*
( माँ-भारती अपने पुत्रों से भिक्षा माँग रही है: समय का फेर !)
रीत रहा शब्द कोश ,
छीजता भंडार ,
बाधित स्वर ,विकल बोल
जीर्ण तार-तार .
भास्वरता धुंध घिरी,
दुर्बल पुकार.
नमित नयन आर्द्र विकल,
याचिता हो द्वार-
'देहि भिक्षां ,
पुत्र ,भिक्षां देहि !'
*
डूब रहा काल के प्रवाह में अनंत कोश ,
शब्दों के साथ लुप्त होते
सामर्थ्य-बोध.
ज्ञान-अभिज्ञान युक्तिहीन ,
अव्यक्त हो विलीन.
देखती अनिष्ट वाङ्मयी ,शब्दहीन.
दारुण व्यथा पुकार -
भिक्षां देहि, पुत्र !
देहि में भिक्षां'
*
अतुल सामर्थ्य विगत,
शेष बस ह्रास !
तेजस्विता की आग ,
जमी हुई राख
गौरव और गरिमा उपहास
बीत रही जननी,तुम्हारी ,मैं भारती ,
खड़ी यहाँ व्याकुल हताश
बार-बार कर पुकार -
'देहि भिक्षां,
पुत्र,भिक्षां देहि'!
*
शब्द-कोश संचित ये
सदियों ने ढाले ,
ऐसे न झिड़को ,व्यवहार से निकालो.
काल का प्रवाह निगल जाएगा
अस्मिता के व्यंजक, अपार अर्थ ,भाव दीप्त,
आदि से समाज-बिंब
जिसमें सँवारे.
मान-मूल्य सारे सँजोये, ये महाअर्घ
सिरधर ,स्वीकारो !
रहे अक्षुण्ण कोश ,भाष् हो अशेष -
देवि भारती पुकारे
'भिक्षां देहि !
पुत्र ,देहि भिक्षां !'
*
फैलाये झोली , कोटि पुत्रों की माता ,
देह दुर्बल ,मलीन भारती निहार रही.
बार-बार करुण टेर -
'देहि भिक्षां ,
पुत्र, भिक्षां देहि !'
*
( माँ-भारती अपने पुत्रों से भिक्षा माँग रही है: समय का फेर !)
रीत रहा शब्द कोश ,
छीजता भंडार ,
बाधित स्वर ,विकल बोल
जीर्ण तार-तार .
भास्वरता धुंध घिरी,
दुर्बल पुकार.
नमित नयन आर्द्र विकल,
याचिता हो द्वार-
'देहि भिक्षां ,
पुत्र ,भिक्षां देहि !'
*
डूब रहा काल के प्रवाह में अनंत कोश ,
शब्दों के साथ लुप्त होते
सामर्थ्य-बोध.
ज्ञान-अभिज्ञान युक्तिहीन ,
अव्यक्त हो विलीन.
देखती अनिष्ट वाङ्मयी ,शब्दहीन.
दारुण व्यथा पुकार -
भिक्षां देहि, पुत्र !
देहि में भिक्षां'
*
अतुल सामर्थ्य विगत,
शेष बस ह्रास !
तेजस्विता की आग ,
जमी हुई राख
गौरव और गरिमा उपहास
बीत रही जननी,तुम्हारी ,मैं भारती ,
खड़ी यहाँ व्याकुल हताश
बार-बार कर पुकार -
'देहि भिक्षां,
पुत्र,भिक्षां देहि'!
*
शब्द-कोश संचित ये
सदियों ने ढाले ,
ऐसे न झिड़को ,व्यवहार से निकालो.
काल का प्रवाह निगल जाएगा
अस्मिता के व्यंजक, अपार अर्थ ,भाव दीप्त,
आदि से समाज-बिंब
जिसमें सँवारे.
मान-मूल्य सारे सँजोये, ये महाअर्घ
सिरधर ,स्वीकारो !
