( कभी की लिखी एक कविता आज हाथ लग गई . प्रस्तुत है -)
*
सच कहो ,
या फिर कहीं जा मुँह छिपाओ,
अब न मिथ्या वचन ,
पूरा सच कबूलो ,
अन्यथा जा कृष्ण -विवरों में समाओ !
*
झूठ ठाने ,पग धरे
अक्षांश वह जड़ से मिटा दूँ ,
उस धरा की सभी सत्ता सिंधु के जल में डुबा दूँ ,
एक कंदुक सा उछालूँ अंतरिक्षों के विवर में
लुढ़क टकरा जायँ ग्रह-नक्षत्र वह ठोकर लगाऊं .
रेख विषुवत् मोड़, दोनों मकर-कर्क समेट धर दूँ
खोल डालूँ ऊष्ण-हिम कटिबंध दोनों ,
इन खड़ी देशान्तरों को पकड़ कर दे दूँ झिंझोड़े
चीर दूँ छाती गगन की सिंधु के जल को उँडेलूँ
सूर्य की पलकें झपें ,शशि की बिखर जाएं कलाएँ .
वह कहो जो सत्य है ,
अब कुछ न देखो वाम-दायें !
*
यह दिशाओँ का विभाजन भूल जाओ!
इस क्षितिज के पार
सिर नीचे झुकाये ,
सच कबूलो ,
अन्यथा , मुख को छिपा
तम -कूप में जा डूब जाओ !
*
वाह.............
जवाब देंहटाएंचीर दूँ छाती गगन की सिंधु के जल को उँडेलूँ
सूर्य की पलकों झपें ,शशि की बिखर जाएं कलाएँ .
वह कहो जो सत्य है ,
अब कुछ न देखो वाम-दायें !
सशक्त रचना...
बड़ी सुन्दर रचना, सत्य सदा ही सरल होता है, स्वीकार करना ही श्रेयस्कर है।
जवाब देंहटाएंचीर दूँ छाती गगन की सिंधु के जल को उँडेलूँ
जवाब देंहटाएंसूर्य की पलकों झपें ,शशि की बिखर जाएं कलाएँ .
वह कहो जो सत्य है ,
अब कुछ न देखो वाम-दायें !
कितनी सुन्दर रचना...
सती कहने के लिए भी कितनी ओज पूर्ण वाणी ... बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंइस प्रभावशाली रचना की भाषा शैली इस रचना को और भी सुंदर बना रही है।...
जवाब देंहटाएंयह दिशाओँ का विभाजन भूल जाओ!
जवाब देंहटाएंइस क्षितिज के पार
सिर नीचे झुकाये ,
सच कबूलो ,
अन्यथा ,
तम के विवर में जा समाओ !.... निःशब्द अनुभूति
अब न मिथ्या वचन ,
जवाब देंहटाएंपूरा सच कबूलो ,
कबूलना ही होगा ...
बहुत सुन्दर
यह दिशाओँ का विभाजन भूल जाओ!
जवाब देंहटाएंइस क्षितिज के पार
सिर नीचे झुकाये ,
waah....
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 19 -04-2012 को यहाँ भी है
जवाब देंहटाएं.... आज की नयी पुरानी हलचल में ....ये पगडंडियों का ज़माना है .
सत्य वचन! पूरा सत्य ही सत्य है।
जवाब देंहटाएंसत्य को उद्घाटित करवाने कि लिये कृतसंकल्प मनस्विनी कवयित्री के
जवाब देंहटाएंओजस्वी वीरांगना रूप का आभास मिलता है,जो सत्य के लिये सृष्टि
को भी उलट-पुलट कर रख देने के लिये भी कटिबद्ध है। कविता के माध्यम से किया गया शब्द-प्रहार अत्यन्त मुखर और सशक्त है।
"सत्यमेव जयते,नानृतम्।" उक्ति को सार्थक करती इस प्रभावी रचना के लिये प्रतिभा जी का साधुवाद!!
यह दिशाओँ का विभाजन भूल जाओ!
जवाब देंहटाएंइस क्षितिज के पार
सिर नीचे झुकाये ,
सच कबूलो ,
अन्यथा , मुख को छिपा
तम -कूप में जा डूब जाओ !
सत्य सत्य ही होता ,और सत्य को स्वीकार करने से हम बचने का प्रयास भी करते हैं, और जब वही अस्वीकार सत्य सामनें आ खड़ा होता है,तो पीड़ा तथा अपमान का कारण बनता है. बेहतरीन रचना.
सत्याग्रह का निनाद छेड़ती ओजस्वी वाणी....
जवाब देंहटाएंबाप रे ...
