गंध-मुग्ध मृगी एक निज में बौराई,
विकल प्राण-मन अधीर भूली भरमाई .
कैसी उदंड गंध मंद नहीं होती,
जगती जो प्यास ,पल भर न चैन लेती .
*
भरमाती-भुलाती सभी भान डुबा लेती,
गुँजा रही प्राण मन एक धुन अनोखी
मंत्रित-सी भाग चली ,शूल-जाल घेरे ,
कौन दिशा ,कौन दशा, कौन पंथ हेरे !
*
रुक-रुक के टोहती ,ले घ्राण पवन झोंके
शायद वह उत्स बना केन्द्र यहीं होवे.
एक ही अबंध-गंध रह रह के टेरे
मोह-अंध दिशा-भूल फिर-फिर दे फेरे .
*
चले आ रहे अमंद झोंक कस्तूरी
कैसी ये खोज कभी हो न सके पूरी ,
चैन नहीं ,नींद नहीं, थिर न मन कहीं रे ,
कैसी उतावल पग पड़े नहीं धीरे .
*
एक अकुलाहट हर साँस-साँस घेरे
हरिनी री , जाने ना जो दुरंत घेरे .
ये अनंग गंध नहीं कहीं त्राण देगी ,
रूँधेगी बोध सभी, खींच प्राण लेगी !
*
गंध की तरंग किये सभी भान गूँगे
बावली री रुक जा, निज घ्राण कौन सूँघे .
पाने की चाह कभी हुई कहाँ पूरी,
सारी ही खोज रह जायगी अधूरी !
*
विकल प्राण-मन अधीर भूली भरमाई .
कैसी उदंड गंध मंद नहीं होती,
जगती जो प्यास ,पल भर न चैन लेती .
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भरमाती-भुलाती सभी भान डुबा लेती,
गुँजा रही प्राण मन एक धुन अनोखी
मंत्रित-सी भाग चली ,शूल-जाल घेरे ,
कौन दिशा ,कौन दशा, कौन पंथ हेरे !
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रुक-रुक के टोहती ,ले घ्राण पवन झोंके
शायद वह उत्स बना केन्द्र यहीं होवे.
एक ही अबंध-गंध रह रह के टेरे
मोह-अंध दिशा-भूल फिर-फिर दे फेरे .
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चले आ रहे अमंद झोंक कस्तूरी
कैसी ये खोज कभी हो न सके पूरी ,
चैन नहीं ,नींद नहीं, थिर न मन कहीं रे ,
कैसी उतावल पग पड़े नहीं धीरे .
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एक अकुलाहट हर साँस-साँस घेरे
हरिनी री , जाने ना जो दुरंत घेरे .
ये अनंग गंध नहीं कहीं त्राण देगी ,
रूँधेगी बोध सभी, खींच प्राण लेगी !
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गंध की तरंग किये सभी भान गूँगे
बावली री रुक जा, निज घ्राण कौन सूँघे .
पाने की चाह कभी हुई कहाँ पूरी,
सारी ही खोज रह जायगी अधूरी !
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आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 21 सितम्बर 2015 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआभारी हूँ,यशोदा जी !
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर
जवाब देंहटाएंआभारी हूँ ,शिवम् जी !
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर ....
जवाब देंहटाएंअधूरी खोज रखते हुए भी खोज निरंतर जारी रहती है ... ये सतत साधना है उस गंध की जो निज हो के भी नहीं जानी जाती ... इंसान भी तो खोजता है निरंतर संसार उस चीज को जो है उसके भीतर ... और मृग और इंसान में ये फर्क है की इंसान जानता है अपना सत्य पर फिर भी नहीं जान पाता ...
जवाब देंहटाएंआपकी रचनाओं की थाह पाना मुश्किल होता है कई बार ...
जवाब देंहटाएंअद्भुत प्रतिभा जी.
जवाब देंहटाएंसच में सभी भाग रहे हैं अपनी असीमित आकांक्षाओं की पूर्ती की दौड़ में जो कभी पूरी नहीं होती..बहुत प्रभावी और गहन अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंबहुत सार्थक आलेख ,सुन्दर व सार्थक रचना , मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार....
जवाब देंहटाएंशब्दों और भावों का सुंदर समन्वय....
जवाब देंहटाएंअद्भुत लेखनी है आपकी !! जीवन मार्गदर्शन है यह ....बहुत ही सुंदर !!
जवाब देंहटाएंएक साल पहले आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शुक्रवार 21 सितम्बर 2015 को लिंक की गई थी और आज एक साल बाद आपकी ये रचना फिर से शीर्षक रचना बन रही है"पांच लिंकों का आनन्द में" शुक्रवार 23 सितम्बर 2016 पर...... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंकिन शब्दों में व्यक्त करूँ अपनी कृतज्ञता यशोदा जी ,आपकी दृष्टि और भावन के लिये भी ,मैं सचमुच तय नहीं कर पा रही .
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