शनिवार, 24 मार्च 2012

न जाने क्यों..

(एक बहुत पुरानी मित्र (यह भी पता नहीं कि  अब कहाँ है)की कविता ,जिसे अब तक सँजोये रखे रही , यहाँ देने से अब अपने को रोक नहीं पा रही हूँ .)
*
न जाने क्यों मुझे वह दृष्य रह-रह याद आता है ,

तुम्हारा झिझकते  जाते बताना याद आता है ,
न आ पाये कभी ,संकोच इतना क्यों मुझी से था ,
सभी तो साथ थे पर एक बचना क्यों मुझी से था !
*
मुझी से दूर क्यों थे ,जब कि सबके पास में तुम थे
मुझी से दूरियां थीं और सबकी आँख में तुम थे ,
नहीं मैं जानती थी यह कि खुद आ कर बताओगे
बिदा की बेर आकर कुछ कहोगे ,लौट जाओगे !
*
हमेशा के लिये तुम कुछ खटकता छोड़ जाओगे ,
सरल सी राह को आकर अचानक मोड़ जाओगे !
कहाँ हो तुम ,पता मैं खोजती चुपचाप रह कर ही ,
कि शायद सामने आ जाओ अनजाने अचानक ही .
*
एकाएक चौंक जाऊँ सामने पा कर तुम्हें अपने,
अचानक पूर्ण हो जाएं असंभव जो रहे सपने
यही बस एक रह-रह कर खटक मन में उठाता है ,
कभी जो सुन न पाया आखिरी पल क्यों सुनाता है .
*
बहुत स्तब्ध ,उमड़े आँसुओं को रोकती सी मैं
नयन धुँधला गये से किस तरह से देख पाती मैं
न कुछ भी बोल पाऊँ ,देख भी पाऊँ न वह चेहरा
हमेशा के लिये मन पर रहे अपराध सा गहरा .
*
न कोई रास्ता ,कोई न कुछ धीरज बँधाने को ,
न आगे बढ़ सकूँ अब, औ' न पीछे लौट जाने को
अभी भी लग रहा उस ठौर ,वैसे ही खड़ी हूँ मैं ,
बराबर बदलती हरएक शै से चुप लड़ी हूँ मैं .
*
मगर अब लग रहा मुश्किल ,कहाँ तक झेल पाऊँगी
यही होगा कि आँखें मूँद लूँगी बैठ जाऊँगी
तुम्हें तो पता भी शायद न हो कि कैसे ज़िन्दगी बीती
ख़बर भी हो न तुमको ,किस तरह हरदम रही रीती .
*
कि कितने आँसुओं ने धो दिये सब आँख के सपने .
कि कितने शून्यता के बीज मन में ही लगे रुपने
इसी की छाँह में जो शब्द कानों ने सुने थे तब
उन्हीं की गूँज रह-रह लौटती है सिर्फ़ क्यों मुझ तक
*
अगर तुम चाहते तो क्या कभी कुछ तो पता लेते
अगर कुछ जोड़ था मन का, उसे थोड़ा निभा देते .
वहीं पर खड़ी हूँ अब भी ,कभी यह बात कह जाओ -
'न देखो राह मेरी अब कहीं तुम और बढ़ जाओ !'
*
- कल्पना.
(कविता उसी रूप में है ,मैंने कोई फेर-बदल नहीं किया )

*

37 टिप्‍पणियां:

  1. कि कितने आँसुओं ने धो दिये सब आँख के सपने .
    कि कितने शून्यता के बीज मन में ही लगे रुपने
    इसी की छाँह में जो शब्द कानों ने सुने थे तब
    उन्हीं की गूँज रह-रह लौटती है सिर्फ़ क्यों मुझ तक ... bahut hi badhiyaa

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  2. अभी भी लग रहा उस ठौर ,वैसे ही खड़ी हूँ मैं ,
    बराबर बदलती हरएक शै से चुप लड़ी हूँ मैं .
    सुंदर अतिसुन्दर अच्छी लगी, बधाई

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  3. बहुत अच्छी कविता है, मन के पीछे भागती रहती हैं कुछ स्मृतियाँ।

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  4. मगर अब लग रहा मुश्किल ,कहाँ तक झेल पाऊँगी
    यही होगा कि आँखें मूँद लूँगी बैठ जाऊँगी
    तुम्हें तो पता भी शायद न हो कि कैसे ज़िन्दगी बीती
    ख़बर भी हो न तुमको ,किस तरह हरदम रही रीती .
    MATA JI KO PRANAM
    bahut hi sundar bhaw abhiwyakti.
    kawita tak thik hai lekin aisa
    aap sochit hain to AAPAKO meri umar lag jaye.
    ISHWAR se prarthana aap chirayu rahen.

