शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

तुम खेलो, युधिष्ठिर !

फड़ बिछी है ,
चल रहा है दौर ,
तुम खेलो, युधिष्ठिर !
*
खेल के पाँसे किसी के हाथ 
साध कर के  फेंकता हर बार ,
और तुम भी एक हो ,
जिसको यहाँ चुन कर बिठाया ,  
 चाल चलने को किया तैयार .
कौन बोलेगा तुम्हारे सामने ,
सिर झुका बैठे हुए  चुपचाप सारे बंधु 
तुम पर कौन सा प्रतिबंध !
तुम खेलो .युधिष्ठिर !
*
हो रहे उपकृत हिलाते शीष ,
मोह में आविष्ट हो  धृतराष्ट्र .
बहुत अपनापन  बहुत अधिकार 
पा रहा  आया हुआ मेहमान .
आज हो कर मान्य सर्वप्रधान 
सभी पाँसे हाथ में रख  ,
 खिलाता जो खेल ,
तुम खेलो, युठिष्ठिर !
*
दाँव  रख अपने सभी संबंध,
फिर लगा दो बोल  !
खोट तुममें कहाँ ,
तुम  गंभीर ,और ,सुधीर .
मौन रहना हो गया वरदान !
सभी कुछ आसान ,
मत बोलो युधिष्ठिर .
शान्ति से बैठे रहो ,
खेलो, युधिष्ठिर !
*
बाँट में  जो मिली  अपने आप ,
कौन सा तुम
 जीत लाये थे दिखा  पुरुषार्थ .
चीज सबकी ,तुम्हें क्या संताप ,
रहे या जाये किसी के पास !
जो  सुझाये वह,  लगा दो दाँव,
तुम खेलो ,युधिष्ठिर !
*
यही है  अभिसंधि का प्रारूप, 
भाग पाओ यह नहीं वह द्यूत . 
तुम निभाओ  रीति-नीति आचार 
 घिर गये हो  ,
तुम स्वयं लाचार !
फेंकता पाँसे किसी का हाथ ,
स्वीकारो युधिष्ठिर !
फड़ बिछी है ,
चल रहा है दौर ,
तुम खेलो, युधिष्ठिर !
*

27 टिप्‍पणियां:

  1. तुम स्वयं लाचार !
    फेंकता पाँसे किसी का हाथ ,
    स्वीकारो युधिष्ठिर !
    फड़ बिछी है ,
    चल रहा है दौर ,
    तुम खेलो, युधिष्ठिर !... बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति..आभार

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  2. बहुत सुन्दर और सशक्त रचना....
    मन को कचोटती हुई...
    सादर
    अनु

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  3. बहुत सुंदर और सार्थक रचना. युधिष्ठिर का कृत्य आज भी अक्षम्य है और रहेगा. यही कहें न कि धर्म और न्याय के लिए एक मिसाल वह छल और प्रपंच के आगे हार गए. युग और काल के तदन्तर अब ये खेल बढ़ गया है युधिष्ठिर भले ही न हों लेकिन जो हें वे हारे हुए खिलाडी की तरह अपमानित हो रहे हें.

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  4. आपकी विस्तृत सोच और उसकी व्याख्या - अनुपम

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  5. एक गहन सोच को प्रस्तुत करती सुन्दर प्रस्तुति।

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  6. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    --
    इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (19-08-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ!

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  7. अतिसुन्दर और सशक्त कविता. प्रतिभाजी, आपको पढना मेरे लिए एक यात्रा के सामान है. इस बार एक नया शब्द सीखा 'फड़', उसके लिए धन्यवाद.
    आपकी कवितायेँ जोर-जोर से पढ़ती हूँ, अभी आपको टेप कर के भेजी है ये.
    दो-तीन बार पढ़ी तब जा के संतुष्टि मिली.
    कविता के भाव से भली भांति परिचित हूँ...आपके अंतर से उठे हैं इसलिए इतनी सशक्त अभिव्यक्ति हो सकी है.
    सम्पूर्ण कविता बहुत कुछ कहती है, निष्पक्ष आइना सा दिखाती है, परन्तु कुछ पंक्तियाँ तो एकदम हृदय में समां जाती हैं.
    दर्द होता है प्रतिभाजी!
    "कौन बोलेगा तुम्हारे सामने ,
    सिर झुका बैठे हुए चुपचाप सारे बंधु
    तुम पर कौन सा प्रतिबंध !"

