बहुत छोटी थी. काल-खंड कुछ घटनाओँ के समीप का इसलिये ध्यान रह गया. मुझसे छोटा भाई मीठे का इतना प्रेमी (अब भी है) कि 'मीठे का चींटा' कहलाता.और कुछ नहीं तो शक्कर ही मुट्ठी भर-भर फाँकता था. और उन दिनों शक्कर की बड़ी किल्लत थी. उस दिन सुबह-सुबह चीख-चीख कर आसमान सिर पर उठाये था, 'लाओ शक्कर ,लाओ गुड़ नहीं तो लाओ पेड़ा-पेठा' . घऱ में शक्कर नहीं और वह न दूध पीने के तैयार न कुछ खाने को आँखें बंद कर रोना-चीखना मचाए! पड़ोस के चाचाजी तक हिल गए. अपने घर से मीठा लेकर आये तब शान्ति हुई.
तो बात 1942और 44 के बीच की रही होगी, ग्वालियर स्टेट की. द्वितीय विश्व-युद्ध की विभीषिका .गेहूँ भी तब दुर्लभ हो गये थे, एक सिमटा-सिमटा लाल-सा नाज (नाम हिलो-मिलो)चला था. नेताजी सुभाष को भी तभी से जाना था.
विज्ञ-जनों की सहायता चाहिये सो इतना बताना ज़रूरी लगा.
लेकिन हिन्दी अख़बारों का वह स्वर्ण-काल रहा होगा! अखबार और ख़बरें घर में भरी रहती थीं .बच्चों के बड़े मन-भावन सेक्शन(बाल पत्रिकाएँ अलग से भी ) जिनमें बेहद प्यारी कविताएँ -कहानियाँ .अक्षर-ज्ञान के बाद पढ़ने की शुरुआत थी मेरी,कविताओं और कहानियों में माँ की बहुत रुचि थी .सुनतीं और सुनातीं थीं .
कुछ तो मुझे इतना भाईं कि अपने बच्चों की बार सुनाती रही, बीच-बीच का जो भूली उसे अपने शब्दों से पूरा कर लिया.बच्चों के बच्चे भी सुनते-आनन्दित होते रहे. पर पूरी असली रचना पढ़ने की इच्छा बनी रह गई .ऐसी कोई सुविधा नहीं मिली थी कि जानकारों से संपर्क कर सकूँ. अब नेट पर अवसर मिला है.
उनमें से एक प्रस्तुत है ,,पूरी असली कविता नहीं ,बीच-बीच में मेरा जोड़-तोड़,खिचड़ी बन गई है.क्षेपक हटा कर असली रचना पढ़ने का आनन्द ही कुछ और होगा.
विज्ञ-जनों से निवेदन है, कवि का नाम और असली रचना यदि कोई दे सके तो परम कृतज्ञ होऊंगी.किसी दैनिक के बच्चों के स्तंभ मे प्रकाशित हुई थी -
चिड़ियों का बाज़ार -
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चिड़ियों ने बाज़ार लगाया,एक कुंज को ख़ूब सजाया
तितली लाई सुंदर पत्ते ,मकड़ी लाई कपड़े-लत्ते,
बुलबुल लाई फूल रँगीले,रंग-बिरंगे पीले-नीले .
तोता तूत और झरबेरी ,भर कर लाया कई चँगेरी.
*
पंख सजीले लाया मोर,अंडे लाया अंडे चोर
गौरैया ले आई दाने ,बत्तख सजाए ताल-मखाने ,
कोयल और कबूतर कौआ,ले कर अपना झोला झउआ,
करने को निकले बाज़ार,ठेले पर बिक रहे अनार
*
कोयल ने कुछ आम खरीदे,कौए ने बादाम खरीदे ,
गौरैया से ले कर दाने ,गुटर कबूतर बैठा खाने .
करे सभी जन अपना काम,करते सौदा ,देते दाम
कौए को कुछ और न धंधा ,उसने देखा दिन का अंधा,
*
बैठा है अंडे रख आगे ,तब उसके औगुन झट जागे,
उसने सबकी नज़र बचा कर ,उसके अंडे चुरा-चुरा कर
कोयल की जाली में जा कर ,डाल दिये चुपचाप छिपा कर,
फिर वह उल्लू से यों बोला ,'क्या बैठ रख खाली झोला' ,
*
उल्लू ने जब यह सुन पाया 'चोर-चोर' कह के चिल्लाया .
हल्ला गुल्ला मचा वहाँ तो, किससे पूछें बता सके जो ,
कौन ले गया मेरे अंडे, पीटो उसको ले कर डंडे,
बोला ले लो नंगा-झोरी ,अभी निकल आयेगी चोरी .
*
सब लाइन से चलते आए ,लेकिन कुछ भी हाथ न आये
जब कोयल की जाली आई ,उसमें अंडे पड़े दिखाई .
सब के आगे वह बेचारी , क्या बोले आफ़त की मारी
'हाय, करूँ क्या?'कोयल रोई ,किन्तु वहाँ क्या करता कोई
*
आँखों मे आँसू लटकाए, बड़े हितू बन फिर बढ़ आए,
बोले,' बहिन तुम्हारी निंदा ,सुन मैं हुआ बहुत शर्मिंदा.'
राज-हंस की लगी कचहरी, छान-बीन होती थी गहरी .
