( यह कविता प्रस्तुत करते मन में संशय है कि कोई आद्यन्त पढ़ेगा भी .फिर भी ब्लाग है मेरा , यहाँ अंकित करूँगी तो ही ...)
*
कवि,
महाकाल ,माँगता नहीं मृदु-मधुर मात्र ,
सारे स्वादों से युक्त परोसा वह लेगा.
भोजक, सब रस वाले व्यंजन प्रस्तुत कर दे
अपनी रुचि का वह ग्रास स्वयं ही भर लेगा .
रसपूरित मधु भावों के संग तीखे कषाय भी हों अर्पण
वर्णों -वर्गों में स्वर के सँग धर दो कठोर और कटु व्यंजन
उसकी थाली में सभी स्वाद ,सारे रस- भावनुभाव रहें
अन्यथा सभी को उलट-पलट अपना आस्वादन ढूँढेगा !
*
रुचि का परिमार्जन है अनिवार्य शर्त उसकी
उन दाढ़ों में सामर्थ्य कि सभी करे चर्वण ,
कड़ुए का खट्टे का परिपाक न पाया तो
अपने हिसाब से औटेगा ले वही स्वयं.
उस रुद्र रूप को ,तीखापन ज़्यादा भाता
युग -युग के संचित कर्मों के आसव के सँग
नयनों में उसके थोड़ा नशा उतर आता ,
खप्पर में भरे तरल का ले अरुणाभ रंग !
*
वह ग्रास-ग्रास कर जो भाये वह खायेगा ,
जब चाहे जागे या चाहे सो जायेगा
उसकी अपनी ही मौज और अपनी तरंग !
कवि ,उसको दो जीवन का आस्वादन समग्र !
सबसे प्रिय भावांजलि ही स्वीकारेगा
दिख रहा सभी जो उसका एक परोसा है ,
क्रम--क्रम से कवलित कर लेना उसका स्वभाव .
*
बाँटता अवधि का दान कि जिसका जो हिस्सा ,
सिर चढ़ कर वह कीमत भी स्वयं वसूलेगा ?
भोजन परसो कवि ,महाकाल की थाली में,
षट्र्स नव रस में परिणत कर दो नये स्वाद ,
पकने दो उत्तापों की आँच निरंतर दे ,
रच रच पागो अंतर की कड़ुआहट- मिठास
नित-नूतन स्वाद ग्रहण करने का आदी है ,
परिपक्व बना प्रस्तुत कर दो
स्वर के व्यंजन
नव रस भर धर उसके समक्ष .
*
हो वीर -रौद्र सँग करुणा में डूबा विषाद !
वत्सलता उन नन्हों को जो बच जाते हैं
निर्- आश्रित हो उस विषम काल के तुरत बाद !
कवि अगर दे सको ,अपने कोमल भाव उन्हें ,
दे दो उछाह से भरा प्रेम का राग उन्हें !
मुरझाई छिन्न कली को साहस शान्ति धीर ,
बेआस बुढ़ापा शान्ति- भक्ति से संजीवन !
सब उस अदम्य की थाती शिरसा स्वीकारो
कुछ नये मंत्र उच्चार करो दे नये तंत्र का आश्वासन !
*
निश्चिंत हृदय निश्चित सीमा , अग्रिम ही सब कुछ लो सँवार,
सब डाल चले अपने खप्पर में भऱ वह जब
यों ग्रहण करे तो धन्य समझ अन्अन्य भाग !
वह जन्म-मृत्यु का भोग लगाता नित चलता !
जो दाँव स्वयं को लगा ,सके आगे आये
अपनी अभिलाषा आशायें आकर्षण भी
सारे सपने उसके खप्पर में धर जाये !
कवि वह अपराजित टेर रहा ,लाओ दो धर
बढ कर चुन लेगा ताज़े पुष्प मरंद भरे
सबसे टटकी कलियाँ बिंध माल सजायें उसकी छाती पर ,
उसकी पूजा में कौन डाल पाये अंतर !
*
अक्षत अंजलि संकल्पित हो सम्मान सहित ,
जो बिना शिकायत सहज भाव न्योछावर दे
बिन झिझके सौंपे अपने प्रियतम चरम भाव
निरउद्विग्न मनस् धर चले ,आरती- भाँवर दे !
धर दे निजत्व उसके आगे विरहित प्रमाद !
प्रस्तुत कर दे रे, महाकाल का महा- भोग
तू भी है उसकी भेंट ,स्वयं बन जा प्रसाद !
*
उसके कदमों की आहट पर जीते हैं युग ,
उसके पद-चाप बदल देते इतिहासों को !
संसार सर्ग,युग एक भाव ,
मन्वंतर कल्प करवटें ,युग-संध्यायें निश्वास हेतु
इस महाकाश में लेते उसके चित्र रूप !
