बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

कैसा नाम तुम्हारा

बिना तुम्हारी खबर लिये औ'बिना तुम्हारा नाम पुकारे ,
मैंने इस आजन्म कैद के कैसे इतने साल गुज़ारे !
*
बिना कहे कैसे बीतीं,इतने लंबे वर्षों की घड़ियां ,
रही पोंछती बीते छापे ,रही बिसरती बिखरी कड़ियां !
कितने शिशिर और सावन क्षितिजों तक दिशा-दिशा ने धारे !
*
अनगिन बर्षों में आईं अनगिन पूनम और अमावस ,
मुझको ऐसा लगा सामने रखा हुआ ज्यों कोरा काग़ज़ !
कितनी बार नृत्य ऋतुओं के ,बिना तुम्हारा रूप निहारे !
*
कभी न पाती लिखी, न कोई लिखा नाम का कोई आखऱ ,
किन्तु डाकिये की पुकार सुन उठा वेग कुछ उर में आकर ,
मन मेंं उमड़ा कहीं पते पर लिखा न मेरा नाम उचारे !
*
दूर कर दिये स्वरमाला से कुछ आखऱ जो भूल सकूँ मैं ,
होठों पर ताला डाला जो कभी स्वरों के वेग बहूँ मैं
लेकिन यत्न व्यर्थ, जिस रँग से पोते उसने और उभारे !
*
पानी डाला धो डालूँ , पर लगा रंग गहराता कपड़ा !
बढ़ता गया उमर के सँग निजता को खो देने खतरा !
कैसा नाम तुम्हारा जिसकी प्रतिध्वनि- हर ध्वनि में गुँजारे !
***

1 टिप्पणी:

  1. कभी न पाती लिखी, न कोई लिखा नाम का कोई आखऱ ,
    किन्तु डाकिये की पुकार सुन उठा वेग कुछ उर में आकर ,
    मन में उमड़ा कहीं पते पर लिखा न मेरा नाम उचारे !

    पहले तो यहाँ असमंजस में थी...कि न पत्र लिखा गया... न उस पत्र पर पता...फिर तीसरी पंक्ति में 'पता' कैसे उचारेगा कोई.......?? बाद में समझ आया..कि उस अनलिखे पत्र पर लिखे जाने वाले पते की बात हो रही थी शायद....जो कागज़ पर न सही ह्रदय में तो है ही...और क्षणिक आवेग उस पते का उल्लेख न कर दे....हम्म!

    'दूर कर दिये स्वरमाला से कुछ आखऱ जो भूल सकूँ मैं ,
    होठों पर ताला डाला जो कभी स्वरों के वेग बहूँ मैं
    लेकिन यत्न व्यर्थ, जिस रँग से पोते उसने और उभारे !'

    ...वाह! उम्दा है ये भी...हर जातः का व्यर्थ हो जाना...कित्ता सुंदर पिरोया है आपने यहाँ इस भाव को....

    पानी डाला धो डालूँ , पर लगा रंग गहराता कपड़ा !
    बढ़ता गया उमर के सँग निजता को खो देने खतरा !

    हम्म....कुछ गूढ़ छिपा है क्या पंक्तियों में प्रतिभा जी...तीनों पद आपस में जुड़े हुए हैं....मुझे एकदम समझ नहीं आई कविता.....अभिप्राय नहीं समझ पायी...

    ''बिना तुम्हारी खबर लिये औ'बिना तुम्हारा नाम पुकारे ,
    मैंने इस आजन्म कैद के कैसे इतने साल गुज़ारे ''

    फिलहाल के लिए इन दो पंक्तियों को प्रतिनिधि मानकर मैं श्रीकृष्ण के सन्दर्भ में कविता समझ ले रही हूँ...कि मैंने इतने सारे वर्ष उनसे शत्रुता निभाने में व्यर्थ गंवा दिए...बिना उनका नाम जपे..और उनसे भयभीत भी होते हुए..........:(

    वैसे अच्छी लगी ये कविता....एक प्रेयसी की विरह दशा भी मान सकती हूँ....जहाँ उसके प्रियतम उसे छोड़ परदेस जा बसे...और जिन्हें वो कुछ कह भी न पायी हो.......

    और यहाँ तक कि मैंने एक माता-पिता के जानिब से भी कविता सोच ली........बस कहीं कहीं भावार्थ संक्षिप्त कर देने पड़े थे...

    अच्छी बहुआयामी सी कविता हो गयी है...बधाई और आभार भी प्रतिभा जी..:)
    शुभ रात्रि!

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