tag:blogger.com,1999:blog-3160220647065410925.post8113853118427824810..comments2023-12-29T02:05:21.545-08:00Comments on शिप्रा की लहरें: शब्द मंत्र बन जायँप्रतिभा सक्सेनाhttp://www.blogger.com/profile/12407536342735912225noreply@blogger.comBlogger1125tag:blogger.com,1999:blog-3160220647065410925.post-16625141261727274402011-05-03T09:20:40.914-07:002011-05-03T09:20:40.914-07:00प्रतिभा जी...
बता नहीं सकती कितनी ज़्यादा शांति दे...प्रतिभा जी...<br />बता नहीं सकती कितनी ज़्यादा शांति देने वाली रचना है....मन क्या आत्मा के कण कण में ये शब्द मन्त्र गूँज रहे हैं......<br /><br />''श्वास-श्वास हो दासी '' ...सुनने में बहुत ही अच्छा लगा...<br /><br />''उतरो माँ ,संतप्त हृदय में बरसाओ करुणा-कण ,<br />दो सामर्थ्य, विवेक और प्रतिपल सत् का अवलंबन''....<br /><br />बस ये दो पंक्तियाँ चुन लीं अपने लिए.....बार बार दोहराती रहूंगी...<br /><br />''कभी स्वप्न मे आईं थीं तुम संग-साथ मिल खेलीं ,<br />वही स्नेह अधिकार मुझे दो मेरी संग-सहेली ! ''<br /><br />..माँ (देवी माँ) के लिए सहेली शब्द लुभा गया मन को बहुत ज़्यादा...शायद यहाँ आपके उस स्वप्न का जिक्र है..लालित्यम पर पढ़ा था...<br /><br />खैर..<br /><br />''कितना कुछ भी कह कर लगता ,कुछ न अभी कह पाया <br /> हरदम शेष रह गया उतना ,जितना भी गुण गाया !''<br />ekdum satya hai..:)<br /><br />बहुत बहुत सुंदर है रचना...saral भी....एक एक भाव दिल को छू गया प्रतिभा जी......वरना वो भारी भारी वजनदार भजन तो मुझे भगवानजी लोगों से जोड़ ही नहीं पाते...<br /><br />आभार इस रचना के लिए......''गंगा तीरे'' जैसी रचना लगी....कई बार पढूंगी.....मन kee शांति के लिए !!Taruhttps://www.blogger.com/profile/08735748897257922027noreply@blogger.com