शनिवार, 10 मार्च 2012

रत्ना की चाह .


(कुछ समय पूर्व  किसी प्रसंग में रत्नावली की मनस्थिति  को वाणी देने का प्रयत्न किया था.सुधी- जनों के विचार हेतु यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ ) -
*
केवल तुम्हारी थी !
पति- सुख पा इठलाती बाला बन,
पीहर में मानभरी पाहुनी हो,
आत्म-तोष थोड़ा-सा,
 चाहता रहा था मन !
*
चाव से भरा था मन ,
 फिर से  उछाह भर,
 ताज़ा हो जाने का ,
बार-बार आने का ,
अवसर,
सुहाग-सुख पाने का .
*
थोड़ा सा संयम ही
चाहा था रत्ना ने .
भिंच न जाय मनःकाय,
थोड़ा अवकाश रहे,
खुला-धुला ,घुटन रहित .
नूतन बन जाए
पास आने की चाह .
*
कैसे थाह पाता
विवश नारी का खीझा स्वर,
तुलसी ,तुम्हारा नर!
स्वामी हो रहूँ सदा
अधिकारों से समर्थ
पति की यही तो शर्त !
*
सह न सके .
त्याग गए कुंठा भऱ .
सारा अनर्थ-दोष
एकाकी नारी पर !
*

30 टिप्‍पणियां:

  1. खुला-धुला ,घुटन रहित थोडा सा आसमान ....
    मगर तुलसीदास जी के अहम के आगे छोटी सी ख्वाहिश बड़ी दिवार हुई !

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  2. सह न सके .
    त्याग गए कुंठा भऱ .
    सारा अनर्थ-दोष
    एकाकी नारी पर !

    मुझे तो तुलसी को महान बनाने में
    उनकी पत्नी द्वारा तत्व बोध कराया जाना
    ही लगता है.

    फिर यह उलाहना क्यूँ?

    कहीं आप का आशय 'ढोल गंवार सुद्र पशु नारी..'
    से तो नहीं?

    इस सन्दर्भ में समय मिलने पर मेरी पोस्ट 'राम जन्म -आध्यात्मिक चिंतन-२' (माह अप्रैल २०११)पर हुई टिप्पणियों और प्रति टिप्पणियों को भी जरूर देखिएगा,प्रतिभा जी.
    इसका लिंक मेरी पोस्ट 'मेरी बात-ब्लॉग्गिंग की प्रथम वर्षगाँठ' पर भी आपको मिल जाएगा.

    सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.

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  3. आप 'राम जन्म -आध्यात्मिक चिंतन-२' में श्री
    मदन शर्मा जी की टिपण्णी और उस पर मेरी प्रति टिपण्णी,
    निधि जी की टिप्पणियाँ आदि अवश्य देखिएगा.हो सके तो
    अपना मत भी प्रकट कीजियेगा.

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  4. जाने कब यह कहत्म होगा नारी पर ये आघात...बहुट सुंदर एवं सार्थक रचना समय मिले कभी तो ज़रूर आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है।

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  5. जाने कब स्त्री पर खत्म होगा ये आघात बहुत सुंदर एवं सार्थक रचना समय मिले कभी तो ज़रूर आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है

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  6. प्रेम में प्राप्ति की इच्छा जगती है, अनबुझी ही रहती है।

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  7. बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ।

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  8. उस त्याग ने अमर कर दिया इस दंपत्ति को ! सुन्दर कविता!

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  9. निःसंदेह यह एक श्रेष्ठ रचना है।

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  10. आ. राकेश जी ,
    मैंने सभी टिप्पणियाँ पढ़ीं -पहले भी पढ़ी थीं. नीर को त्याग कर क्षीर ग्रहण करना बहुत उचित है .
    बात श्रीराम के नहीं तुलसी के जीवन की है कि ऐसी पत्नी को त्यागने के बजाय सहधर्मिणी बना कर साधना करते तो लोगों को ग़लत संदेश न जाता , गृहस्थाश्रम स्वीकार किया तो उसके दायित्वों को अधूरा छोड़ना सही उदाहरण नहीं (दायित्वों से बचने को मूड़ मुड़ाये भये सन्यासी उस समय का ट्रेंड हो गया था और पाखंडी गुरुओं की भरमार हो गई थी जो समाज को गुमराह कर रहे थे ) पति द्वारा परित्यक्ता युवा नारी को उस समय के समाज में कितनी दारुण स्थितियों से गुज़रना पड़ा होगा ,वही सहानुभूति व्यक्त हुई है .
    आध्यात्मिक प्रवचनों से मेरी सहमति है .मैंने जो लिखा सामाजिक परिप्रेक्ष्य में और विवाहित जीवन के दाम्पत्य व्यवहार की बात है.पत्नी को मायके जाने की थोड़ी सी छूट देने की बात ही तो है.

