सोमवार, 12 सितंबर 2016

सार्थक रहने दो शब्दों को --


*
सार्थक रहने दो शब्दों को --

मत करो अर्थ-भ्रष्ट ,
 सार्थक-समर्थ  निर्मल रहने दो.

क्या  शब्द था - दिव्य !!!
जैसे प्रसन्न आकाश ,मुक्त,भव्य ,असीम .
कितना सार्थक त्रुटिहीन .

दिव्यांग बना डाला, 
उन्मुक्ति को अपाहिज कर डाला,
अपूर्ण ,विकल , विहीन.
घोर अपकर्ष
अर्थ का अनर्थ .

 बिंब-प्रतिबिंब-सा
 है,दृष्य और दृष्टि का संबंध .
पूर्ण कौन  यहाँ ?
कहीं न कहीं सब  अधूरे .
और यही विकलता की तड़प 
नये मार्ग खोल, 
नये अर्थों का  अवधान करती है.

साक्षात् मूर्त होकर 
नया अर्थोत्कर्ष पाते हैं शब्द,  
जैसे सूर!
अंधत्व का सूरत्व में समायोजन.
विलक्षण सामर्थ्य का उद्योतन.

जैसे रैदास,  
संज्ञा गरिमामयी हो उठे 
हीनता,गुरुता पा जाए  . 

एक और शब्द-हरिजन,
कितने सम्मान का पात्र रहा . 
 गिरा  डाला इसे भी -
खो बैठा वास्तविक अर्थ  और महिमा,
बन गया  आहत कृपाकांक्षी   . 
 विवर्ण ,विषण्ण श्री-हत.  

मत करो अर्थ-भ्रष्ट शब्दों को -
पूरे अर्थ के साथ दीप्त रहें वे,
आगत को संचित संस्कारों से मंडित कर,   

अपनी विद्यमानता से,
वाणी का भंडार भर,
चिरकाल धन्य करें !
*
- प्रतिभा सक्सेना.




16 टिप्‍पणियां:

  1. पता नहीं समझ पाया हूँ या नहीं पर जो भाव उठा संकोच के साथ कह दे रहा हूँ आज राख और मिट्टी तक बेच लेने वालों के लिये शब्दों के कपड़े उतार कर रख देने में भी कोई शर्म कहाँ रह गयी है ? राजकाज शब्दों के श्रंगार से नहीं चलता है ।

    बहुत सुन्दर ।

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 14 सितम्बर 2016 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. दिव्यता में प्रभुता है !! सार्थक सोच ,उत्कृष्ट अभिव्यक्ति !
    सादर प्रणाम .

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  4. जहाँ तक मुझे याद है यह शब्द उस अदृश्य को दिखाने के लिए रचा गया था जो इतनी विषमताओं के मध्य न जाने किस द्वार से प्रकट हो ही जाता है न कि विकलता को दर्शाने के लिए..फिर भी आपकी चिंता अपनी जगह सही है

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  5. बहुत सार्थक, उपयुक्त और प्रभावी अभिव्यक्ति है , जो मन पर छा गई । अत्यन्त विचारणीय भी है । "दिव्य" शब्द एक अलौकिक आभा से मंडित था, नाम बदलने से रूप तो नहीं बदलता , व्यक्ति का उपहास मात्र होकर
    रह जाता है , खटकता है । शब्दों का ये विकृत अर्थ मन को आहत करता है । यही दुर्घटना तो "हरिजन" के साथ भी हुई है । मुझे भी ये अनर्थ काफ़ी दिनों से व्यथित कर रहा है ।

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  6. शब्द अर्थात ओंकार का नाद .. अब तो केवल शोरगुल रह गया है ।

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  7. "जैसे एक दृष्टिहीन
    औरों को बना गया समर्थ
    शब्दों का स्पर्श देकर!"

