बहाये दिहौं सिल-बट्टा.*अब मैं ना पीसौंगी भाँग ,
ऊँचे पहारन से फेंको सिलौटी ,बट्टा, धरि दैहौं दुकाय.*काहे को बोई .काहे को सींची ,रगड़त मोरी उमरिया बीती ,अब तो सुनौंगी कछु नाय .
बहाये दिहौं सिल-बट्टा.*काहे बैरिनिया ,सिव मन भाई ,भाँग पिसत मोरी दुखत कलाई,उझकत करिहाँ पिराय .बहाये दिहौं सिल-बट्टा.*भँगिया के लोटा में भरि हौं भभूती,झोरी में लरिकन केर लँगोटी,मोको ई ढंग ना भाय .बहाये दिहौं सिल-बट्टा.छुट्टे-छड़े, तनि देखो तो लच्छन ,चिन्ता न कोऊ कहा कहि हैं जनकाहे कियो रे बियाह .बहाये दिहौं सिल-बट्टा.*
तो अब गोरा पार्वती भी.......अबकी शिवशम्भू ज़रूर फ़ूड-प्रो खरीद
जवाब देंहटाएंलायेंगे ....बहुत सुंदर....!!!!!
ढोलक की थाप पर इस गीत की धुन गूँजने लगी मन में!!
जवाब देंहटाएंयह उलाहना तो बनती है, कोई कितना करे भला?
जवाब देंहटाएंवाह! वाह!
जवाब देंहटाएंछा गयो सिल-बट्टा।
इस सुन्दर लोकगीत का जब शहरीकरण होता है तब पैरोडी के रूप में कुछ इस तरह होता है----"तुम भंगिया जो घुटवाओगे गणपति के पप्पा ,कमण्डल तोड दूँगी ..।"
जवाब देंहटाएंये उलहान .. ये गीत .. जैसे कोई ठुमरी सी चल रही हो कहीं ...
जवाब देंहटाएंदिल को छूते हुए शब्द ...
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन ब्लॉग-बुलेटिन - आधा फागुन आधा मार्च मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
सुन्दर रचना...
जवाब देंहटाएंयथार्थ से परिचय कराता आपका यह आलेख बहुत ही अच्छा लगा।बहुत ही सुदर अभिव्यक्ति। मेरे नए पोस्ट Dreams also have life पर आपका इंतजार रहेगा। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंभाषा का लोक सौंदर्य देखते ही बनता है सुन्दर पोस्ट
जवाब देंहटाएंमन नाचने और गाने लगा इस सुन्दर नचारी पर .
जवाब देंहटाएं:) :) मस्त है ।
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