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रे मन,चल वृन्दावन- धाम !
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जहँ निचिंत, गत शोक-मोह ,व्यापे न कुमति -अज्ञान ,
घिरें न बोझिल मेघ ,तपन के मौसम घिरें न आन !
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भटक-भटक कर थकी देह औ' सधा न कौनो काम ,
कोई न स्वजन ,अजाना हर जन ,ऐसे जग हिं प्रणाम !
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जहां न दुख का लेश ,थकित तन को अनंत विश्राम ,
शंका ग्रसै, न डसै भीति ,चल रे, उहि लोक ललाम !
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ओह!
जवाब देंहटाएंबहुत दिन हो गए वृन्दावन धाम गए हुए। फिलहाल तो गाकर काम चला लिया है। जाकर -- फिर कभी।
pratibha ji me exactly vrindawan to nahi gayi han lekin mathura jaroor gayi thi kuchh mahino pahle. vaha jakar logo k kareeb rah kar yahi jana ki vo log bahut imandar, dwesh rahit hain hamare comparitively.
जवाब देंहटाएंवृन्दावन जाने की उत्कंठा जगा दी है .. सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंअनुपम भक्ति प्रवाह।
जवाब देंहटाएंमन पाए जहाँ विश्राम !
जवाब देंहटाएंजहाँ आप हैं वहीँ वृन्दावन है ....
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें आपको !
सुन्दर!
जवाब देंहटाएंअहा! मन मोह लिया इस छन्द ने प्रतिभाजी! ज़मीन से जुड़ी भाषा में लिखीं और मन की शीतलता ढूंढती ये चन्द पंक्तियाँ "मेरो मन अनत कहाँ सुख पावे" की याद दिला गईं.
जवाब देंहटाएंसादर
भटक-भटक कर थकी देह औ' सधा न कौनो काम ,
जवाब देंहटाएंकोई न स्वजन ,अजाना हर जन ,ऐसे जग हिं प्रणाम !
आपकी रचना धर्मिता को हमारा प्रणाम
ब्लागरी को दें आराम..
जवाब देंहटाएंरे मन चल वृंदावन धाम।
..सुंदर भजन।
रे मन,चल वृन्दावन- धाम !
जवाब देंहटाएं-sach ab yahi karna hai....
अच्छी कविता के लिए बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुंदर और सरल रचना है :) मेरा मन भी भर आया...काश मैं भी जल्दी से जल्दी जा सकूँ वृन्दावन!!
जवाब देंहटाएं:(
मन विभोर करती कविता
जवाब देंहटाएंरे मन,चल वृन्दावन- धाम !
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जहँ निचिंत, गत शोक-मोह ,व्यापे न कुमति -अज्ञान ,
घिरें न बोझिल मेघ ,तपन के मौसम घिरें न आन !
....भक्तिविभोर करती बहुत मनमोहक अभिव्यक्ति...मन कृष्णमय होगया..आभार
कभी-कभी मन भी विश्राम चाहता है,. उसके लिए वृन्दावन धाम से बेहतर क्या होगा...
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत रचना ..व्रन्दावन धाम की तो
जवाब देंहटाएंमहिमा ही अपर है ..बधाई
Beautiful blog, I read quite some now, and I love your originality,
जवाब देंहटाएंFrom everything is canvas