शुक्रवार, 29 मार्च 2013

मन


जान रही हूँ,मन,

 तुम्हें ,समझ रही हूँ ,
तुम वह नहीं जो दिखते हो!
वह भी नहीं -
ऊपर से जो लगते रूखे ,तीखे,खिन्न!
चढ़ती-उतरती लहरों के आलोड़न ,
आवेग-आवेश के अथिर अंकन
अंतर  झाँकने नहीं देते !
*
तने जाल हटते  हैं जब, 
आघातों के वेगहीन होने पर , 
सारी उठा-पटक से परे,
एक सरल-निर्मल सतह  
की ओझल खोह से
झाँक जाता है,
शान्त क्षणों में बिंबित 
दर्पण सा मन !
ऊपरी तहों में लिपटे भी  ,
कितने  समान हम !
*

34 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर भाव. मन की बात ही कुछ ऐसी है.

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  2. माता जी प्रणाम सुप्रभात आपके लम्बे जीवन की कामना
    मन के किसी कोने में किसी का भी प्रवेश वर्जित होता है शायद वो हमारा नितांत निजी होता है जहाँ की पीड़ा किसी से कही नहीं जा सकती

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    1. बेहतरीन प्रतिक्रिया है रमाकांत जी की !
      आभार आपका सुंदर रचना के लिए !

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    2. पूरी थाह पाई जा सकती या हर बात बाँटी जा सकती तो मन एक पहेली क्यों रहता -व्यक्ति स्वयं अपने मन के भंडार का केवल 10% बोध रख पाता है.

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  3. शांत क्षणों में बिम्बित दर्पण सा मन ...
    जो दिखता है उससे परे !
    दिल से लिखा !

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  4. अपने ही मन को समझना भी कहाँ सरल है..............

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  5. बहुत ही सुन्दर भावात्मक प्रस्तुति,बहुत बहुत आभार आदरेया.

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  6. ऊपरी तहों में लिपटे कितने समान हम...बहुत सुंदर !

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  7. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (31-03-2013) के चर्चा मंच 1200 पर भी होगी. सूचनार्थ

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  8. सुंदर भाव ... बहुत खूब !


    आज की ब्लॉग बुलेटिन क्योंकि सुरक्षित रहने मे ही समझदारी है - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  9. मन का मनना क्या जानूँ,
    पहरे ताने मन ने उस पर।

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  11. तह दर तह लिपटते ही चले जाते हैं हम। छुप जाता है अपना ही वजूद। टटोलता है उसे कोई अपना ही..कराता है एहसास कि तुम्हारे भीतर भी एक संवेदनशील आदमी रहता है।

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  12. वाह बहुत सुन्दर भावनाएं व्यक्त की आपने | बधाई

    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
    Tamasha-E-Zindagi
    Tamashaezindagi FB Page

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  13. वाह प्रतिभाजी ...कितना गहन सच ...!!!

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  14. बहुत सुन्दर! इसी तरह अपना आशीष बनाए रखें!

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  15. नारियल सदृश मन की बारीक पडताल सी खूबसूरत प्रस्तुति.

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  16. बहुत गहन और सार्थक अभिव्यक्ति..आभार

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  17. बहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति!!
    पधारें कैसे खेलूं तुम बिन होली पिया...

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  18. समय के तने तने शिथिल होने पे ही हटते हैं ... फिर दिखता है कोमल मन ... निर्मल मन ...

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  19. आपने मन की गहराई तक देखा और जाना की दोनों के मन एक समान ही हैं ..... आम इंसान अपना मन ही नहीं देख पाता ... बहुत सुंदर रचना

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  20. गहन अनुभूतियों को सहजता से
    व्यक्त किया है आपने अपनी रचना में
    सार्थक रचना
    बधाई

    आग्रह है मेरे ब्लॉग jyoti-khare.blogspotin
    में भी सम्मलित हों ख़ुशी होगी

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  21. बहुत गहन मनन ...
    परतें चढ़ी मन पर अनेक .....अंतरमन तक पहुंचें कैसे ..???

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  22. बहुत गहन चिंतन मनन ...
    अंतर्मन तक पहुंचे कैसे मेरा ये मन ...मिझसे ही मैं दूर हुई ....क्यों इतनी मैं क्रूर हुई ...??

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  25. शकुन्तला बहादुर20 अप्रैल 2013 को 10:41 am बजे

    आवेग आवेश के अथिर अंकन - अनुपम अनुप्रास !!

    "मनः एव मनुष्याणां बन्धनमोक्षकारणम् ।"

    मानस-मंथन कर रहीं, प्रतिभा जी प्रतिपल।
    बुद्धि सहित है ज्ञान भी,रचे जो नित्य नवल।।
    नये नये भावों की करतीं,जो सुललित अभिव्यक्ति।
    मन पर छाप छोड़ती गहरी,प्रमुदित है हर व्यक्ति।।
    "मन के हारे हार है, मन के जीते जीत"।
    मेरा तो सौभाग्य यही कि,मिलीं आपसी मीत।।

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