*
जीवन भर रिश्ते ही तो जिये हैं !
इसी गोरखधंधे में घूमते ,
किससे ,कैसे ,कहाँ ,क्यों ,
सोचते- समझते ,
भूल गई
निकलने का रास्ता किधर है .
*
उत्सुकता भर कभी
झाँक लिया बाहर -
कहीं-कहीं वाली खिड़कियों से .
रहने-बसने को यही कुठरियाँ -
कुछ इधर ,कुछ उधर !
*
स्त्री है ,
उच्छृंखल न हो जाए .
धरे रहो जुआ संबंधों का !
निभाती रहे
तरह-तरह के रिश्तोंवाली ड्यूटी.
रहेगी व्यस्त-लस्त ,
और कुछ सोचे बिना
बिता देगी जीवन.
*
'तुम हो माता ,तुम बहन'
ज़ोरदार गुन-गौरव गान,
प्रशंसा का अवदान ,
बस ,अनुकूल रहे तक !
अन्यथा गा दो
अपना 'तिरिया-चरित्तर पुराण' !
*
स्त्री - एक साधन !
जरूरतें तुम्हारी ,तुम्हारा मन
निभायेगी हर तरह
जाएगी कहाँ,
है कहीं ठौर रहने को ?
*
सावधान !
छूट मत दो इतनी कि
अपने लिए जीने का ,
मुक्त धारा सी
अबाध बहने का ,
शौक पाल ले;
व्यक्ति के रूप में कहीं
स्वयं को न पहचान ले !
*
वाह बहुत सुंदर । एक लम्बे अर्से के बाद ।
जवाब देंहटाएंकोई जीता है रिश्ते जीवन भर
कोई कोई मरता भी है रिश्ते रिश्ते :)
वाह बहुत सुंदर । एक लम्बे अर्से के बाद ।
जवाब देंहटाएंकोई जीता है रिश्ते जीवन भर
कोई कोई मरता भी है रिश्ते रिश्ते :)
बहुत दिनों बाद आपको पढ़कर अच्छा लग रहा है..रिश्तों के नाम पर बंधन..पर जब आज रिश्ते टूटते जा रहे हैं, स्त्री हो या पुरुष अपने को एक अजीब सी दुविधा में पा रहे हैं, बंधन में भी जो मुक्तता को खोज ले वही सही अर्थों में जी पाता है.
जवाब देंहटाएंरिश्तों को समझना, सहेजना, निभाना अत्यंत दुरूह है आज के समय में. सुंदर प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों बाद आज कुछ लिखा है आपने और नारी मन की गांठें खोली हैं ... समाज के चेहरे को बेपर्दा किया है ... रिश्तों में जकड के बाँध रखने के प्रयास ये ओउरुष समाज सदियों से कर रहा है ... पर नारी आज ये वर्जनाएं तोड़ रही है ... तोडनी भी चाहियें ... पर रिश्ते का मोह तो फिर भी रहेगा ही ...
जवाब देंहटाएंआशा है आप स्वस्थ होंगी ... मेरी बहुत बहुत शुभकामनायें ...
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जवाब देंहटाएंअब मेरा स्वास्थ्य ठीक है नास्वा जी - शुभकामनाएं शिरोधार्य !
सच्चाई यही है इन बंधनों की !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर एवं मार्मिक पंक्तियाँ , आभार!
जवाब देंहटाएंबहुत ही सच्चे और मार्मिक उद्गार हैं . यही स्त्री की नियति रही है लेकिन अब दशाएं बदल रही हैं ( हालाँकि हर जगह नही ..)
जवाब देंहटाएंसुन्दर व सार्थक रचना ..
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...
रिश्तों को निभा पाना वाकई बहुत कठिन होता है।
जवाब देंहटाएंबहुत ही शानदार रचना की प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंshandar prastuti .....bhoga hua satya ....
जवाब देंहटाएंसुन्दर भावाभिव्यक्ति....रिश्ते ऐसा चक्रव्यूह रचते हैं जिसमे हम सब कभी न कभी उलझते ही हैं, अब रिश्तों के मायने बदलने लगे हैं...इस ब्लॉग पर पहले न पाने का अफ़सोस है....ब्लॉग पर टिप्पणी के लिए आभार आदरणीया
जवाब देंहटाएंNice poems
जवाब देंहटाएंगहन अभिव्यक्ति ... रिश्तों को निबाहने में ही तो नारी स्वयं की पहचान भूल जाती है .... आज जब खुद की पहचान बनाने का प्रयास होता तो ज़रूर है पर रिश्तों के बंधन पंखों को बाँध देते हैं और उड़ान सिमित ही रह जाती है ...
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