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मरणमय देह लेकर मैं तुम्हारी अंशिका हूँ, माँ
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अनेकों नाम अनगिन रूप धर मैं ही प्रवर्धित हूँ
जहाँ तक क्रमित संततियाँ वहाँ तक मैं प्रवर्तित हूँ .
अनेकों पात्र रच-रच मैं जगत के मंच पर धरती ,
हुई अनुस्यूत सब में ही पृथक् अस्तित्व धर कर भी,
तुम्हारी लोल लीला की अनुकृत मंचिका हूँ, माँ !
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बना नारीत्व को गरुआ ,अधिक गुण-सूत्र दे तुमने ,
तुम्हारे भाव हैं सारे जगत के नाट्य प्रकरण में .
तुम्हारी दिव्यता के निदर्शन की भूमिका पा कर ,
तुम्हारी छाँह धरती पर पड़ी जिस रूप में आकर
उसी चिद्रूप की मैं मृण्मयी अनुरंजिका हूँ, माँ !
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तुम्हीं ने प्राण रज में ढाल, सिरजा है नया जीवन
रुधिर धारा बनी वात्सल्य पूरित पयस्विनि पावन.
विदित जगदंबिका हो तुम,परम लघु सृष्टि-तंत्री मैं
विसर्जित हो रही हर बार सर्जन के विहित क्रम में,
तुम्हारी रागपूरित चेतना की वंशिका हूँ, माँ .
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विदित जगदंबिका हो तुम,परम लघु सृष्टि-तंत्री मैं
विसर्जित हो रही हर बार सर्जन के विहित क्रम में,
तुम्हारी रागपूरित चेतना की वंशिका हूँ, माँ .
वाह बहुत सुन्दर। महिला दिवस की शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंनारी जीवन की गुरुता और वात्सल्यमयी ममता का दिग्दर्शन कराती सुंदर भावपूर्ण रचना..महिला दिवस पर आपको हार्दिक शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंनारी के ममतामयी रूप का जो आपने चित्रण किया है, वो अद्भुत है. अनंत है....
जवाब देंहटाएंबेहद ही खूबसूरत पोस्ट.
नारी मन के भाव और माँ के प्रति लिखे शब्द अध्बुध हैं ... सीधे दिल को छूते हैं .... वात्सल्य के भावों को बाखूबी लिखा है आपने ... नमन आपकी लेखनी को ...
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