक विपरीत......मन को छू गयीं आखिरी की तीन पंक्तियाँ.....ये बात याद रहेगी......अमावस चाँद वेदना और शान्ति वाली.....:)
कविता इत्ती अच्छी लगी कि इस पद पर ध्यान नहीं दे पायी.....जाते जाते कविता फिर दोहराई तो यहाँ ध्यान गया.....:)
अब अलग से इस पद के लिए विशेष आभार....क्यूंकि मेरे अपने जीवन के कुछ यादगार लम्हे इस पद में सजीव हो उठे....:)