गुरुवार, 25 सितंबर 2014

कुँआरी नदी - 4 .

1
कहाँ रही जुहिला ?
हेर हेर पथ थकी नर्मदा, पखवाड़ा बीता,
भूख-प्यास बिसराई सारा स्वाद हुआ तीता .
फिर न रुक सकी ,उठ कर चल दी बिना साज-सिंगारे ,
कुछ अनहोनी हुई न  हो - कैसे धीरज धारे .
2
पग अटपट पड़ रहे ,वेग से भर आई छाती .
जयसिंह पुर तक जा पहुँची वह पल-पल अकुलाती .
निकला बरहा ग्राम ,अरे वह, आया दशरथ घाट,
लहराता है दूर-दूर तक कितना चौड़ा पाट!
3
शोण भद्र के बाम पार्श्व में जुहिला की धारा 
समा गई थी वहीं , हहरता फेन भरा सारा .
चूड़ियन की कुछ टूट ,वस्त्र से झरे सुनहरे कण
 अपने सभी प्रसाधन वह पहचान गई तत्क्षण.
4
शैवालों में जा अटका था रेशम का फुँदना .
चोली के डोरी-बंधन में  सजता था कितना!
अरी जोहिला ,आई थी देने  मेरी पाती
ओह, समझ आया सब-कुछ. निकली कैसी घाती!
5
अरी, स्वयं-दूतिका, निलज्जा और शोण तुम भी ..
खोया संयम धीरज तुमने ,तोड़ दिया प्रण भी?
अब किसका विश्वास ,नहीं कोई जग में अपना,
जीवन भर की आस  भग्न हो गई कि ज्यों सपना!
6
प्रेम भरे हिय पर मारा , कैसा निर्मम  धक्का,
क्षार हुआ माधुर्य ,विराग जमा हो कर पक्का.
वह जो थी वह रही, शोण ,पर मुझे दुख  तुम पर-
समझे बैठी थी समर्थ  वचनों का पक्का नर !
7.
यह  संसार व्यर्थ सारा ,बेकार सभी नाते ,
प्रेम एक  धोखा ,शपथें हैं जिह्वा की घातें !
चलो जहाँ ,कोई न सखा , कोई न मिले  अपना
मन अब शान्ति खोजता केवल, बस एकान्त घना .
 8 .
पूरब दिशि से मोड़ लिया मुख ,घूम गई पच्छिम,
उसी बिन्दु से लौट पड़ी, आहत रेवा तत्क्षण .
जुहिला का सच जान, शोण को  भारी पछतावा ,
 दुःख-ग्लानि से पूर हृदय में समा गई चिन्ता .
 9 .
 पलट चली  रेवा घहरा कर शोण पुकार उठा -
' रुक जा री रेवा !
रूक जा रेवा , मत जा , मुझसे  दूर कहीं मत जा!
मेरी प्रीत पुकारे रेवा ,मुझसे रूठ  न जा!!
10 .
बालापन का नेह, बिसर पायेगा नहीं हिया.
बतला, तेरे बिन ये जीवन किस विध जाय जिया !  
दुख का ओर न छोर .नर्मदा मुझसे दूर न जा !
11.
मन से मन का नाता सच्चा  काहे जान न पाई ,
एक बार, बस एक भूल को छिमा न तू कर पाई.
एक तु ही रे मीत नरमदा ,ऐसे दे न सजा !
 12 .
मैं पछताता रहूँ और तुझको भी चैन कहाँ ,'
नेहगंध  में  काहे उसको बाँट दिया  हिस्सा?
जहर पिला दे  अपने हाथों, ऐसे मत तड़पा!
मुझसे दूर न जा  !'
13 .
रपटीली पथरीली राहें ,धार-धार  बिखराएँ,
टेर रही आवाज़ शोण की, कानों सुनी न जाए.
तन की सुध ना  मन में चैना ,पल-पल जल छलकाती ,
 रुके न रेवा ,सुध-बुध खोई ,कौन उसे समझाए !
14.
शोण गुहारे मेखल तक जा, टोको रे उसको ,
मान्य -स्वजन सेवक, संबंधी, कोई  दौड़ गहो!
पच्छिम दिसा विकट पथरीली, कोई सोचो रे!!
कोई  करो उपाय , अरे, रेवा को रोको  रे !!!
*
( क्रमशः)

8 टिप्‍पणियां:

  1. नर्मदा की पीड़ा और शोण का पश्चाताप...उफ़ कैसा तो मन हो आया है यह पढ़कर... नदियों के प्रति गहरी आत्मीयता जगाती सुंदर पोस्ट !

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  2. आपने नदियों को जिस तरह से इन्सान के रूप में दर्शाकर विभिन्न भावों को उकेरा है वह बहुत प्रभावशाली है। एक बेहतर काव्य संग्रह की ओर अग्रसर। बहुत अच्छा काम। स्वयं शून्य

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  3. माँ! मेरे विचार में इस कविता के मर्म को अपने अन्दर महसूस करना ही इसपर की जाने वाली सबसे सटीक प्रतिक्रिया या टिप्पणी होगी!

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  4. kitta pyara shabd chitr hai. udaasi aur dukh ki syaahi to ghuli huihai hi..parantu kuch kuch jaghein to ateev kaavya saundary se khili huin hain. mujhe wo resham ke fundne ka atakne wala pad bahut bahut achha laga. pata nahin main apne poore jeewan me aisa kuch vichaar bhi paati ya nahin..!
    reh reh kar prashn mann me uthte rahe. johila ke manobhaav shayad agle ank me padhne ko milenge.
    Maa Narmada ka krodh samajh aata hai. mann me ek baar ko ye bhi aaya ki wo kshama kar detin shon aur Johila ko..shayad samay ke saath maa rewa ke paricartit manobhav bhi jaanne milein aapki hi kavita me...kewal anumaan laga rahi hoon. shayad is pauranik katah me maanvikaran aur Narmada ji k maata swaroop ko..ek divya chhavi wali eeshwariya shakti ko aapas me mila de rahi hoon..:)
    kahin kahin par aansu bhi le aayi kavita. lekin chah kar bhi shon par krodh nahin aaya..jaane kyun? wo pehle se hi lajjit aur glanihatt hai shayad isliye.
    main prateeksha akrungi Johila kee man:sthiti ki.

    har pauraanik katha..kiwdanti ka ek vigyanik pehloo avashya hota hi hai...is katha me bhi hoga kya ...ye bhi dhundhne ka janat kar rahi hoon.

    baharhaal...
    dher saari badhayi aur aabhaar is post ke liye Pratibha ji.......
    abki jaungi maa narmada tak to apki kavita anayaas yaad aati rahegi :'D

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  5. अपने समाज में नारी और नदियाँ वैसे भी संवेदनशीलता लिए होती है ... और आपके शब्दों से उसको आकार मिल रहा है ...

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  6. शकुन्तला बहादुर28 सितंबर 2014 को 12:43 pm बजे

    रेवा के रूप में नारी मन की सुकोमल वृत्तियों की उद्भावना और उनकी
    सुललित अभिव्यक्ति मन को छू लेती है । शोण के पुरुष-मन की प्रतिक्रिया
    भी सहज स्वाभाविक है । रेवा में नारी की अस्मिता के दर्शन होते हैं़ । सुन्दर
    सरस शब्दों और छंदों की गीतात्मकता पर मन मुग्ध हो जाता है । वाह ! कितनी सुन्दर काव्य-रचना है !!

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  7. टिप्पणी लिखना मात्र शीश टेकने की प्रक्रिया है, प्रतिक्रिया देने की न तो योग्यता है आवश्यकता।

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