सोच विचार कर रहे सारे,न्यायधीश ने बचन उचारे -
*
'जो अपना ही सेती नहीं दुसरे का वह लेगी कहीं!
आओ कोई आगे आओ ,देखा हो तो सच बतलाओ ,
रहे दूध, पानी हो पानी ,बने न्याय की एक कहानी. '
गौरैया तब आगे आई ,उसने सच्ची बात बताई .
*
कौए की सब कारस्तानी आँखों देखी कही ज़ुबानी.
मन का भी यह कौआ काला,उसे सभा से गया निकाला.
गिद्ध- सिपाही बढ़ कर आया ,कौए का सिर गया मुँड़ाया .
राजहंस की बुद्धि सयानी,तब से सब ने जानी मानी !
*
सुन्दर प्रस्तुतीकरण,आभार.
जवाब देंहटाएंजी जानकारी तो नहीं है..... पर ये कविता है बड़ी प्यारी, आभार पढवाने का
जवाब देंहटाएंभई वाह ..
जवाब देंहटाएंबालमन पर छाप छोड़ जाती हैं ऐसी ही रोचक रचनाएं...
वाह ... बहुत ही सुन्दर ... बच्चे तो बच्चे बड़ों को भी ये रचना बहुत पसंद आने वाली है ... मन में उतरती है सरल भाषा ओर रोचक प्रसंग ...
जवाब देंहटाएंbehtreen rachnaaye....
जवाब देंहटाएंबहुत ही प्यारी कविता, छोटी छोटी बातों से सजी।
जवाब देंहटाएंबहुत रोचकतापूर्ण ढंग से लिखी सुंदर कविता...आपकी याददाश्त की दाद देनी होगी..
जवाब देंहटाएंकविता तो सुन्दर है ही आपका संस्मरण भी बेहद अच्छा है. और याददाश्त का तो जबाब नहीं. कुछ और लिखिए न उन दिनों का याद करके.
जवाब देंहटाएंउस समय की लगी-लिपटी यादें है,आपको भाईं खुशी हुई - शेयर करूँगी ज़रूर.
हटाएंवाह आनंद आया. हम छत्तीसगढ़ी खुसरा चिरई के बिहाव पढ़ कर आनंदित होते रहते हैं, एक ब्लाग पर भी लगाया था, आपने शायद देखा ही होगा- http://akaltara.blogspot.in/2012/06/blog-post_11.html
जवाब देंहटाएंमैं भी खुसरा-चिरई पढ़ कर आनन्दित हुई थी ,पर जब कोई आंचलिक शब्द समझ में नहीं आता तो कुछ अटकाव लगने लगता है.कहीं कहीं शब्दार्थ जानने की ज़रूरत पड़ जाती है
हटाएंपंख सजीले लाया मोर,अंडे लाया अंडे चोर
जवाब देंहटाएंगौरैया ले आई दाने ,बत्तख सजाए ताल-मखाने ,
कोयल और कबूतर कौआ,ले कर अपना झोला झउआ,
करने को निकले बाज़ार,ठेले पर बिक रहे अनार
कोयल ने कुछ आम खरीदे,कौए ने बादाम खरीदे...................
वाह, बहुत लाजबाब रचi था कवि ने। आज के इस दौर की हमारी ये खुशकिस्मती ही है कि अपनी रचनाओं को सजोने के लिए कम से कम अंतर्जाल तो है। भूतकाल में तो पता नहीं कितनी ही ऐसी ख़ूबसूरत रचनाये कहीं गुमनामी में खो गई।
माता जी प्रणाम आपकी याददास्त कहानी की निरंतरता और खुबसूरत कहानी संग गीत के प्रवाह ने **आशीर्वाद ** चल चित्र में अशोक कुमार जी गाये गीत **रेल गाड़ी छुक छुक छुक छुक ** को जीवंत कर दिया . कहानी कौवे और कोयल की है . आज भी कौवे के अंडे कोयल सेती है यह कोवे की प्रवृत्ति को दर्शाती है . माता जी मेरा विद्यालय पर आपका आशीर्वाद चाहूँगा।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
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जवाब देंहटाएंबच्चों का मन पसंद कविता ,बहुत सुन्दर
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जवाब देंहटाएंसहज सार्थक लयात्मक पोस्ट गेयता ही गेयता .प्रवाह निश्छल वेगवती काव्य धारा बन उमड़ा है .आभार आपकी टिपण्णी का .आपकी टिपण्णी हमारी शान है .सार्थक बाल रचना .
वन्य जीवों की हलचल से भरी यह कविता बहुत सुंदर है। पुराने दिनों की स्मृतियां भी खूब हैं। आपको उन दिनों के बारे में सिलसिलेवार ढंग से लिखना चाहिए। बीते दिनों में छिपी ऐसी कहानियों कई बार समृद्ध कर जाती हैं। बधाई और शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंवाह!
जवाब देंहटाएंउम्दा प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
जवाब देंहटाएंLovely creation ! Loving it !
जवाब देंहटाएंaah maja aa gaya....hamare janm se pahle ki kavita...padh kar bahut aanand aaya...aur janne ko mila ki us waqt ki bal-kavitayen kaisi hoti thi...apki smaran-shakti evam prayas ko naman.
जवाब देंहटाएंis kavita ka print lekar apne bacchon ko avashy padhaungi.
aabhar is ham tak pahuchane ke liye.