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  5. पूरा दिल जैसे शब्दों में पिरो दिया है.

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  6. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...
    आपके इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल दिनांक 26-03-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर भी होगी। सूचनार्थ

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  7. न कोई रास्ता ,कोई न कुछ धीरज बँधाने को ,
    न आगे बढ़ सकूँ अब, औ' न पीछे लौट जाने को
    अभी भी लग रहा उस ठौर ,वैसे ही खड़ी हूँ मैं ,
    बराबर बदलती हरएक शै से चुप लड़ी हूँ मैं .

    बेहतरीन अभिव्यक्ति अपने अहसास की ...
    शुभकामनायें आपको !

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  8. फौंट थोड़ा छोटा है।
    दिल को छूने वाली रचना।

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  9. स्मृतियों के दंश ..
    सुन्दर रचना

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  10. दिल को छूने वाली रचना, शुभकामनायें आपको !

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  11. मगर अब लग रहा मुश्किल ,कहाँ तक झेल पाऊँगी
    यही होगा कि आँखें मूँद लूँगी बैठ जाऊँगी
    बहुत सुंदर गीत...।
    फॉन्ट थोड़ा बड़ा हो तो पाठक के आनंद का रास्ता आसान हो जाएगा...।
    सादर।

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  12. अगर तुम चाहते तो क्या कभी कुछ तो पता लेते
    अगर कुछ जोड़ था मन का उसे थोड़ा निभा देते .बहुत सुंदर.

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  13. नवरात्र के ४दिन की आपको बहुत बहुत सुभकामनाये माँ आपके सपनो को साकार करे
    आप ने अपना कीमती वकत निकल के मेरे ब्लॉग पे आये इस के लिए तहे दिल से मैं आपका शुकर गुजर हु आपका बहुत बहुत धन्यवाद्
    मेरी एक नई मेरा बचपन
    कुछ अनकही बाते ? , व्यंग्य: मेरा बचपन:
    http://vangaydinesh.blogspot.in/2012/03/blog-post_23.html
    दिनेश पारीक

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  14. प्रत्‍येक शब्‍द मन में उतरता हुआ ...बहुत ही अच्‍छी लगी यह रचना ...आपका आभार ।

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  15. शकुन्तला बहादुर25 मार्च 2012 को 11:18 pm बजे

    सुधियों को उकेरती ये भावपूर्ण एवं मार्मिक अभिव्यक्ति मन की गहराइयों में उतर गई। इसकी प्रस्तुति के लिये आपका आभार!!

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  16. बहुत भावपूर्ण और मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति...आभार


    http://aadhyatmikyatra.blogspot.in/

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  17. आस बनी हुई है, शायद अब शायद अब... साथ नहीं चलना तो बता ही देना चाहिए कि राह बदल लो...

    वहीं पर खड़ी हूँ अब भी ,कभी यह बात कह जाओ -
    'न देखो राह मेरी अब कहीं तुम और बढ़ जाओ !'

    फिर इस अप्रतिम रचना की उत्पत्ति कैसे होती... अगर जो आस टूट जाए. बेहद भावपूर्ण और मार्मिक रचना. धन्यवाद.

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  18. बहुत ही बढ़िया भाव संयोजन के साथ बेहतरीन भावपूर्ण अभिव्यक्ति....

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  19. वाकई अनुगूँज छोडती है यह रचना

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  20. कविता में जो समर्पण का भाव, जो लय ऐ, जो प्रवाह है और जो शिल्प है, वह मन को आकर्षित करने वाला है। सिर्फ़ एक बार पढ़ने से मन नहीं भरता। इसे बार-बार पढ़ने को दिल करता है।

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  21. बहुत सुंदर भावों का संयोजन ... प्रवाहमयी रचना ...

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  22. बहुत सुंदर । मेरे पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।

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  23. कविता के भाव अमिट छाप छोड़ रहे है ....
    गहन वेदना से भरी बहुत सुंदर रचना ...!!