है महाकाव्य यह सृष्टि, बाह्य-अंतःस्वरूप
अनगिनती नभ-गंगायें ये विस्तृत-विशाल ,
उसका आवेष्टन रूप व्याप्तिमय व्याल-जाल !
उस महाराट् के लिये
बहुत लघु,लघुतम हम ,
पर उस लघुता में भी है उसका एक रूप !
*
बस यही शर्त ,जिसको भाये आगे आये
आमंत्रण स्वीकारे , तम के प्रतिकार हेतु ,
अनसुनी करे जो इस दुर्वह पुकार को सुन,
वह लौट जाय निज शयन-भवन अभिसार हेतु !
*
कवि ,चिर प्रणम्य वह माँग रहा
तेरे उदात्ततम अंतःस्वर !
जिसमें युगंधरा गाथायें निज को रचतीं !
जो महाभाव से आत्मसात् हो सके सतत्
उसका अपना स्व-भाव उसकी तो परख यही
सत्कृत कर ,धरो सधे शब्दों का ऐसा क्रम ,
जिसमें तुम समा सको संसृति के चरम भाव !
*
वह नृत्य करेगा महसृष्टि को मंच बना ,
लपटों को हहराता सब तमस् जला देगा ,
उन्मत्त चरण धर आकाशों को चीर-चीर
क्षितिजों के घेरे तोड़ गगन दहका देगा !
*
भीषण भावों के व्यक्त रूप मुद्राओं में
भर मृत्यु- राग उठते भैरव डमरू के स्वर
लिपि बद्ध कर सको भाषा में लक्षित-व्यंजित
तो समझो तुम तद्रूप हो गये अमर-अजर !
*
*
कवि,
महाकाल ,माँगता नहीं मृदु-मधुर मात्र ,
सारे स्वादों से युक्त परोसा वह लेगा.
भोजक, सब रस वाले व्यंजन प्रस्तुत कर दे
अपनी रुचि का वह ग्रास स्वयं ही भर लेगा .
रसपूरित मधु भावों के संग तीखे कषाय भी हों अर्पण
वर्णों -वर्गों में स्वर के सँग धर दो कठोर और कटु व्यंजन
उसकी थाली में सभी स्वाद ,सारे रस- भावनुभाव रहें
अन्यथा सभी को उलट-पलट अपना आस्वादन ढूँढेगा !
*
रुचि का परिमार्जन है अनिवार्य शर्त उसकी
उन दाढ़ों में सामर्थ्य कि सभी करे चर्वण ,
कड़ुए का खट्टे का परिपाक न पाया तो
अपने हिसाब से औटेगा ले वही स्वयं.
उस रुद्र रूप को ,तीखापन ज़्यादा भाता
युग -युग के संचित कर्मों के आसव के सँग
नयनों में उसके थोड़ा नशा उतर आता ,
खप्पर में भरे तरल का ले अरुणाभ रंग !
*
वह ग्रास-ग्रास कर जो भाये वह खायेगा ,
जब चाहे जागे या चाहे सो जायेगा
उसकी अपनी ही मौज और अपनी तरंग !
कवि ,उसको दो जीवन का आस्वादन समग्र !
सबसे प्रिय भावांजलि ही स्वीकारेगा
दिख रहा सभी जो उसका एक परोसा है ,
क्रम--क्रम से कवलित कर लेना उसका स्वभाव .
*
बाँटता अवधि का दान कि जिसका जो हिस्सा ,
सिर चढ़ कर वह कीमत भी स्वयं वसूलेगा ?
भोजन परसो कवि ,महाकाल की थाली में,
षट्र्स नव रस में परिणत कर दो नये स्वाद ,
पकने दो उत्तापों की आँच निरंतर दे ,
रच रच पागो अंतर की कड़ुआहट- मिठास
नित-नूतन स्वाद ग्रहण करने का आदी है ,
परिपक्व बना प्रस्तुत कर दो
स्वर के व्यंजन
नव रस भर धर उसके समक्ष .
*
हो वीर -रौद्र सँग करुणा में डूबा विषाद !
वत्सलता उन नन्हों को जो बच जाते हैं
निर्- आश्रित हो उस विषम काल के तुरत बाद !
कवि अगर दे सको ,अपने कोमल भाव उन्हें ,
दे दो उछाह से भरा प्रेम का राग उन्हें !
मुरझाई छिन्न कली को साहस शान्ति धीर ,
बेआस बुढ़ापा शान्ति- भक्ति से संजीवन !
सब उस अदम्य की थाती शिरसा स्वीकारो
कुछ नये मंत्र उच्चार करो दे नये तंत्र का आश्वासन !
*
निश्चिंत हृदय निश्चित सीमा , अग्रिम ही सब कुछ लो सँवार,
सब डाल चले अपने खप्पर में भऱ वह जब
यों ग्रहण करे तो धन्य समझ अन्अन्य भाग !
वह जन्म-मृत्यु का भोग लगाता नित चलता !