    "बहुत अपनापन बहुत अधिकार
    पा रहा आया हुआ मेहमान"
    "खोट तुममें कहाँ ,
    तुम गंभीर ,और ,सुधीर .
    मौन रहना हो गया वरदान !
    सभी कुछ आसान ,
    मत बोलो युधिष्ठिर .
    शान्ति से बैठे रहो ,
    खेलो, युधिष्ठिर !"
    *
    "बाँट में जो मिली अपने आप ,
    कौन सा तुम
    जीत लाये थे दिखा पुरुषार्थ .
    चीज सबकी ,तुम्हें क्या संताप ,
    रहे या जाये किसी के पास !
    जो सुझाये वह, लगा दो दाँव,
    तुम खेलो ,युधिष्ठिर !"
    *
    कितनी पैनी पंक्तियाँ हैं ये !
    आभार आपका- सादर शार

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    उत्तर
    1. शार,
      दोनों बार का पाठ आरोह-अवरोह से पूर्ण कथ्य को व्यंजित करता सा,पर दूसरी बारवाला मुझे अधिक प्रभावी लगा.और आईना!विद्यमान स्थितियों का,सही कह रही हो .

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  8. भाग पाओ नहीं यह द्युत !
    सब चक्रव्यूह की घूर्णन दिशा में ही चल निकले थे !

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  9. बाँट में जो मिली अपने आप ,
    कौन सा तुम
    जीत लाये थे दिखा पुरुषार्थ .
    चीज सबकी ,तुम्हें क्या संताप ,
    रहे या जाये किसी के पास !
    जो सुझाये वह, लगा दो दाँव,
    तुम खेलो ,युधिष्ठिर !

    सर्वप्रथम माता जी को प्रणाम .खुबसूरत विचारों से भरी लरियां चक्रव्यूह से कोई नहीं निकल पाया

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  10. युधिष्ठिर एक ऐसा खेल खेल रहा है, जो महाभारत के सृजन की तैयारी करेगा।

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  11. सही बात है, युधिष्ठिर को वैसे भी खेलना है - किसी की नहीं ही सुननी है।

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  12. कह रही कविता अरे! अब जागो युधिष्ठिर!!

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  13. यही है अभिसंधि का प्रारूप,
    भाग पाओ यह नहीं वह द्यूत .
    तुम निभाओ रीति-नीति आचार
    घिर गये हो ,
    तुम स्वयं लाचार !
    फेंकता पाँसे किसी का हाथ ,
    स्वीकारो युधिष्ठिर !

    युधिष्ठिर पर तंज़ कसती सशक्त रचना ।

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  14. युधिष्ठिर हर जगह मिलते हैं, इनकी बहुतायत है अब !
    शुभकामनायें आपको !

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  15. कविता के लिए क्या कहूँ प्रतिभा जी? मुझे हमेशा अपने हृदय के निकट प्रतीत होती है ..सो ये भी हुई..या यूँ कहिये इस बार हृदय बिंध गया।बिलुकल अलग ही रूप में और भाव में ग्रहण किया भावार्थ।
    ''बाँट में जो मिली...जो सुझाये वह,लगा दो दाँव''
    यहाँ आकर सहज ही मन में अपार पीड़ा उभर आई।विडम्बना ये है कि इस पीड़ा को मौन ही पियेगा..नितांत एकाकी होकर। 'लेखन' भी कितना अद्भुत है न प्रतिभा जी..और मन कितना बड़ा छलिया!!
    मैंने पढ़ते समय सोचा भी नहीं था कि कविता के अंत तक आते-आते कई बार नेत्र भीगेंगे।