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  24. प्रेम भुलाया जा सकता है। साथी सहेली भुलाये जा सकते हैं लेकिन उन यादों को कोई कैसे भुला देगा जिन्होने दिल में घर बना लिया है। वे यादें तो बाद मरने के ही जायेंगी। सहेली ने आपको कविता नहीं अपना दिल सौंप दिया था। आपने सहेजा यह अच्छी बात है।

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  25. कल 04/04/2012 को आपके ब्‍लॉग की प्रथम पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.

    आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!


    ... अच्छे लोग मेरा पीछा करते हैं .... ...

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  26. प्रतिभा जी ...ऐसा लगा जैसे मैं खुद को शब्दों के रूप में पढ़ रही हूँ .....वाह बहुत खूब

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  27. सहज है क्योंकि प्रेमपूर्ण है। प्रेमपूर्ण है,इसलिए स्मृति में है। स्मृति में है,तभी संबंधों की अहमियत है।

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  28. सुन्दर स्मृतियाँ, उनकी सहेजन, उनका सौंधापन!

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  29. बहुत ही भावपूर्ण प्रस्तुति । मेरे पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।

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  30. बड़े प्यारे भाव हैं , एक तड़प को छिपाती सी रचना !
    इसे पढ़कर रामावतार त्यागी की यह रचना याद आ गयी ...

    मैं आया तो चारण-जैसा
    गाने लगा तुम्हारा आंगन;
    हंसता द्वार, चहकती ड्योढ़ी
    तुम चुपचाप खड़े किस कारण ?
    मुझको द्वारे तक पहुंचाने सब तो आये, तुम्हीं न आए,
    लगता है एकाकी पथ पर मेरे साथ तुम्हीं होओगे !

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  31. आपकी सभी प्रस्तुतियां संग्रहणीय हैं। .बेहतरीन पोस्ट .
    मेरा मनोबल बढ़ाने के लिए के लिए
    अपना कीमती समय निकाल कर मेरी नई पोस्ट मेरा नसीब जरुर आये
    दिनेश पारीक
    http://dineshpareek19.blogspot.in/2012/04/blog-post.html

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  32. अक्सर कुछ लोग....लम्हों की तरह जीवन में ठहर जाते हैं .......कभी यादें बनकर ....कभी टीस बनकर ...तो कभी एक मुस्कराहट बनकर . ....बहुत सुन्दर कविता है प्रतिभाजी

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  33. बेहद सादी और मार्मिक कविता...
    पढ़कर जो थोड़ी बहुत शून्यता इसमें व्यक्त पीड़ा को अनुभव करके हृदय में आई..उसे भरने जाने कौन कौन से विचार दौड़े चले आये।
    शीर्षक पढ़ कर ही ये गाना याद हो आया..''न जाने क्यूँ होता है ये ज़िन्दगी के साथ..'' फिल्म 'छोटी सी बात' का..एक ही सांस ले पाई थी पूरा गाना हृदय ने स्वत: ही दोहरा लिया...उसी भावना के पथ पर ये कविता बढ़ते बढ़ते हृदय तक चली आई।
    बच्चन साहब की पंक्तियाँ याद आ रहीं हैं..''मैंने पीड़ा को रूप दिया...जग समझा मैंने कविता की। ''
    आदरणीय लेखिका के प्रति मन में संवेदनाएँ भर गयीं।आज पहली बार करुण कविता को पढ़ते समय मन आनंद का अनुभव नहीं कर रहा।स्वयं को सोचने से नहीं रोक पा रही कि..क्यूँ किसी पर ऐसा दुःख आन पड़े जो ऐसी रचना को विवश हो कवि हृदय..:( ?
    ख़ैर,
    पीड़ा की अनुभूति होती है कविता से...कविता को मात्र कविता नहीं माना प्रतिभा जी...मन उस हृदय की पीड़ा को भी टटोलना चाह रहा है..जिसकी छटपटाहट इस मार्मिक कविता के माध्यम से मेरे हृदय को स्पर्श कर रही है।
    वे जहाँ हों..उन्हें प्रणाम ...आशा है कुशल ही हों।
    रचना को यहाँ पढ़ पायी मैं..उसके लिए आभार..!!

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