शुक्रवार, 10 अप्रैल 2015

ओ,चरवाहे


ओ,चरवाहे ! सँग-सँग मुझे लिए चल.
*

 घंटी गले बाँध दी ऐसी ,छन-छन भान जगाए  ,
तेरे आँक छपे माथे पर, बाकी कौन उपाए .
हेला दे, ले साथ .कहीं यों रह न जाउँ मैं एकल !

*
अंकुश बिन ,पगहे बिन, भरमा पशु तेरा मनमाना,
पहुँच वहीं तक गुज़र वहीं पर, तेरी घेर ठिकाना ,
 रेवड़ की गिनती में अपनी,तू ही हाँक लिए चल !

*
लौट रहे पग  घूल उड़ाते, संझा धुंध बिखेरे ,
अपने खूँटे गड़े जहाँ पर उसी छान में तेरे  .
 रे अहीर , इस छुट्टेपन को तू सँभाल, दे संबल !

 सँग-सँग मुझे लिए चल !
*

13 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
    शुभकामनाएँ।

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  2. जब वो अपना भान पल पल दिलाता रहता है तो एकल रह जाने की बात कहाँ रह जायेगी ... उसका संबल साथ रहेगा हमेशा ...
    एक और सुन्दर गहरा अर्थ लिए भावपूर्ण रचना ...

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  3. बहुत कम शब्दों में जिंदगी का यथार्थ गुनगुनाने लगता है. आपकी पोस्ट ऐसी ही होती है.

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  4. जब वह साथ है तो फिर अकेला रहने का क्या डर, वह अपने आप संभाल लेगा...बहुत प्रभावी अभिव्यक्ति..

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  5. ओ चरवाहे, बहुत ही अच्‍छी रचना के रूप में हमारे सामने प्रस्‍तुत की है आपने।

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  6. कम शब्दों में बहुत कुछ जीवन का यथार्थ
    आभार

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  7. वाह ..नाथ पगहा बिना पशु कहाँ नियंत्रित होता है . छुट्टापन को संबल देने वाले उस 'चरवाहे ' का अंकुश चाहना ...कैसी अनुपम भक्ति है .

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