बुधवार, 30 नवंबर 2011

अक्षरित


*
एक  जीवन्त रचना -
नव - नीड़ ,
चिड़ी-चिड़ा - सहचरी-सहचर .
अथक श्रम
रात-दिन,दिन-रात
दौड़ते-भागते श्रम के पहर !
काल - बिरछ की  टहनी पर
जमा लिया चुन-चुन, तिन-तिन
आस- विश्वास की  डोरियों से बाँधं,
नेह-मोह लिपटे आस के रेशों से
 एक संसार !
*
बरसा-बूँदी के घात,
हवाओं की बिखेर झेलते
सेते रहे हिरण्यगर्भी कल्पनायें ,
कि नीड़ से आगे  खुले आकाश में
उड़ेंगे ये  हमारे संस्करण !
पुरी आस ,सफल प्रयास,
खुली दिशायें ,
नये आकाश ,नयी बातास !
*
ऋतुयें आयें-जायेंगी ,
पुराने पात जगह देंगे कि
नई बहार खिलती रहे !
नये अवतरण,
होते रहेंगे बारंबार
वही  नेह जतन !
लघु-लघु अँकनों में ,
एक ही कथा के
आगे के प्रकरणों जैसे .
अध्याय पर अध्याय ,
पंक्ति-बद्ध   ,
अनवरत-अविरल ,अनुक्रम !
*
बिखेर तिनके पुराने
काल - क्रम में चक्कर काटते
उड़ जाएंगे चिड़ा-चिड़ी ,
जीवन की चिर-नव्यता
का पाठ फिर-फिर दोहराने !
सृष्टि की महागाथा के
अक्षरित सम में .
*

15 टिप्‍पणियां:

  1. यात्रा अनवरत है, साथ एक दूरी तक बना ही रहता है।

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  2. प्रकृति में निर्माण और विनाश का क्रम चलता रहता है।

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  3. वाकई ...
    यह चक्र घूमता रहता है ...
    शुभकामनायें !

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  4. एक पल का साथ और ...क्षणभंगुर जीवन ....

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  5. बिखेर तिनके पुराने
    काल - क्रम में चक्कर काटते
    उड़ जाएंगे चिड़ा-चिड़ी ,
    जीवन की चिर-नव्यता
    का पाठ फिर-फिर दोहराने !
    सृष्टि की महागाथा के
    अक्षरित सम में .
    ...bahut hi badhiyaa

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  6. मनोज जी कि बात से सहमत हूँ।प्रकृति मेन निर्माण और विनशा का चार चलता ही रहता है परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है ...बहुत ही बढ़िया लिखा है आपने!!! समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका सवाग्त है ....

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  7. एक युग, एक गाथा, एक चक्र, अनुपम!

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  8. BAHUT SUNDER PRASTUTI .BAHUT BADHAAI AAPKO .
    MERI NAI POST PER AAPKA SWAGAT HAI.

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  9. जीवन का शारांश यही है ..ये क्रम यू ही चल रहा है
    अनवरत ..और चलता रहेगा सदियों से सदियों तक .गंम्भीर चिंतन
    दर्शाती रचना के लिए बधाई

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  10. Honestly speaking, I am falling short of words to praise this wonderful creation !...Awesome !

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  11. आदरणीया प्रतिभाजी, आपकी इस कविता से कुछ पंक्तियाँ याद हो आई, जाने किनकी हैं... "ओ! पीपल के पीले पत्ते, ये इनके दिन ये इनके युग, तुम भोग चुके इनको अवसर दो, छोटे हैं बढ़ने का वर दो...". आपने लिखा "सृष्टि की महागाथा के अक्षरित सम में..." इससे मास और एनेर्जी कान्सर्वेशन का सिद्धांत याद आ गया.
    "जीवन की चिर नव्यता का पाता पढ़ाने..." ये सन्देश लिए जाती हूँ कविता से...सादर शार्दुला

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  12. बहुत सुंदर कविता...कई बार पढ़ चुकी...सारे पाठकों जैसे ही हैं मेरे विचार.....:)
    बस यहाँ -
    ''बरसा-बूँदी के घात,
    हवाओं की बिखेर झेलते
    सेते रहे हिरण्यगर्भी कल्पनायें ,
    कि नीड़ से आगे खुले आकाश में
    उड़ेंगे ये हमारे संस्करण !''

    - पहुँच कर बुद्धि घूम जाती है हर बार ही,और मन तमामतर स्मृतियों को खँगालता हुआ उदास हो उठता है ।मानस पटल पर उन बुजुर्गों का चेहरा उभरता है...जिन्हें मैंने वृद्धाश्रम में देखा...या जो एक रोगी के तौर पर मुझे मिले....जिनकी संतानों ने उन्हें सताया अथवा भुला दिया....क्या ऊपर चुनी पँक्तियों का सा कुछ भी ये लोग सोचते होंगे..??मनुष्य को तो विस्मृति का गुण प्रभु ने दिया ही नहीं...दिया होता तो ऐसा लिखती ही नहीं शायद मैं। निर्माण हो..विनाश हो..पुनर्निर्माण हो...विकास हो....किंतु मनुष्य के सन्दर्भ में यदि मानवता क्षय होती हो विकास प्रक्रिया में, तो किसी भी अध्याय की भूमिका नवीन संस्करण के विस्तार के साथ कितनी चुपचाप और संक्षिप्त हो जायेगी न प्रतिभा जी..:(
    आपकी कविता किसी दिए के उजाले जितनी प्रकाशवान है...संभवत: मैं ही उसके उजाले की ओर न देखकर तली के अँधेरे पर दृष्टि जमा रही हूँ....
    क्षमा चाहूँगी..:(

    रचना के लिए आभार प्रतिभा जी...:)

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  13. ऋतुयें आयें-जायेंगी ,
    पुराने पात जगह देंगे कि
    नई बहार खिलती रहे !
    नये अवतरण,
    होते रहेंगे बारंबार
    वही नेह जतन ...

    जीवन की ये रीत है .... समय तो अनवरत चलता रहता है और इस समय के साथ ही सब गतिमान होता है ... सुन्दर रचना है ...

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  14. कई बार पढ़ चुकी इस रचना को ... बस मनन कर इसमें डूब जाने का मन है .. कुछ कहना असम्भव है ..

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