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स्त्रियाँ भी रोग झेलती हैं ,
बूढ़ी होती , मर जाती हैं .
कुछ नहीं कहतीं;
सब की सुख-सुविधा
का दायित्व निभाते ,
एक दिन ,
चुपचाप संसार से बिदा हो जाती हैं.
*
सुहागिन मरी:बड़े भागोंवाली थी,
(क्वाँरी के भागों सुहागिन मरती है न!)
विधवा मरी: चलो छुट्टी हुई.
कुँवारी मरी: अरे ,एक बोझ हटा सिर से .
होली के माँगनेवाले असीसते आते -
'होली-होली इटियाँ ,मरें तुम्हारी बिटियाँ.'
(और अगली लाइन में).'.. जियें तुम्हारे पूत-भतार'
लकड़ी,पैसा पाते हँसते -
अरे हाँ ,औरत की क्या बिसात!
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और पुरुष ?
अपने पर बन आती जब,
घबरा कर भाग निकलता
आत्म-संवेदन विगलित,
सारे संबंध-अनुबंध तोड़,
मुक्ति खोजता अपनी.
कोई अपराध-बोध नहीं सालता -
बुद्ध हो या प्रबुद्ध !
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बुद्ध हो या प्रबुद्ध हा हा सटीक।
जवाब देंहटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जन्म दिवस - राहुल सांकृत्यायन जी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंनिःशब्द हूँ इस अकाट्य सत्य और चुभती हुयी अभिव्यक्ति पर ... खुद के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लग रहा है ... अपनाप से नज़रें चुराता हुआ सा महसूस होता है ...
जवाब देंहटाएंउफ़. कैसा कैसा सा हो आया मन :(
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर लगी पोस्ट
जवाब देंहटाएंतथाकथित प्रबुद्धों को ये बात कभी समझ नहीं आपकी ।
जवाब देंहटाएंयही दोहरी मानसिकता है ....
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