*
कहाँ जाये बिचारे जीव ये इंसान के मारे ,
*
न दाना है न पानी है ,न छोड़ीं डालियाँ तरु की ,
बना कर नीड़ नन्हा-सा , शरण पा लें निशा भर की .
कहाँ है चाँदनी अब तो समझ में ही नहीं आता ,
कि नकली रोशनी ने रात-दिन का बोध ले डाला ,
गगन हो या कि जल-थल हर जगह तांडव मचाये है
भरा है त्रास-आशंका सभी आतंक के मारे !
*
धरा की माटियों में अब न उगती वे हरी घासे ,
जहाँ किलकारियाँ भर मगन मन हो लोट हम जाते
सिमटते जा रहे हर ओर क्षितिजों के खुले आँगन
भ्रमित सा हो गया ऋतु-क्रम व्यवस्था हीन आवर्तन,
दिशा में धुंध अंधा सा हवाओं में कसैलापन ,
वहम पाले कि मैं सब-कुछ, अहम ज्यों तोड़ ले तारे
*
लहरता नदी का जल कर दिया तेज़ाब के जैसा .
न बुझती प्यास ,पीते ही हलक तक कंठ कड़ुआता
सुखे जल-स्रोत ,झरने ताप से भर रुक गये थक कर ,
शिखऱ पर हिम न ,सूखे भूधरों के चिर-द्रवित अंतर
धरा की कोख को ऐसे उलीचा बेरहम हो कर
न जाने किस लिये ये विश्व-द्रोही बन गया है रे !
*
यही सच है कि तुमने कर दिया अभिशप्त यह भूतल
उड़ाकर धूल सब पर छा रहे हैं नाश के कुछ पल
मिली थी श्रेष्ठता बन जाय सबका बंधु-संरक्षक
हुआ पर भ्रष्ट ,छल-बल से बना बैठा वही भक्षक
जियें कैसे ,कहाँ जायें विकल, कैसे भरें जीवन ,
उसी विधि के खिलौने जीव सारे प्राण-तन धारे !
*
मरेगा ख़ुद , लिये जाता अभी हर तत्व से पंगा ,
लिये भस्मासुरी दुर्बुद्धि अपनी झोंक में अंधा .
धरा का फाड़ फेंका नेह से भीना हरा आँचल ,
उड़ाये रंग सारे दृष्य-जग सारा किया धूमिल
मनुज की जात पहुँची जहाँ भी ,दूषण वहीं पहुँचा
भविष्यों तक बिखेरा विष ,तना है दर्प के मारे !
*
सचल ये चित्र हरियल मिट्ठुओं का पाठ रट लेना
बिरछ की डालियों पर पंछियों का नीड़ रख देना,
इशारा दे हिलाते शाख ,तरु का और झुक आना ,
ग्रहण कर नेह कर धर ,वल्लरी का बढ़ लिपट जाना ,
अनेकों रूप रंगों से सजी जो चल रही गाथा ,
प्रकृति की रम्य रचना के पलटते पृष्ठ हैं सारे ,
*
बृहद् यह ग्रंथ लिक्खा जा रहा अविराम छंदों में ,
इसे तड़ो-मरोड़ो मत मनुज रे, विषम बंधों में .
उदधि-तल से उठी उद्दाम लहरें जब बिखर जायें
तटों की बालुओं पर शंख-सीपें भेंट धर जायें ,
समय के पृष्ठ पर हम लिख चलें कुछ अर्थमय अक्षर
छिड़क संकल्प- जल नैवेद्य ,जो विश्वात्म स्वीकारे !
*
कहाँ जाये बिचारे जीव ये इंसान के मारे ,
*
न दाना है न पानी है ,न छोड़ीं डालियाँ तरु की ,
बना कर नीड़ नन्हा-सा , शरण पा लें निशा भर की .
कहाँ है चाँदनी अब तो समझ में ही नहीं आता ,
कि नकली रोशनी ने रात-दिन का बोध ले डाला ,
गगन हो या कि जल-थल हर जगह तांडव मचाये है
भरा है त्रास-आशंका सभी आतंक के मारे !
*
धरा की माटियों में अब न उगती वे हरी घासे ,
जहाँ किलकारियाँ भर मगन मन हो लोट हम जाते
सिमटते जा रहे हर ओर क्षितिजों के खुले आँगन
भ्रमित सा हो गया ऋतु-क्रम व्यवस्था हीन आवर्तन,
दिशा में धुंध अंधा सा हवाओं में कसैलापन ,
वहम पाले कि मैं सब-कुछ, अहम ज्यों तोड़ ले तारे
*
लहरता नदी का जल कर दिया तेज़ाब के जैसा .