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  11. @ (दायित्वों से बचने को मूड़ मुड़ाये भये सन्यासी उस समय का ट्रेंड हो गया था और पाखंडी गुरुओं की भरमार हो गई थी जो समाज को गुमराह कर रहे थे ) पति द्वारा परित्यक्ता युवा नारी को उस समय के समाज में कितनी दारुण स्थितियों से गुज़रना पड़ा होगा ,वही सहानुभूति व्यक्त हुई है .


    आदरणीय प्रतिभा जी,

    तुलसी का इतिहास आज से कई सौ साल पहले का है.
    सुनी और पढ़ी गयीं बातो के अनुसार उनका अपनी पत्नी
    से बहुत अधिक प्रेम और आसक्ति थी.जिस कारण उनकी
    पत्नी ने उन्हें कहा था
    'अस्थि चर्ममय देह यह ता में ऐसी प्रीत
    वैसी हो श्रीराम में , तो हो भवभीत'

    इसके बाद वे राम भक्ति, जो उनके गुरु ने उन्हें पहले दी थी,
    और पत्नी प्रेम आसक्ति के कारण उससे विमुख थे,में पुन:सलग्न हुए.मैंने उनके घर परिवार पूर्णतया छोड़ने के बारे में नहीं सुना.यदि
    छोड़ा भी तो मुझे तो उसमें उनकी उम्र का पड़ाव और पत्नी की सहमति ही प्रतीत होती है.वे पाखंडी सन्यासी रहे हों इस बात से मैं पूर्णतया असहमत हूँ.उनका लेखन हिंदी साहित्य जगत और अध्यात्म क्षेत्र की अनमोल निधि है.

    आपका लेखन आपकी भावनाओं की अभिव्यक्ति है,परन्तु एक ही तथ्य को बहुत से पहलुओं से देखा जा सकता है.मेरी सोच अनुसार सकारात्मक नजरिया हो तो ज्यादा अच्छी बात है.विशेषत: प्रतिष्ठत
    संत/महापुरषों के बारे में.केवल अंधानुकरण में मेरा विश्वास नहीं.

    बचपन में 'सरिता' मैग्जीन पढते थे.उसमें अनाप शनाप के आरोप लगाकर 'तुलसीदास जी' को 'पथभ्रष्ट बताया जाता रहा.ज्यूँ ज्यूँ
    बड़े हुए और उनके साहित्य से कुछ कुछ परिचित हुए,तो उनके ज्ञान भक्ति व् साहित्य प्रतिभा का परिचय मिला.मैंने उनकी श्रीरामचरितमानस में शुरू में की गई प्रार्थना को आधार बना कर एक पोस्ट 'वंदे वाणी विनायकौ'भी लिखी है.उसकी पोडकास्ट अर्चना चाओ जी ने बनाई है.उस पोस्ट पर नीचे में पोडकास्ट का लिंक है.आपको समय मिले तो मेरी इस पोस्ट को भी पढियेगा/सुनियेगा.

    आपकी प्रति टिपण्णी के लिए आभारी हूँ.आशा है आप मेरे दृष्टिकोण को अन्यथा नहीं लेंगीं.

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  12. आपका कथन-'मैंने उनके घर परिवार पूर्णतया छोड़ने के बारे में नहीं सुना.यदि छोड़ा भी तो मुझे तो उसमें उनकी उम्र का पड़ाव और पत्नी की सहमति ही प्रतीत होती है...'
    अपनी इस मान्यता के लिये कृपया एक शोधपरक लेख देखें - लिंक है -
    http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/835353.cms
    .रत्ना का एक कथन भी--खरिया खरी कपूर लौं ,उचित न पिय तिय त्याग.'
    एक बात और - मैंने तुलसी को पाखंडी सन्यासी कभी नहीं कहा कृपया गलत आक्षेप न करें .
    आप की उन पर श्रद्धा है (मैं भी उनका सम्मान करती हूँ )
    पर इसका यह मतलब तो नहीं कि उनकी कोई भी आलोचना लेखन को सकारात्मकता से दूर ले जाती है .मनुष्य अंततः मनुष्य है उसमें कमज़ोरियाँ भी होती हैं .आपको यदि इससे कष्ट हो रहा है तो उपरोक्त लिंक न पढ़ें मैं आप जैसे विद्वान से कह भी क्या सकती हूँ .

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  13. उक्त लेख मैंने पढ़ा.
    नई जानकारी हुई,
    आपका बहुत बहुत शुक्रिया,प्रतिभा जी.

