ओ,चरवाहे ! सँग-सँग मुझे लिए चल.
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घंटी गले बाँध दी ऐसी ,छन-छन भान जगाए ,
तेरे आँक छपे माथे पर, बाकी कौन उपाए .
हेला दे, ले साथ .कहीं यों रह न जाउँ मैं एकल !
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अंकुश बिन ,पगहे बिन, भरमा पशु तेरा मनमाना,
पहुँच वहीं तक गुज़र वहीं पर, तेरी घेर ठिकाना ,
रेवड़ की गिनती में अपनी,तू ही हाँक लिए चल !
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लौट रहे पग घूल उड़ाते, संझा धुंध बिखेरे ,
अपने खूँटे गड़े जहाँ पर उसी छान में तेरे .
रे अहीर , इस छुट्टेपन को तू सँभाल, दे संबल !
सँग-सँग मुझे लिए चल !
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वाह बहुत सुंदर ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएँ।
सुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंजब वो अपना भान पल पल दिलाता रहता है तो एकल रह जाने की बात कहाँ रह जायेगी ... उसका संबल साथ रहेगा हमेशा ...
जवाब देंहटाएंएक और सुन्दर गहरा अर्थ लिए भावपूर्ण रचना ...
बहुत कम शब्दों में जिंदगी का यथार्थ गुनगुनाने लगता है. आपकी पोस्ट ऐसी ही होती है.
जवाब देंहटाएंजब वह साथ है तो फिर अकेला रहने का क्या डर, वह अपने आप संभाल लेगा...बहुत प्रभावी अभिव्यक्ति..
जवाब देंहटाएंओ चरवाहे, बहुत ही अच्छी रचना के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत की है आपने।
जवाब देंहटाएंकम शब्दों में बहुत कुछ जीवन का यथार्थ
जवाब देंहटाएंआभार
वाह ..नाथ पगहा बिना पशु कहाँ नियंत्रित होता है . छुट्टापन को संबल देने वाले उस 'चरवाहे ' का अंकुश चाहना ...कैसी अनुपम भक्ति है .
जवाब देंहटाएंप्रभावी अभिव्यक्ति …
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति ...
जवाब देंहटाएंसुन्दर भाव पूर्ण
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