न बुझती प्यास ,पीते ही हलक तक कंठ कड़ुआता
सुखे जल-स्रोत ,झरने ताप से भर रुक गये थक कर ,
शिखऱ पर हिम न ,सूखे भूधरों के चिर-द्रवित अंतर
धरा की कोख को ऐसे उलीचा बेरहम हो कर
न जाने किस लिये ये विश्व-द्रोही बन गया है रे !
*
यही सच है कि तुमने कर दिया अभिशप्त यह भूतल
उड़ाकर धूल सब पर छा रहे हैं नाश के कुछ पल
मिली थी श्रेष्ठता बन जाय सबका बंधु-संरक्षक
हुआ पर भ्रष्ट ,छल-बल से बना बैठा वही भक्षक
जियें कैसे ,कहाँ जायें विकल, कैसे भरें जीवन ,
उसी विधि के खिलौने जीव सारे प्राण-तन धारे !
*
मरेगा ख़ुद , लिये जाता अभी हर तत्व से पंगा ,
लिये भस्मासुरी दुर्बुद्धि अपनी झोंक में अंधा .
धरा का फाड़ फेंका नेह से भीना हरा आँचल ,
उड़ाये रंग सारे दृष्य-जग सारा किया धूमिल
मनुज की जात पहुँची जहाँ भी ,दूषण वहीं पहुँचा
भविष्यों तक बिखेरा विष ,तना है दर्प के मारे !
*
सचल ये चित्र हरियल मिट्ठुओं का पाठ रट लेना
बिरछ की डालियों पर पंछियों का नीड़ रख देना,
इशारा दे हिलाते शाख ,तरु का और झुक आना ,
ग्रहण कर नेह कर धर ,वल्लरी का बढ़ लिपट जाना ,
अनेकों रूप रंगों से सजी जो चल रही गाथा ,
प्रकृति की रम्य रचना के पलटते पृष्ठ हैं सारे ,
*
बृहद् यह ग्रंथ लिक्खा जा रहा अविराम छंदों में ,
इसे तड़ो-मरोड़ो मत मनुज रे, विषम बंधों में .
उदधि-तल से उठी उद्दाम लहरें जब बिखर जायें
तटों की बालुओं पर शंख-सीपें भेंट धर जायें ,
समय के पृष्ठ पर हम लिख चलें कुछ अर्थमय अक्षर
छिड़क संकल्प- जल नैवेद्य ,जो विश्वात्म स्वीकारे !
*
सच कहा आपने। अपनी दुनिया तो बिगाड़ने वाले अन्य जीवों का भाग भी उजाड़ रहे हैं।
जवाब देंहटाएं@समय के पृष्ठ पर हम लिख चलें कुछ अर्थमय अक्षर
छिड़क संकल्प- जल नैवेद्य ,जो विश्वात्म स्वीकारे !
- ऐसा ही हो! हममें इतनी समझ और क्षमता आये!
बृहद् यह ग्रंथ लिक्खा जा रहा अविराम छंदों में ,
जवाब देंहटाएंइसे तड़ो-मरोड़ो मत मनुज रे, विषम बंधों में .
आपका ये शंख शिपें मन को मोह गया .जीवन की जीवंत बातें
माता जी को चरण स्पर्श
समय के पृष्ठ पर हम लिख चलें कुछ अर्थमय अक्षर
जवाब देंहटाएंछिड़क संकल्प- जल नैवेद्य ,जो विश्वात्म स्वीकारे !
http://anupamashares.blogspot.in/
बहुत प्रबल रचना है ....सच मे अपने ही कर्मों को देख कर मन कितना दुखी होता है .....ऐसे ही भाव मन मे उमड़ते हैं जिनको आपने सशक्त रूप दिया है ...नमन आपकी लेखनी को ....!!
जगत के निश्चित क्रम से छेड़छाड़ करता मनुज अपना ही अहित कर बैठेगा..
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर सशक्त तस्वीर उकेरी है आपने मनुष्य की अतिशयोक्ति की......नत मस्तक हूँ आपकी रचना के आगे...!!!!
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया रचना ...आभार
जवाब देंहटाएंगहन भाव लिए उत्कृष्ट लेखन ... आभार
जवाब देंहटाएंकल 04/07/2012 को आपकी इस पोस्ट को नयी पुरानी हलचल पर लिंक किया जा रहा हैं.
आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!