    माता पुत्र को,पत्नी अपने पति को जब मात्रभूमि की
    रक्षा के लिए सेना में सीमा पर तनात पाती है,तो उसके
    बिछोह में असीम दुःख और विरह का जो अनुभव करती है,
    वह उस माता या पत्नी का दिल ही जानता है.

    लक्ष्मण के राम के साथ बनवास में जाने पर
    उर्मिला का विरह वर्णन राष्ट्र कवि मैथली शरण ने
    भी किया है.

    बहुत से ऐतहासिक बातें कल्पना के आधार पर होतीं हैं,
    उसमें सोचने वाले की भावना अनुसार उनका वर्णन होता है.
    आपकी सुन्दर प्रस्तुति के लिए पुन: आभार.
    मुझे आपकी बातों से कोई कष्ट नहीं है जी.

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  14. शकुन्तला बहादुर15 मार्च 2012 को 8:38 pm बजे

    मूर्धन्य साहित्यकार अमृतलाल नागर जी के दीर्घकालीन शोध के उपरान्त तुलसी के जीवन पर लिखे गए ग्रन्थ "मानस का हंस"
    को पढ़ने के बाद अनेक शंकाओं का समाधान हो जाता है। रत्ना का
    चरित्र उभर कर सामने आ जाता है। प्रतिभा जी, मुझे आपकी प्रस्तुति में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगा। अपनी अपनी भावना है।सुन्दर प्रस्तुति मन को छू गई।

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  15. मेरे मन में भी तुलसीदास जी हेतु बहुत आदर है, फिर भी प्रश्न सही हैं, उचित है।
    बहुत सुन्दर।

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  16. कैसे थाह पाता
    विवश नारी का खीझा स्वर,
    very nice.

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  17. रत्नावली की खीझ ही तो अन्तः मानस की रचना का कारण बनी ।

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  18. bahut hi acha likhti hai aap
    आखिरी ख़त: par aap ka swaagat hai

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  19. सह न सके .
    त्याग गए कुंठा भर .
    सारा अनर्थ-दोष
    एकाकी नारी पर !

    प्रभावशाली अभिव्यक्ति।

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  20. कैसे थाह पाता
    विवश नारी का खीझा स्वर,
    तुलसी ,तुम्हारा नर!
    स्वामी हो रहूँ सदा
    अधिकारों से समर्थ
    पति की यही तो शर्त !
    सह न सके .
    त्याग गए कुंठा भर .
    सारा अनर्थ-दोष
    एकाकी नारी पर !

    प्रभावित करती पंक्तियाँ

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  21. थोड़ा सा संयम ही
    चाहा था रत्ना ने .
    भिंच न जाय मनःकाय,
    थोड़ा अवकाश रहे,
    .खुला-धुला ,घुटन रहित .
    नूतन बन जाए
    पास आने की चाह .

    अद्भुत लेखन ....

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  22. सारा अनर्थ-दोष
    एकाकी नारी पर
    बहुत सुन्दर..
    नारी तो हमेशा ना री रही है

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  23. rachna bahut pehle padh li thi..kintu kuch kehna nahin ho paya...ek tarah se uchit hi hua..kuch keh nahin paayi.aaj hi pun: is rachna ko padh ke suvichaar mann mein aaya ki pehle ''manas ke hans'' padh daaloon..tatpashchaat is rachna ke marm tak pahunchne mein aasaani hogi..aur sahi bhi hoga...kyunki imaandaari se kahoon pratibha jee..to bahut thoda jaanti hoon tulsidaas ji ke jeewan je is pehloo ke vishay mein.......bas itna ki patni ke vachan baan se aahat ho unka jeewan badal gaya......

    :(

    main fir wapas aaungi is rachna par..aapki ankahi anumati liye ja rahi hoon saath..:):)

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  24. aaj hi samaapt ki ''maanas ka hans''...aur turant is kavita kee ore dag bhare.
    kavita se uske marm se poornat: sehmat hoon pratibha jee.
    aur ek ajeeb see soch ubharti hai ki koi na koi kisi na kisi kee baat to nimitt banegi hi banegi kisi bhi vishesh uplabdhi ya kaary kee..hmm magar fir bhi kisi shubh sankalp kee poornata ke liye galat drishtaant nahin hee banna chahiye.

    badhaayi pratibha jee kavita hetu...vishesh aabhar shakuntala jee ka...unki tippani se pustak padhne hetu prerit hui thi..book nahin padhti to nai samajh aa paati kavita......pustak padhkar abhibhoot hoon ek nirmal aanand se...:):)

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