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छिंगुनिया क छल्ला पे तोहि का नचइबे !
नथुनियाँ न झुलनी न मुँदरी जुड़ी ,
आयो लै के कनैठी अंगुरिया को छल्ला !
इहै छोट छल्ला पे ढपली बजइबे !
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कितै दिन नचइबे ,गबइबे ,खिजइबे
कसर सब निकार लेई ,फिन मोर लल्ला
कबहुँ गोरिया तोर पल्ला न छोड़ब ,
चिपक रहिबे बनिके तोरा पुछल्ला !
करइ ले अपुन मनमानी कुछू दिन
उहै छोट लल्ला तुही का नचइबे !
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भये साँझ आवै दुहू हाथ खाली
जिलेबी के दोना न चाटन के पत्ता ,
मेला में सैकल से जावत इकल्ला ,
सनीमा के नामै दिखावे सिंगट्टा !
हमहूँ चली जाब देउर के संगै
उहै ऊँच चक्कर पे झूला झुलइबे !
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काहे मुँहै तू लगावत सबन का
लगावत हैं चक्कर ऊ लरिका निठल्ला !
उहाँ गाँव माँ घूँघटा काढ रहितिउ ,
इहाँ तू दिखावत सबै मूड़ खुल्ला !
न केहू का हम ई घरै माँ घुसै देब ,
चपड़-चूँ करे तौन मइके पठइबे !
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लरिकन को किरकट दुआरे मचत ,
मोर मुँगरी का रोजै बनावत है बल्ला ,
इहाँ देउरन की न कौनो कमी
मोय भौजी बुलावत ई सारा मोहल्ला !
छप्पन छूरी इन छुकरियन में छुट्टा
तुहै छोड़ छैला, न जइबे,न जइबे !
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मचावत है काहे से बेबात हल्ला ,
अगिल बेर तोहका चुनरिया बनइबे ,
पड़ी जौन लौंडे-लपाड़न के चक्कर
दुहू गोड़ तोड़ब घरै माँ बिठइबे !
छिंगुनियाके छल्ला पे ...!
- प्रतिभा सक्सेना.
*
थोड़ा-सा मनोरंजन - एक पुरानी रचना .
बड़ी कटीली लिखानिया लागत बा.
जवाब देंहटाएंमज़ा आ गे.
शब्द थाप से युक्त रचना।
जवाब देंहटाएंओह ..बहुत ही सुंदर ...भाव ....
जवाब देंहटाएंइतना खूबसूरत लिखा है ...आँखों के सामने जैसे दृश्य घूम गया ...
lok rang bahut prabhavit karte hain ...
abhar....
सार्थक प्रस्तुति, आभार.
जवाब देंहटाएंPRATIBHA JI,
कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारें, आभारी होऊंगा .
बेहतरीन। बधाई।
जवाब देंहटाएंक्या बात है । बहुत ही भाव विभोर कर दिया आपने अपनी कविता के थाप से । मेरे नए पोस्ट पर आपका आमंत्रण है ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत बहुत सहज और प्यारी रचना लगी..एक ही नज़र में भा गयी...ठीक वैसे ही जैसे किसी छोटे से प्यारे बच्चे को देखकर बेसाख्ता उसे गोद में उठाने को लालायित हो उठता है मन.....
जवाब देंहटाएंपूरी रचना गाँव की माटी जैसी सौंधी सौंधी महकती रही आँखों में...अपने आप मुख पर मुस्कान छाती गयी।
बढ़ियाँ लय और ताल के साथ कित्ता प्यारा नृत्य हो सकेगा न इस गीत पर प्रतिभा जी..:)
आभार इस प्रस्तुति के लिए ..
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल आज 04 -12 - 2011 को यहाँ भी है
जवाब देंहटाएं...नयी पुरानी हलचल में आज .जोर का झटका धीरे से लगा
:)
जवाब देंहटाएंयह लोक रंग खूब जमा है :):)
जवाब देंहटाएंबेहतरीन।
जवाब देंहटाएंसादर
सुन्दर रचना...
जवाब देंहटाएंसादर...
वाह वाह ... मज़ा आ गया इस रचना को पढ़ के ... आनंदित हर गई ...
जवाब देंहटाएंअत्यंत मधुर! :)
जवाब देंहटाएंwah ! itni goodh mathura/vrindawan ki bhaasha aur is jode ki ye takraar bhi sangeet sa lagti hai.
जवाब देंहटाएंsach me mathura ki bhaasha bahut hi saras hai.
It’s a good thing you wrote this article instead of me because I couldn’t come up with all this original content like you did. You are simply an incredible writer.
जवाब देंहटाएंFrom Great talent
इस पोस्ट के लिए धन्यवाद । मरे नए पोस्ट :साहिर लुधियानवी" पर आपका इंतजार रहेगा ।
जवाब देंहटाएंप्रतिभा जी,..
जवाब देंहटाएंपहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ बहुत अच्छा लगा,..
लोक रंग में लिखी बहुत मन भावन सुंदर रचना पसंद आई ..
मेरे ब्लॉग "काव्यान्जली"में आपका स्वागत है,...पढ़िए
आज चली कुछ ऐसी बातें, बातों पर हो जाएँ बातें
ममता मयी हैं माँ की बातें, शिक्षा देती गुरु की बातें
अच्छी और बुरी कुछ बातें, है गंभीर बहुत सी बातें
कभी कभी भरमाती बातें, है इतिहास बनाती बातें
युगों युगों तक चलती बातें, कुछ होतीं हैं ऎसी बातें
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जवाब देंहटाएंरचना जी,क्षमा करें मैंने वह पोस्ट ,जिसका मेरे लिये महत्व है नहीं निकाली ,
जवाब देंहटाएंइन दिनों कुछ अनायास अनपेक्षित हो रहा है,कारण ढूँडने का प्रयत्न कर रही हूँ .
रसीला लोकगीत पढ़कर मन झूम गया।ये विश्वास नहीं हो पाता है कि
जवाब देंहटाएंऐसा हास्यरस से सराबोर गीत उसी लेखनी की रचना है,जिसने पांचाली
में गहन जीवन-दर्शन व्याख्यायित किया है। अनेकानेक साधुवाद!!
प्रतिभा जी,बहुत पहले आपकी "यात्री" कविता ने मुझे अभिभूत किया था।मेरे तथा अन्य पाठकों के आनन्द के लिये कृपया उसे भी
"क्षिप्रा की लहरें" में डाल दें। धन्यवाद!