'' जुलाई का महीना ''
प्रकृति के नियमों से छेड़छाड़ कर मनुष्य अपना ही अहित कररहा है ...बहुत भावपूर्ण सशक्त रचना..शिप्रा जी..आभार..
जवाब देंहटाएंकहाँ जाएँ ये जीव इंसान के मारे ..... मनुष्य खुद ही पूरी प्रकृति को नष्ट करने पर तुला है .... स्वार्थ के आगे कोई सीख अच्छी नहीं लगती ....
जवाब देंहटाएंसार्थक संदेश देती सुंदर रचना
भुगतेगा अपना ही किया मनुष्य ..और भुगत ही रहा है पर अक्ल नहीं आती.
जवाब देंहटाएंखूबसूरती से सार्थक सन्देश देती है आपकी रचना.
उत्कृष्ट लेखन
जवाब देंहटाएंधरा की माटियों में अब न उगती वे हरी घासे ,
जवाब देंहटाएंजहाँ किलकारियाँ भर मगन मन हो लोट हम जाते
सिमटते जा रहे हर ओर क्षितिजों के खुले आँगन
भ्रमित सा हो गया ऋतु-क्रम व्यवस्था हीन आवर्तन,
दिशा में धुंध अंधा सा हवाओं में कसैलापन ,
वहम पाले कि मैं सब-कुछ, अहम ज्यों तोड़ ले तारे ...
Awesome creation Pratibha ji.
.
बहुत सुन्दर और सशक्त रचना....
जवाब देंहटाएंआपका आभार.
सादर
अनु
बृहद् यह ग्रंथ लिक्खा जा रहा अविराम छंदों में ,
जवाब देंहटाएंइसे तड़ो-मरोड़ो मत मनुज रे, विषम बंधों में .
मनुज कब मानता है
ये बिल्कुच सच है ... जैसे जैसे इंसान तरक्की कर रहा है ... दूसरे जीव ओना अस्तित्व तक खो रहे हैं ... विपुप्त हो रहे हैं इंसान की भूख के सामने ...
जवाब देंहटाएंगगन हो या कि जल-थल हर जगह तांडव मचाये है
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उम्दा प्रस्तुति के लिए आभार
प्रवरसेन की नगरी प्रवरपुर की कथा
♥ आपके ब्लॉग़ की चर्चा ब्लॉग4वार्ता पर ! ♥
♥ जीवन के रंग संग कुछ तूफ़ां, बेचैन हवाएं ♥
♥शुभकामनाएं♥
ब्लॉ.ललित शर्मा
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बृहद् यह ग्रंथ लिक्खा जा रहा अविराम छंदों में ,
जवाब देंहटाएंइसे तड़ो-मरोड़ो मत मनुज रे, विषम बंधों में .
जो काव्य रचा जा रहा है उसे तोड़ने मरोड़ने की जगह पढ़ने और गढ़ने का आनंद लेना है।
आपकी हर रचना अमूल्य है ...
जवाब देंहटाएंप्रणाम !
विलम्ब से पढ़ पाने का खेद है।संपूर्ण जीव-जगत के प्रति प्रतिभा जी
जवाब देंहटाएंके संवेदनशील मन के सुकोमल मानवीय भावों की अद्भुत अभिव्यक्ति अनायास ही मन की गहराइयों तक पहुँच जाती है।इसे पढ़कर चार पंक्तियाँ स्मरण हो आईं-
"मानव ने पाई देश-काल पर जय निश्चय,
मानव के पास नहीं मानव का आज हृदय,
चाहिये विश्व को आज भाव का नवोन्मेष,
मानव-उर में मानवता का फिर हो प्रवेश।।"
इस सुन्दर रचना के लिये साधुवाद!!
मरेगा ख़ुद , लिये जाता अभी हर तत्व से पंगा ,
जवाब देंहटाएंलिये भस्मासुरी दुर्बुद्धि अपनी झोंक में अंधा .
धरा का फाड़ फेंका नेह से भीना हरा आँचल ,
उड़ाये रंग सारे दृष्य-जग सारा किया धूमि.ल
मनुज की जात पहुँची जहाँ भी ,दूषण वहीं पहुँचा
भविष्यों तक बिखेरा विष ,तना है दर्प के मारे !
बहुत अच्छे से आपने प्रदुषण के विष का यथार्थ
चित्रण किया है.
आपके ब्लॉग पर देर दे आ पाया,इसके लिए क्षमा
चाहता हूँ.
समय मिलने पर मेरे ब्लॉग पर आईएगा,प्रतिभा जी.