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  16. शकुन्तला बहादुर20 अगस्त 2012 को 6:45 pm बजे

    सीधे सरल शब्दों से युधिष्ठिर पर पैना व्यंग्य कसा है।काश युधिष्ठिर इन
    शब्दों को खेलते समय सुन पाते...। "बाँट में जो मिली......लगा दो दाँव।" बेचारी पांचाली की दयनीय स्थिति मन में चुभ सी जाती है।
    पति का ये खेल पत्नी को कन्दुक की तरह प्रतिपक्षियों के पाले में फेंक देता है। मन पर गहरी चोट करती ये कविता बहुत कुछ सोचने को विवश करती है।कई बार पढ़ा। भावनाओं की गहराई प्रभावी है।

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  17. बहुत प्रभावी ... व्यवस्था पे सवाल उठाती .. व्यंगात्मकता लिए ... महाभारत के कितने ही प्रसंग ऐसे हैं ... जिनके ऊपर उतने ही महा ग्रन्थ लिखे जा सकते हैं ...

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  18. आज भी राजनीति की फड (चौसर )पर पांसे फैंक रहा है कोई और हार रहा है युधिष्ठिर काले किए हुए दोनों हाथ जो बताये गएँ हैं आम आदमी के हाथ .ये छल और प्रपंच इस दौर में ज्यादा है .अब तो युधिठिर को हारना ही हारना है निस्संग भाव ..बेहतरीन रचना उद्वेलित करती .लगा दो अपने हिस्से की बाँट ....कृपया यहाँ भी पधारें -
    ram ram bhai
    शुक्रवार, 24 अगस्त 2012
    आतंकवादी धर्मनिरपेक्षता
    "आतंकवादी धर्मनिरपेक्षता "-डॉ .वागीश मेहता ,डी .लिट .,1218 ,शब्दालोक ,अर्बन एस्टेट ,गुडगाँव -122-001

    आतंकवादी धर्मनिरपेक्षता

    राजनीतिक लफ्फाज़ फैला रहें हैं भ्रम ,

    कि आतंकवादी का नहीं होता कोई धर्म ,


    अभिप्राय : है यही और यही है संकेत ,

    कि आतंकवादी होता है धर्मनिरपेक्ष .

    धन्य है सरकार ,क्या खूब बहका रही है ,

    आतंकवाद का क्या ,धर्मनिरपेक्षता तो बढ़ा रही है .http://veerubhai1947.blogspot.com/

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  19. बाँट में जो मिली अपने आप ,
    कौन सा तुम
    जीत लाये थे दिखा पुरुषार्थ .
    चीज सबकी ,तुम्हें क्या संताप ,
    रहे या जाये किसी के पास !
    जो सुझाये वह, लगा दो दाँव,
    तुम खेलो ,युधिष्ठिर !
    बहुत सुंदर लेखन...सही है जब कुछ यूं ही मिल जाता है तो उसका ख्याल उतना नहीं रखा जाता...

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  20. बहुत ही प्रशंसनीय कविता। मेरे ब्लॉग " प्रेम सरोवर" के नवीनतम पोस्ट पर आपका स्वागत है।

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  21. अत्यंत प्रभावशाली रचना..आभार !

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  22. फड़ बिछी है
    चल रहा है दौर
    खेलता है युधिष्ठिर भी
    हर दौर में!

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  23. बाँट में जो मिली अपने आप ,
    कौन सा तुम
    जीत लाये थे दिखा पुरुषार्थ .
    चीज सबकी ,तुम्हें क्या संताप ,
    रहे या जाये किसी के पास !
    जो सुझाये वह, लगा दो दाँव,
    तुम खेलो ,युधिष्ठिर !

    .....बहुत सटीक और प्रभावी अभिव्यक्ति..आभार

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  24. सुंदर, भावपूर्ण प्रस्तुति...

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