*
लिख रही अविराम सरिता ,
नेह के संदेश .
पंक्तियों पर पंक्ति लहराती बही जाती
सिहरती तनु अंगुलियों से आँकती
बहती नदी जो सिक्त आखर .
अर्घ्य की अंजलि समर्पित,
तुम्हें सागर !
*
क्या पता कितनी नमी
चलती हवा सोखे
उड़ा ले जाय ,
वर्तुलों में घूमते इस भँवर-जल के
जाल में रह जाय.
उमड़ती अभिव्यक्तियाँ तट की बरज पा
रेत-घासों में बिखर खो जायँ !
*
आड़ बन कर जो खड़े ,
इन तटों से पूछो कि जो
हर दिन-दुहपरी सुन रहे निश्वास गहरे.
लिख रही अविराम ,अनथक
भीगते लिपि-अंकनों में,
तुम्हीं को संबोध!
सागर !
*
जन्म से अवसान तक
ये राह ,
अनगढ़ पत्थरों से
सतत टकराती बिछलती,
विवश सी ढलती-सँभलती .
तुम्हीं से उन्मुख,
तुम्हारी ओर
सागर !
*
नियति ,कितना कहाँ भटकाये.
नीर की इस सतह पर
लिखती चली जो
नाम से मेरे कभी पहुँचे ,
न पहुँचे,
और ही जल -राशि में रल जाय !
या कि बाढ़ों में बहक
सब अर्थमयता ,
व्यर्थ फटक उड़ाय !
*
कर बढ़ा कर ,
तुम्ही कर लेना ग्रहण
जो भी बचा रह जाय .
सागर!
समा लेना
हृदय के गहरे अतल में,
बने जो निर्वाण मेरा ,
लेश ही वह ,हो रहे
निहितार्थ का पर्याय !
*
लिख रही अविराम सरिता ,
नेह के संदेश .
पंक्तियों पर पंक्ति लहराती बही जाती
सिहरती तनु अंगुलियों से आँकती
बहती नदी जो सिक्त आखर .
अर्घ्य की अंजलि समर्पित,
तुम्हें सागर !
*
क्या पता कितनी नमी
चलती हवा सोखे
उड़ा ले जाय ,
वर्तुलों में घूमते इस भँवर-जल के
जाल में रह जाय.
उमड़ती अभिव्यक्तियाँ तट की बरज पा
रेत-घासों में बिखर खो जायँ !
*
आड़ बन कर जो खड़े ,
इन तटों से पूछो कि जो
हर दिन-दुहपरी सुन रहे निश्वास गहरे.
लिख रही अविराम ,अनथक
भीगते लिपि-अंकनों में,
तुम्हीं को संबोध!
सागर !
*
जन्म से अवसान तक
ये राह ,
अनगढ़ पत्थरों से
सतत टकराती बिछलती,
विवश सी ढलती-सँभलती .
तुम्हीं से उन्मुख,
तुम्हारी ओर
सागर !
*
नियति ,कितना कहाँ भटकाये.
नीर की इस सतह पर
लिखती चली जो
नाम से मेरे कभी पहुँचे ,
न पहुँचे,
और ही जल -राशि में रल जाय !
या कि बाढ़ों में बहक
सब अर्थमयता ,
व्यर्थ फटक उड़ाय !
*
कर बढ़ा कर ,
तुम्ही कर लेना ग्रहण
जो भी बचा रह जाय .
सागर!
समा लेना
हृदय के गहरे अतल में,
बने जो निर्वाण मेरा ,
लेश ही वह ,हो रहे
निहितार्थ का पर्याय !
*
बहुत सुंदर रचना.
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक और सार्थक ......अंजुरी भर शब्द पूरा आसमान बयाँ कर रहे हैं........महिला दिवस की शुभ-कामनाएं.....
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर रचना, शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम.
सुन्दर भावाव्यक्ति ... सागर ही क्यों ... जो भी मिले उसे ग्रहण करना जीवन नियति है ...
जवाब देंहटाएंज्ञात है, जाना वहीं जब,
जवाब देंहटाएंराह का आनन्द मन में।
बहुत सुंदर ।
जवाब देंहटाएंमाँ!! आज इस कविता को पढ़ते हुए पूरी कविता का रेखा-चित्र मानस पटल पर अंकित हो गया. गोवा की यात्रा में वायुयान से मैंने एक चित्र खींचा था. चित्र को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है मानो टेढ़े-मेढ़े अक्षरों में सरिता की पाती है धरती की छाती पर अंकित.
जवाब देंहटाएंऔर फिर मन में एक टीस सी उठी इन पंक्तियों को पढ़कर:
कर बढ़ाकर तुम्हीं
कर लेना ग्रहण
जो भी बचा रह जाए
सागर!
यह अनुरोध/पुकार मुझे गंगा माँ की याद दिलाती है. एक समय हमारे शहर में गंगा का विस्तार किसी विशाल सागर सा प्रतीत होता था. किंतु आज... जो भी बचा है वो गंगा नहीं है, जल के स्थान पर बालुका के द्वीप और पावन सरिता का मैला आँचल ही दिखाई देता है!
कौन जाने युगों युगों से जगतारन उस सरिता को निर्वाण प्राप्त होगा या वह जुड़ी रहेगी एक गर्भनाल की तरह अपने सागर से, अपनी संतति के हित में!!
MATA JI PRANAM SWIKAREN
जवाब देंहटाएंनिःशब्द करती मन को पिघलाती
नेह का कितना पवित्र सन्देश है .
जवाब देंहटाएंबार बार पढने का दिल करता है आपकी हर रचना !! मंगलकामनाएं आपको !
जवाब देंहटाएंअनुपम प्रार्थना... सरिता सा बहते जाना है...
जवाब देंहटाएंसराबोर हूँ इस नेह पुकार में....
जवाब देंहटाएंसरिता की नेह पाती सागर तक पहुँच ही गयी होगी । बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट रचना...
जवाब देंहटाएंसुन्दर पोस्ट.....आप को भी होली की बहुत बहुत शुभकामनाएं...
जवाब देंहटाएंनयी पोस्ट@हास्यकविता/ जोरू का गुलाम
आपको होली कि मंगल कामनाएं ...
जवाब देंहटाएंबहुत उत्कृष्ट प्रस्तुति...होली की आपको सपरिवार हार्दिक शुभकामनाएं!
जवाब देंहटाएंबेहद भावपूर्ण. बहुत बधाई और शुभकामनाएँ!
जवाब देंहटाएंबहुत ही सहज शब्दों में कितनी गहरी बात कह दी आपने..... खुबसूरत अभिवयक्ति...
जवाब देंहटाएंसुकोमल भावों से समन्वित अनूठी रचना ! मैं अभिभूत हूँ ।
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