    इन तीन पंक्तियों में शब्दों की महिमा छिपी है... वे शब्द जो चमत्कार करते हैं, क्योंकि इन शब्दों में एक पूरा व्यक्तित्व, एक संतति, एक लंबी श्रृंखला होती है.
    गांधी जी ने जब यह शब्द "हरिजन" दिया तो उसमें अन्तर्निहित भाव यह था कि एक विशाल वर्ग को एक सम्मान की छतरी दी जाए.
    किन्तु शब्दों के साथ छेड़छाड़ और उसके छिपे हुए अर्थ अपने अर्थ खोते गए... हरिजन को बहुजन बना दिया गया... और शब्द भी भाषाई गरिमा से विलग होकर राजनैतिक पंक का अविभाज्य अंग बन गए.
    पता नहीं मैं इस कविता के मर्म को स्पर्श कर पाया भी हूँ की नहीं, लेकिन भाषा की दुर्दशा पर व्यथित हूँ. मेरे मं में तो ऐसे कई शब्द कोलाहल मचाते हैं जिनके साथ दुराचार हुआ है इन दिनों.

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    1. बिलकुल ठीक समझा सलिल तुमने,बिना शब्द की पृष्टभूमि समझे प्रभाव और महत्व जाने उसे किसी बहाने से अपकर्षित कर दिया जाय तो ,आगे के लिये वह शब्द ही संस्कार-च्युत हो जायेगा और अब तक चले आ रहे भावार्थ को भी उद्विग्न कर देगा .
      देखो न ,अब तक दिव्य एक अलग ही भाव जगाता था-अलौकिक,भव्य मुक्त आदि और अब विकलांग या हीनांग के अर्थ में आये तो दिव्य वसन-भूषण पहिराये ,दिव्य तेज दिव्यरूप दिव्यांगना आदि के सारे बिंब बाधित हो जायेंगे अर्थ की रमणीयता समाप्त करता दूसरा ही विपरीत भाव सामने अड़ जायेगा .
      'मेरे मं में तो ऐसे कई शब्द कोलाहल मचाते हैं जिनके साथ दुराचार हुआ है इन दिनों.'- मानती हूँ
      कई शब्द हैं पर उदाहरण तो दो-एक के ही दिये जा सकते हैं .

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    2. मम्मी! मेरा इशारा उसी ओर था, किन्तु कुछ सीमाएँ होती हैं एक सरकारी अधिकारी की, जिसने मुझे रोक लिया. आपने मेरे मन की बात कह दी और मुझे संतोष हुआ कि मैंने कविता के मर्म को महसूस किया!

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  8. मेरी समझ में भी नही आया कि यह संज्ञा कब और किसने गढ़ी लेकिन मैंने अभी अभी सुनी और सोच में भी पड़ गई कि इसका अर्थ व उद्देश्य क्या है . क्या यह संज्ञा उस अभाव को दूर कर सकेगी . हरिजन से याद आया कि हमारे एक अध्यापक शब्द के पद-च्युत होजाने के उदाहरण स्वरूप इस शब्द का भी उल्लेख करते थे . एक अन्य उदाहरण में अरहर की टट्टी गुजराती ताला में टट्टी शब्द जब तक टटिया यानी किवाड़ के अर्थ में था तब तक ठीक था . फिर ओट के रूप में .और अन्त में विष्ठा के लिये प्रयुक्त होकर एक अच्छा खासा शब्द अपनी प्रतिष्ठा खो बैठा . सचमुच इसे शब्दों के साथ अनाचार ही कहा जाएगा . आपने एक बहुत ही अच्छा प्रश्न उठाया है .

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  9. हमेशा ही शब्दों के गहन अर्थ होते हैं लेकिन शब्दों की गरिमा को न समझ अपने हिसाब से उनको परिभाषित कर शब्दों के रूढ़ अर्थों के साथ खिलवाड़ ही है . सादर

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  10. आज शब्दों को जिस तरह लिया जा रहा है वो केवल मजाक है उनके सही अर्थों का ... इनकी गरिमा का भान न भाशाविधों को है न प्रयोग करने वालों को ...
    बहुत ही सार्थक लिखा अहि आपने ...

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