बहुत याद आती है-
*
जब चाँद तले चुपचाप बैठ जाती हूँ ,चुपचाप अकेली और अनमनी होकर ,
कोई पंथी ऊँचे स्वर से गा उठता ,उस दूर तलक पक्की सुनसान सडक पर ,
तब जी जाने कैसा-कैसा हो उठता ,बीता कोई दिन लौट नहीं पायेगा ,
तन्मय स्मृति में हो खो जा मेरे मन ,कोई सुख उसका मोल न भर पायेगा !
ना जाने कितनी रातों का सूनापन आ समा गया मेरे एकाकी मन में ,
बीते युग की यह कैसी धुन्ध जमा है ,मेरे जीवन के ढलते से हर क्षण में !
*
वह बडे भोर की उठती हुई प्रभाती ,मेरे अँगना में धूप उतर आती थी ,
जब आसमान उन्मुक्त हँसी हँसता था ,जब आँचल भर सारी धरती गाती थी !
आ ही जाता है याद नदी का पानी ,नैनों में कुछ जल कण आ छा जाते हैं
खुशियों की हवा न जिन्हें उडा पाती है ,जो बन आँसू की बूँद न झर पाते हैं !
मैं सच कहती हूँ बहुत यादआती है,पर बेबस पंछी रह जाता मन मारे ,
जाने कैसे चुपके से ढल जाते हैं अब तो मेरे जीवन के साँझ सकारे !
*
तेरी स्मृतियों की छाया यों मुझ पर छाकर ,बल देती चले थके हारे जीवन को ,
तू एक प्रेरणा बन जा अंतर्मन की ,जो सदा जगाती रहे भ्रमित से मन को !
मेरी उदासियों का गहरा धूँधलापन ,तेरे उजली आभा पर कभी न छाये ,
अभिशापित किसी जनम की कोई छाया ,तेरे निरभ्र नभ पर न कहीं पड जाये !
नाचो मदमस्त धान की बालों नाचो ,श्यमल धरती के हरे-भरे आँचल में ,
मैं दूर रहूँ ,या पास रहूँ ,इससे क्या ,तुम फूलो फलो हँसो हर दम हर क्षण में !
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जब चाँद तले चुपचाप बैठ जाती हूँ ,चुपचाप अकेली और अनमनी होकर ,
कोई पंथी ऊँचे स्वर से गा उठता ,उस दूर तलक पक्की सुनसान सडक पर ,
तब जी जाने कैसा-कैसा हो उठता ,बीता कोई दिन लौट नहीं पायेगा ,
तन्मय स्मृति में हो खो जा मेरे मन ,कोई सुख उसका मोल न भर पायेगा !
ना जाने कितनी रातों का सूनापन आ समा गया मेरे एकाकी मन में ,
बीते युग की यह कैसी धुन्ध जमा है ,मेरे जीवन के ढलते से हर क्षण में !
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वह बडे भोर की उठती हुई प्रभाती ,मेरे अँगना में धूप उतर आती थी ,
जब आसमान उन्मुक्त हँसी हँसता था ,जब आँचल भर सारी धरती गाती थी !
आ ही जाता है याद नदी का पानी ,नैनों में कुछ जल कण आ छा जाते हैं
खुशियों की हवा न जिन्हें उडा पाती है ,जो बन आँसू की बूँद न झर पाते हैं !
मैं सच कहती हूँ बहुत यादआती है,पर बेबस पंछी रह जाता मन मारे ,
जाने कैसे चुपके से ढल जाते हैं अब तो मेरे जीवन के साँझ सकारे !
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तेरी स्मृतियों की छाया यों मुझ पर छाकर ,बल देती चले थके हारे जीवन को ,
तू एक प्रेरणा बन जा अंतर्मन की ,जो सदा जगाती रहे भ्रमित से मन को !
मेरी उदासियों का गहरा धूँधलापन ,तेरे उजली आभा पर कभी न छाये ,
अभिशापित किसी जनम की कोई छाया ,तेरे निरभ्र नभ पर न कहीं पड जाये !
नाचो मदमस्त धान की बालों नाचो ,श्यमल धरती के हरे-भरे आँचल में ,
मैं दूर रहूँ ,या पास रहूँ ,इससे क्या ,तुम फूलो फलो हँसो हर दम हर क्षण में !
जाने कैसे चुपके से ढल जाते हैं अब तो मेरे जीवन के साँझ सकारे..:)
जवाब देंहटाएंयूँ ही तो नहीं कहते ना...कि..वक़्त हर घाव का मरहम है...:)..सच में कितना बड़ा संकट आ जाए..समय को अपनी गत से चलते ही रहना है....न एक पल का विराम....न एक पल की अधीरता....
'मैं दूर रहूँ ,या पास रहूँ ,इससे क्या ,तुम फूलो फलो हँसो हर दम हर क्षण में '
एकदम से स्पष्ट नहीं करते कविता के शब्द कि आखिर इनके द्वारा कौन सा दुःख बतलाया जा रहा है..और इसी से..बहुआयामी हो गयी है ये कविता.........मैंने भी अपनी एक तो तकलीफें इससे जोड़कर देख लीं...और समापन इतना सुखद और सकारात्मक था..कि अच्छा ही हुआ मैंने खुद को जोड़ कर आपकी कविता पढ़ी......मन अच्छा हो गया...खूब सारा आभार..इस कविता हेतु..:)
आज अखबार में पढ़ा था ''..जो लोग आपको मुस्कुराने पर विवश करते हैं....असल में वो बहुत महत्वपूर्ण होते हैं....उनके लिए सदा आभार प्रगट करना चाहिए..क्यूंकि वो दर'असल एक किस्म के बागवां होते हैं...जो आपकी आत्मा को खिलाकर रखते हैं..'' :) mere liye aapka kavi man bhi isi tarah ka baagwaan hai..:D