मैं कहूँगी सच को बताती सच्ची पंक्तियाँ ...महज एक कविता नही सत्य और सही रह दिखाती सोच ..धन्यवाद
जवाब देंहटाएंअद्भुत अभिव्यक्ति -मनुज के उत्पाती पाँव से है कांपती अब धरा ......
जवाब देंहटाएंएक यादगार रचना !
समय के पृष्ठ पर हम लिख चलें कुछ अर्थमय अक्षर
जवाब देंहटाएंछिड़क संकल्प- जल नैवेद्य ,जो विश्वात्म स्वीकारे !
उत्तम भावों से परिपूर्ण उत्कृष्ट रचना।
साधु!
जवाब देंहटाएंपूरी कविता सुविचारों की स्थापना करती है/करना चाहती है।
बृहद् यह ग्रंथ लिक्खा जा रहा अविराम छंदों में ,
जवाब देंहटाएंइसे तड़ो-मरोड़ो मत मनुज रे, विषम बंधों में .
उदधि-तल से उठी उद्दाम लहरें जब बिखर जायें
तटों की बालुओं पर शंख-सीपें भेंट धर जायें ,
समय के पृष्ठ पर हम लिख चलें कुछ अर्थमय अक्षर
छिड़क संकल्प- जल नैवेद्य,जो विश्वात्म स्वीकारे!"
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति। मेरे पोस्ट पर आप आमंत्रित हैं। धन्यवाद।
शंख-सीपों के माध्यम से आपने जो मानवीय संवेदना को जगाने का काम किया है, वह अद्भुत है।
जवाब देंहटाएं...साधु!साधु!साधु!
बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंsahi bat hai par koi samajhna hi nhi chahta hai.....
जवाब देंहटाएंबृहद् यह ग्रंथ लिक्खा जा रहा अविराम छंदों में ,
जवाब देंहटाएंइसे तड़ो-मरोड़ो मत मनुज रे, विषम बंधों में .
उदधि-तल से उठी उद्दाम लहरें जब बिखर जायें
तटों की बालुओं पर शंख-सीपें भेंट धर जायें ,
समय के पृष्ठ पर हम लिख चलें कुछ अर्थमय अक्षर
छिड़क संकल्प- जल नैवेद्य ,जो विश्वात्म स्वीकारे !
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behtrin abhivykti..
पूरी दुनिया ही उलट पुलट हो रही. सच है हम मनुष्यों द्वारा ही खिलवाड़ हो रहा , कहाँ जाए ये बेचारे जीव. सारगर्भित पंक्तियाँ...
जवाब देंहटाएंअनेकों रूप रंगों से सजी जो चल रही गाथा ,
प्रकृति की रम्य रचना के पलटते पृष्ठ हैं सारे ,
शुभकामनाएँ.
कलयुग का ग्रन्थ ... आविष्कार और प्रदूषण के मध्य फंस गया है
जवाब देंहटाएंसिमटते जा रहे हर ओर क्षितिजों के खुले आँगन
जवाब देंहटाएंभ्रमित सा हो गया ऋतु-क्रम व्यवस्था हीन आवर्तन,
दिशा में धुंध अंधा सा हवाओं में कसैलापन ,
यही हो रहा है ।
बेहद सुंदर सच्ची और सामयिक प्रस्तुति ।
प्रकृति संग हो रहे खिलवाड़ को प्रवाहमयी रचना के माध्यम से जीवंत कर दिया. ऐसी सशक्त रचनाओं के जरिये एक आंदोलन होना चाहिये. नि:संदेह अर्थ मय अक्षरों से बनी सार्थक रचना.
जवाब देंहटाएंसमय के पृष्ठ पर हम लिख चलें कुछ अर्थमय अक्षर
जवाब देंहटाएंछिड़क संकल्प- जल नैवेद्य ,जो विश्वात्म स्वीकारे ..
Awesome creation..
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अनुपम रचना ..मन के अंदर तक पहुची
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति । मेरे नए पोस्ट छाते का सफरनामा पर आपका ङार्दिक अभिनंदन है । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंvery beautifully written.. keep writing...
जवाब देंहटाएंमन को छू गये आपके भाव।
जवाब देंहटाएंहार्दिक शुभकामनाएं।
............
कितनी बदल रही है हिन्दी !
sundar prastuti...swatantrata diwas ki shubhkamnayen..
जवाब देंहटाएंवाह... उम्दा, बेहतरीन अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...
जवाब देंहटाएं