रहे अक्षुण्ण कोश ,भाष् हो अशेष -
देवि भारती पुकारे
'भिक्षां देहि !
पुत्र ,देहि भिक्षां !'
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फैलाये झोली , कोटि पुत्रों की माता ,
देह दुर्बल ,मलीन भारती निहार रही.
बार-बार करुण टेर -
'देहि भिक्षां ,
पुत्र, भिक्षां देहि !'
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दारुण व्यथा पुकार -
जवाब देंहटाएंभिक्षां देहि, पुत्र !
देहि में भिक्षां'.... भरा है अपना भण्डार,पर दूसरे भण्डार के आगे लगी है कतार...कोई तो सुने यह दारुण पुकार
कुछ नहीं डूबेगा, भागीरथ गंगा लेकर आयेंगे।
जवाब देंहटाएंदारुण व्यथा पुकार -
जवाब देंहटाएंभिक्षां देहि, पुत्र !
देहि में भिक्षां'...
इस दयनीय हालत के लिए उसके पुत्र ही जिम्मेवार हैं ... अगर थोरा भी सामान होता उनमें तो माँ को ऐसी नौबत ही क्यों आती ...
अभी भी समय है हिंदी के पुत्र जागो ...
झकझोरती है आपकी रचना ..
kais waqt aa gaya hai .
जवाब देंहटाएंस्वयं में सक्षम है भारती , लेकिन जब उसके पुत्र ही अनादर करें तो क्या कहा जा सकता है .... काश यह करूँ पुकार सबके कानों तक पहुंचे और साथ ही चिंतन भी हो ...
जवाब देंहटाएंबीत रही जननी,तुम्हारी ,मैं भारती ,
जवाब देंहटाएंखड़ी यहाँ व्याकुल हताश
बार-बार कर पुकार -
'देहि भिक्षां,
पुत्र,भिक्षां देहि'!
माता जी को प्रणाम .क्या कहूँ आपके प्रेम को साहित्य का यूँ ही सम्मान आपके ह्रदय में बना रहे जो सदा हमारा मार्गदर्शन करता रहे .
माँ भारती सबसे अधिक सक्षम है, इतनी प्राचीन काल से अस्तित्व में हें कि उनके बेटे और बेटियाँ उनके अस्तित्व को कभी क्षीण नहीं होने देंगे. संकल्प तो हमको ही लेना है और लेते हें कि माँ भारती विश्व के पटल पर अपने परचम को लहराएगी.
जवाब देंहटाएंबहुत ही भावपूर्ण अभिव्यक्ति..
जवाब देंहटाएंकाश यह करूँ पुकार सबके कानों तक पहुंचे और साथ ही चिंतन भी हो ...तब कुछ बात बने
जवाब देंहटाएंमाँ भारती की यह पुकार अत्यन्त कारुणिक और मार्मिक है।अपने उत्कर्ष के प्रति उदासीन या विमुख पुत्रों के लिए जागृति का संदेश लिये एक उद्बोधन भी है।ये ह्रास चिन्तनीय है।सतत प्रयास की आवश्यकता है।
जवाब देंहटाएंमानस-मंथन करती सुन्दर प्रस्तुति के लिए साधुवाद!!
बहुत ही सशक्त और करुण पुकार ......गहन रचना !
जवाब देंहटाएंबहुत गहन अभिव्यक्ति ...माँ की पुकार सुनना ही है ....अपना कर्तव्य निभाना ही है ...!!प्रण लेना ही है ...!!
जवाब देंहटाएंसार्थक सृजन ...!!
abhar ..!!
मन भर आया।
जवाब देंहटाएंमैं जब भी यह कविता पढता हूँ, आत्मा से आपका आभार व्यक्त होता है।
जवाब देंहटाएंइतनी ज़रूरी, गहरी और पैनी कविता पढ़ के हृदय भीतर तक काँप गया, प्रतिभाजी! ... सादर शार
जवाब देंहटाएंमार्मिक हृदयस्पर्शी प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंआपकी कलम को नमन.
... नि:शब्द..
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