*
नहीं, प्रतिद्वंदिता नहीं !
सहज रूप से प्यार करती हूँ तुम्हें!
आदर भी तुम्हारी क्षमताओं का, सामर्थ्य का!
आकाश जैसे छाये कई रूप -
पिता ,भाई ,पति, पुत्र, मित्र ,
अभिभूत करते हैं.
जीवन के हिस्सेदार सब,
स्वीकार करती हूँ .
*
पर पुरुष मात्र होते -
जब इनमें से कुछ नहीं
एक व्यक्ति मात्र,
संबंधों की सीमा से मुक्त.
तब ?हाँ ,तब--
रूप बदल जाता है झट् से .
वह कौतुक भरी तकन
नापती -तोलती, असहज करती नारी-तन .
नर का चोला खिसका
झाँकने लगता पशु ,
क्या पता कब हो जाओ
भूखे ,आतुर, दुर्दांन्त,
रौंदने को तत्पर !
विश्वास नहीं करती,
घृणा करती हूँ तुमसे !
अपना कह, सब कुछ अर्पण कर
धन्यता मानी थी! .
पर क्या ठिकाना तुम्हारा ,
घबरा कर,ऊब कर,
आत्म-कल्याण-हित,
परमार्थ खोजने चल दो,
कीचड़ में छोड़,
भुगतने को अकेली.
खुद का किया धरा मुझ पर लाद ,
कायर असमर्थ ,दुर्बल तुम!
*
क्यों ? कल्याण के मार्ग
मेरे लिये रुद्ध हैं?
अगर हैं,
तो तुमने रूँधे हैं ,
कि संसार
अबाध चलता रहे !
*
क्या कभी तुम्हें
बीच मँझधार छोड़,
अपने लिये भागी मैं ?
- उत्तर दोगे ?
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नहीं, प्रतिद्वंदिता नहीं !
सहज रूप से प्यार करती हूँ तुम्हें!
आदर भी तुम्हारी क्षमताओं का, सामर्थ्य का!
आकाश जैसे छाये कई रूप -
पिता ,भाई ,पति, पुत्र, मित्र ,
अभिभूत करते हैं.
जीवन के हिस्सेदार सब,
स्वीकार करती हूँ .
*
पर पुरुष मात्र होते -
जब इनमें से कुछ नहीं
एक व्यक्ति मात्र,
संबंधों की सीमा से मुक्त.
तब ?हाँ ,तब--
रूप बदल जाता है झट् से .
वह कौतुक भरी तकन
नापती -तोलती, असहज करती नारी-तन .
नर का चोला खिसका
झाँकने लगता पशु ,
क्या पता कब हो जाओ
भूखे ,आतुर, दुर्दांन्त,
रौंदने को तत्पर !
विश्वास नहीं करती,
घृणा करती हूँ तुमसे !
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एक बात और -अपना कह, सब कुछ अर्पण कर
धन्यता मानी थी! .
पर क्या ठिकाना तुम्हारा ,
घबरा कर,ऊब कर,
आत्म-कल्याण-हित,
परमार्थ खोजने चल दो,
कीचड़ में छोड़,
भुगतने को अकेली.
खुद का किया धरा मुझ पर लाद ,
कायर असमर्थ ,दुर्बल तुम!
*
क्यों ? कल्याण के मार्ग
मेरे लिये रुद्ध हैं?
अगर हैं,
तो तुमने रूँधे हैं ,
कि संसार
अबाध चलता रहे !
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क्या कभी तुम्हें
बीच मँझधार छोड़,
अपने लिये भागी मैं ?
- उत्तर दोगे ?
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वाह! अच्छा लिखा है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर उद्गार हृदय के ....
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लिखा है ...
शुभकामनायें ।
उत्तर ही होता तो ऐसा कृत्य कर पाते क्या ? सार्थक प्रश्न करती रचना
जवाब देंहटाएंनारी मन तेरी यही कहानी सब करती फिर भी अनजानी
जवाब देंहटाएंhttp://www.saadarblogaste.in/2013/03/15.html
नारी मन की गहरी परतों को उतार कर लिखा है ... विद्रोह को उतारू मन पर बंधन ... वो भी पुरुष समाज के खड़े किये ...
जवाब देंहटाएंमाता जी प्रणाम .निःशब्द करती अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंकोई उत्तर नहीं मिलेगा इस प्रश्न का …………शानदार अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंइस अनुत्तरित सनातन प्रश्न का उत्तर ,
जवाब देंहटाएंअभी तक तो नहीं मिला.....
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
साभार
वरण किया है, साथ अब देना पड़ेगा।
जवाब देंहटाएंसार्थक रचना !
जवाब देंहटाएंगहरी अभिव्यक्ति.....
जवाब देंहटाएंतो तुमने रूँधे है
कि अबाध
संसार चलता रहे ...वाह
मुश्किल ही है उत्तर मिलना तो.
जवाब देंहटाएंprshn katin hai uttar aashan nahi hai bs yun hi zindgi ka safar jari rahe
जवाब देंहटाएंबहुत ही भावपूर्ण प्रस्तुतीकरण,आभार.
जवाब देंहटाएंकुछ अनुत्तरित प्रश्न जो कभी भी सामने आ जाते हैं और फिर उत्तर कौन दे?
जवाब देंहटाएंस्त्री और पुरुष में यही तो अंतर है... स्त्री सिर्फ अपने सुख के लिए कभी भी कर्तव्यच्युत नहीं होती...
जवाब देंहटाएं''क्या कभी तुम्हें
बीच मँझधार छोड़
अपने लिए भागी मैं?''
बहुत भावपूर्ण, शुभकामनाएँ.
प्रभावशाली रचना..
जवाब देंहटाएंउलटा प्रश्न खड़ा किया जाएगा कि प्रश्न पूछने का अधिकार किसने दिया ? अति सुन्दर रचना..
जवाब देंहटाएंवहा बहुत खूब बेहतरीन
जवाब देंहटाएंआज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
तुम मुझ पर ऐतबार करो ।
alag alag teen dinon mein padhi thi ye kavita..har baar alag alag bhaav aaye mann me upje.rosh/krodh/dukh/asantushti/virodh..ye sab to sada se hi anubhav kiye kisi bhi aisi rachna par. aaj abhi jab fir padha kavita ko to nayi hi anubhooti mili..likhne me bhi ajeeb lag raha hai..''main ek tathakathit ugrawaadi vyakti hoon..jise aaj bhavishya me hone waali purushon kee dayneey sthiti par daya aa rahi hai..'' matlab..kal maine socha tha..ki uttar kya dega bhala koi...''bhavishya me jo samay aane wala hai..ki ladkiyaan bachengi hi nahin to ek aahat/kunthit/ahankaari/ekaaki purushatv swayam hi ateet ke sabhi prashnon ke ekmaatr uttar ka swaroop le lega kintu durbhaagya kahoon athva saubhaagya ki us uttar ko dekhne wala aur sunne wala bhi doosra uttar hi hoga..prashn to samaapt ho chuke honge..''
जवाब देंहटाएंbahut praabhavi rachna hai pratibhajee..:)
aasha hai mahashivraatri me pratyek purush aur stri bhi apne apne andar chhupe pashu ka daman kar us par sada ke liye vijay praapt kar manushya ban sakein..amen!! :)
ye prashn hi n uthta agar purush swarthi n hota...agar aatm-kalyaan k liye nari ko bhi sath lene ki sochta to uttar poochhne ki jarurat bhi n hoti.
जवाब देंहटाएंsadiyon se sankeern hridy hi raha purush.