ठिठका खड़ा है वसंत कहीं रास्ते में,
झिझक भरा मन में विचारता -
रूखों में रस संचार नहीं ,
कहीं गुँजार नहीं .
स्वर पड़े मौन, कौन तान भरे ,
दिशाएँ सोई -सी ,
ले रहीं उबासी .
ठिठुराया पवन शुष्क ,
गंध के झरने रुद्ध ,
गगन धुँधलाया,
हर प्रवाह में उदासी.
भावों में जागा नहीं नेह अभी,
मधु और माधव का आगमन
सँदेश लिए
उतरी नहीं किरणें सुनहरी .
पाँवड़े बिछाए कहाँ स्वागत को,
कैसे पग धरें माँ भारती !
झिझक भरा मन में विचारता -
रूखों में रस संचार नहीं ,
कहीं गुँजार नहीं .
स्वर पड़े मौन, कौन तान भरे ,
दिशाएँ सोई -सी ,
ले रहीं उबासी .
ठिठुराया पवन शुष्क ,
गंध के झरने रुद्ध ,
गगन धुँधलाया,
हर प्रवाह में उदासी.
भावों में जागा नहीं नेह अभी,
मधु और माधव का आगमन
सँदेश लिए
उतरी नहीं किरणें सुनहरी .
पाँवड़े बिछाए कहाँ स्वागत को,
कैसे पग धरें माँ भारती !
देखिये क्या हाल
जवाब देंहटाएंहो गया है
बसंत को भी कोई
रोक ले रहा है
आदमी भी अब
नहीं ठिठकता कहीं
इस बसंत को
ना जाने क्या
हो गया है :)
वाह बहुत सुंदर !
अंतस उतर गई ...मर्मस्पर्शी रचना ....!!
जवाब देंहटाएंsundar marmik rachna
जवाब देंहटाएंबिडम्बना है... .
जवाब देंहटाएंगहरे उतर जाती है आपकी हर रचना.
बेचारा बसंत.. बेचारी माँ भारती!! हम बेचैन रहते हैं स्वागत को, लेकिन स्वागत की तैयारी सिर्फ ऊपरी आडम्बर!! बहुत गहरे जाकर यह कविता ख़ुद से एक सवाल पूछने को कहती है!! बहुत सुन्दर!
जवाब देंहटाएंशीत लहरियाँ जाते जाते,
जवाब देंहटाएंले आती मधुमय वसंत
सचमुच वसंत उदास है.. कोई नहीं तकता आम्र मंजरियों को आज के इस मशीनी युग में..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर .. वसंत में पतझड़ सी अनुभूति कराता हुआ ..
जवाब देंहटाएंbahut sundar..
जवाब देंहटाएंअंतस को छूती बहुत प्रभावी अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंमर्म्स्पर्शीय ... पता नहीं क्यों हो गया है सपूतों को ... बसंत का स्वागत भी अब नहीं हो पाता ...
जवाब देंहटाएंआज कल नहीं आता बसंत बस कैलेण्डर से अनुमान लगता है कि ऋतु बदल रही है ।
जवाब देंहटाएं