जान रही हूँ,मन,
तुम्हें ,समझ रही हूँ ,
तुम वह नहीं जो दिखते हो!
वह भी नहीं -
ऊपर से जो लगते रूखे ,तीखे,खिन्न!
चढ़ती-उतरती लहरों के आलोड़न ,
आवेग-आवेश के अथिर अंकन
अंतर झाँकने नहीं देते !
*
तने जाल हटते हैं जब,
आघातों के वेगहीन होने पर ,
सारी उठा-पटक से परे,
एक सरल-निर्मल सतह
की ओझल खोह से
झाँक जाता है,
शान्त क्षणों में बिंबित
दर्पण सा मन !
ऊपरी तहों में लिपटे भी ,
कितने समान हम !
*
सुन्दर भाव. मन की बात ही कुछ ऐसी है.
जवाब देंहटाएंमाता जी प्रणाम सुप्रभात आपके लम्बे जीवन की कामना
जवाब देंहटाएंमन के किसी कोने में किसी का भी प्रवेश वर्जित होता है शायद वो हमारा नितांत निजी होता है जहाँ की पीड़ा किसी से कही नहीं जा सकती
बेहतरीन प्रतिक्रिया है रमाकांत जी की !
हटाएंआभार आपका सुंदर रचना के लिए !
पूरी थाह पाई जा सकती या हर बात बाँटी जा सकती तो मन एक पहेली क्यों रहता -व्यक्ति स्वयं अपने मन के भंडार का केवल 10% बोध रख पाता है.
हटाएंशांत क्षणों में बिम्बित दर्पण सा मन ...
जवाब देंहटाएंजो दिखता है उससे परे !
दिल से लिखा !
अपने ही मन को समझना भी कहाँ सरल है..............
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर भावात्मक प्रस्तुति,बहुत बहुत आभार आदरेया.
जवाब देंहटाएंऊपरी तहों में लिपटे कितने समान हम...बहुत सुंदर !
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (31-03-2013) के चर्चा मंच 1200 पर भी होगी. सूचनार्थ
जवाब देंहटाएंसुंदर भाव ... बहुत खूब !
जवाब देंहटाएंआज की ब्लॉग बुलेटिन क्योंकि सुरक्षित रहने मे ही समझदारी है - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
मन का मनना क्या जानूँ,
जवाब देंहटाएंपहरे ताने मन ने उस पर।
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जवाब देंहटाएंतह दर तह लिपटते ही चले जाते हैं हम। छुप जाता है अपना ही वजूद। टटोलता है उसे कोई अपना ही..कराता है एहसास कि तुम्हारे भीतर भी एक संवेदनशील आदमी रहता है।
जवाब देंहटाएंवाह बहुत सुन्दर भावनाएं व्यक्त की आपने | बधाई
जवाब देंहटाएंकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
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वाह प्रतिभाजी ...कितना गहन सच ...!!!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर! इसी तरह अपना आशीष बनाए रखें!
जवाब देंहटाएंनारियल सदृश मन की बारीक पडताल सी खूबसूरत प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंबहुत गहन और सार्थक अभिव्यक्ति..आभार
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति!!
जवाब देंहटाएंपधारें कैसे खेलूं तुम बिन होली पिया...
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंअति सुंदर शब्द और भाव ..
जवाब देंहटाएंमन जैसी ही गहरी रचना.
जवाब देंहटाएंसमय के तने तने शिथिल होने पे ही हटते हैं ... फिर दिखता है कोमल मन ... निर्मल मन ...
जवाब देंहटाएंगहन मनन, बहुत भावपूर्ण, बधाई.
जवाब देंहटाएंman ke manana ko bahut sundar bhavon ke sath ukera hai.
जवाब देंहटाएंDarpan sa man aur gahari soch.
जवाब देंहटाएंआपने मन की गहराई तक देखा और जाना की दोनों के मन एक समान ही हैं ..... आम इंसान अपना मन ही नहीं देख पाता ... बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंकितना सुन्दर लिखा है ।।।
जवाब देंहटाएंगहन अनुभूतियों को सहजता से
व्यक्त किया है आपने अपनी रचना में
सार्थक रचना
बधाई
आग्रह है मेरे ब्लॉग jyoti-khare.blogspotin
में भी सम्मलित हों ख़ुशी होगी
बहुत गहन मनन ...
जवाब देंहटाएंपरतें चढ़ी मन पर अनेक .....अंतरमन तक पहुंचें कैसे ..???
बहुत गहन चिंतन मनन ...
जवाब देंहटाएंअंतर्मन तक पहुंचे कैसे मेरा ये मन ...मिझसे ही मैं दूर हुई ....क्यों इतनी मैं क्रूर हुई ...??
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जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंआवेग आवेश के अथिर अंकन - अनुपम अनुप्रास !!
जवाब देंहटाएं"मनः एव मनुष्याणां बन्धनमोक्षकारणम् ।"
मानस-मंथन कर रहीं, प्रतिभा जी प्रतिपल।
बुद्धि सहित है ज्ञान भी,रचे जो नित्य नवल।।
नये नये भावों की करतीं,जो सुललित अभिव्यक्ति।
मन पर छाप छोड़ती गहरी,प्रमुदित है हर व्यक्ति।।
"मन के हारे हार है, मन के जीते जीत"।
मेरा तो सौभाग्य यही कि,मिलीं आपसी मीत।।