जवाब देंहटाएंकहाँ आ गया आज मैं तूफ़ान में
:)
अब न मिथ्या वचन ,
जवाब देंहटाएंपूरा सच कबूलो ,
कबूलना ही होगा ...
saanch ko aanch nahi..
bahut badiya sarthak prastuti
चीर दूँ छाती गगन की सिंधु के जल को उँडेलूँ
जवाब देंहटाएंसूर्य की पलकें झपें ,शशि की बिखर जाएं कलाएँ .
वह कहो जो सत्य है ,
बहुत सुन्दर है वीर रस का संचरण हो गया
उस धरा की सभी सत्ता सिंधु के जल में डुबा दूँ ,
जवाब देंहटाएंएक कंदुक सा उछालूँ अंतरिक्षों के विवर में
लुढ़क टकरा जायँ ग्रह-नक्षत्र वह ठोकर लगाऊं .
रेख विषुवत् मोड़, दोनों मकर-कर्क समेट धर दूँ ...
जोश भरती रचना
झूठ ठाने ,पग धरे
जवाब देंहटाएंअक्षांश वह जड़ से मिटा दूँ ,
उस धरा की सभी सत्ता सिंधु के जल में डुबा दूँ ,
एक कंदुक सा उछालूँ अंतरिक्षों के विवर में
लुढ़क टकरा जायँ ग्रह-नक्षत्र वह ठोकर लगाऊं .
इस कविता में कुछ है जो इसे अन्य रचनाओं से अलग श्रेणी में बिठाता है। शिल्प और बिम्ब प्रयोग के मामले में बेजोड़। लय-प्रवाह और भाव प्रेषण में अद्वितीय।
लाजवाब!!
वाह.............
जवाब देंहटाएंचीर दूँ छाती गगन की सिंधु के जल को उँडेलूँ
सूर्य की पलकों झपें ,शशि की बिखर जाएं कलाएँ .
वह कहो जो सत्य है ,
अब कुछ न देखो वाम-दायें !
bahut khoob sashaqt rachna.... par sach ko itni aasani se kabool kaun karta hai.bahut pasand aai aapki rachna.
बहुत सुंदर प्रस्तुति, ,...
जवाब देंहटाएंMY RECENT POST काव्यान्जलि ...: कवि,...
बहुत सुंदर। बीच का अंश तो अद्भुत है।
जवाब देंहटाएंसुंदर और भावप्रवण रचना.नमन स्वीकार करें.
जवाब देंहटाएंअलग ही एक ओजस्वी रचना ।
जवाब देंहटाएंवाह! एक एक शब्द से भाव छलके पड़ रहे हैं। बहुत बढिया!
जवाब देंहटाएंआ. और प्रिय प्रतिभाजी, कविता कितनी सुन्दर है ये तो इतने कमेंट्स के बाद मुझे कहने की आवश्यकता ही नहीं है! :)
जवाब देंहटाएंकविता में प्रवाह, भाषा, बिम्ब सभी ओजपूर्ण और झकझोड़ देने वाले.
क्या गति है, क्या लय है, क्या कोप है!
बहुत देर तक सोचती रही कि सत्य में किस से संबोधित है ये कविता-- धरा से?
फ़िर ये प्रश्न कि क्या सत्य कहलवाना चाहते हैं हम धरा से?
यही कि कभी विभाजित नहीं थी वो? आप लिखियेगा ...आपकी शार
प्रिय शार ,
जवाब देंहटाएंधरती तो बेचारी ऐसे लोगों को धारण करते थक गई होगी .जो लोग आधा-अधूरा सच कह कर दूसरों को भ्रमित करते हैं ,उन के लिये लिखा है यह .
- प्र.
बहुत सुंदर प्रस्तुति,..प्रतिभा जी,..
जवाब देंहटाएंMY RESENT POST .....आगे कोई मोड नही ....
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंअरुन (arunsblog.in)
सच कबूलो ,
जवाब देंहटाएंअन्यथा , मुख को छिपा
तम -कूप में जा डूब जाओ !
sach khubsurat:)
बहुत ही अच्छी अभिव्यक्तियाँ...
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आना.
सादर
मधुरेश
आदरणीया प्रतिभा जी
जवाब देंहटाएंएक अनुपम कृति !
आपकी कविताएँ सदैव आनंदित करती हैं और हमारे जैसे लोगो के लिए प्रेरणा स्रोत होती हैं. आपकी रचानाओं से महादेवी की लेखनी की सुगंध आती है.
इतनी सुन्दर रचना के लिए ढेरो बधाईयाँ !
सादर
प्रताप
बहुत ही सुंदर प्रस्तुति । मेरे पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंकल 14/12/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर (कुलदीप सिंह ठाकुर की प्रस्तुति में ) लिंक की जा रही हैं.आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है .
धन्यवाद!
Gajab ki post hai ...waah
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति .....आप भी पधारो स्वागत है ,....मेरा पता है
जवाब देंहटाएंhttp://pankajkrsah.blogspot.com