जो दाँव स्वयं को लगा ,सके आगे आये
अपनी अभिलाषा आशायें आकर्षण भी
सारे सपने उसके खप्पर में धर जाये !
कवि वह अपराजित टेर रहा ,लाओ दो धर
बढ कर चुन लेगा ताज़े पुष्प मरंद भरे
सबसे टटकी कलियाँ बिंध माल सजायें उसकी छाती पर ,
उसकी पूजा में कौन डाल पाये अंतर !
*
अक्षत अंजलि संकल्पित हो सम्मान सहित ,
जो बिना शिकायत सहज भाव न्योछावर दे
बिन झिझके सौंपे अपने प्रियतम चरम भाव
निरउद्विग्न मनस् धर चले ,आरती- भाँवर दे !
धर दे निजत्व उसके आगे विरहित प्रमाद !
प्रस्तुत कर दे रे, महाकाल का महा- भोग
तू भी है उसकी भेंट ,स्वयं बन जा प्रसाद !
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उसके कदमों की आहट पर जीते हैं युग ,
उसके पद-चाप बदल देते इतिहासों को !
संसार सर्ग,युग एक भाव ,
मन्वंतर कल्प करवटें ,युग-संध्यायें निश्वास हेतु
इस महाकाश में लेते उसके चित्र रूप !
है महाकाव्य यह सृष्टि, बाह्य-अंतःस्वरूप
अनगिनती नभ-गंगायें ये विस्तृत-विशाल ,
उसका आवेष्टन रूप व्याप्तिमय व्याल-जाल !
उस महाराट् के लिये
बहुत लघु,लघुतम हम ,
पर उस लघुता में भी है उसका एक रूप !
*
बस यही शर्त ,जिसको भाये आगे आये
आमंत्रण स्वीकारे , तम के प्रतिकार हेतु ,
अनसुनी करे जो इस दुर्वह पुकार को सुन,
वह लौट जाय निज शयन-भवन अभिसार हेतु !
*
कवि ,चिर प्रणम्य वह माँग रहा
तेरे उदात्ततम अंतःस्वर !
जिसमें युगंधरा गाथायें निज को रचतीं !
जो महाभाव से आत्मसात् हो सके सतत्
उसका अपना स्व-भाव उसकी तो परख यही
सत्कृत कर ,धरो सधे शब्दों का ऐसा क्रम ,
जिसमें तुम समा सको संसृति के चरम भाव !
*
वह नृत्य करेगा महसृष्टि को मंच बना ,
लपटों को हहराता सब तमस् जला देगा ,
उन्मत्त चरण धर आकाशों को चीर-चीर
क्षितिजों के घेरे तोड़ गगन दहका देगा !
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भीषण भावों के व्यक्त रूप मुद्राओं में
भर मृत्यु- राग उठते भैरव डमरू के स्वर
लिपि बद्ध कर सको भाषा में लक्षित-व्यंजित
तो समझो तुम तद्रूप हो गये अमर-अजर !
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अद्भुत ! महाकाल के स्वादों को किस प्रकार जाना आपने..कभी भगवद गीता का विश्व रूप याद आता रहा कभी निराला की कोई कविता..सस्वर पाठ ही नहीं किया इसे मोबाइल में रिकार्ड भी किया. बहुत बहुत बधाई इस अप्रतिम रचना के लिए..महाकाल की थाली में जो भी परोसा जाना है वह भीतर की गहराई से निकालना होगा..कुछ भी छिपाए बिना अदम्य साहस के साथ..सृष्टि के रंगमंच पर उसका तांडव निरंतर चल रहा है, उसमें भागीदार बनकर ही उसको परोसने में हम सक्षम हो सकते हैं..
जवाब देंहटाएंआप ने जिस प्रकार इसे ग्रहण किया मैं अभिभूत हूँ -गीता और निराला बहुत बड़ी हस्तियाँ हैं,इस प्रकरण में उनकी याद आना इस कविता के लिये गौरव की बात है .मैं आभारी हूँ अनिता जी .
हटाएंमम्मी!
जवाब देंहटाएंअनिता जी का कमेन्ट बाद में पढ़ा मैंने, लेकिन बिलकुल वही भाव मेरे भी मन में भी चल रहा था. मुझे ऐसा लगा कि इसे मन ही मन पढाना न सिर्फ असंभव है, बल्कि इस रचना के साथ अन्याय भी होगा. "सरोज स्मृति" या "राम की शक्ति पूजा" जैसी रचनाओं की तरह, पहली पंक्ति के बाद ही यह रचना स्वरों के आरोह - अवरोह के साथ पढने को विवश कर देती है. अंतिम छन्दों ने तो मानो दृश्य सा अंकित कर दिया है और सामने रंगमंच का विस्तार और महाकाल का महातांडव...
कुछ भी कहना मेरे लिये संभव नहीं. बस चरण स्पर्श कर रहा हूँ, मम्मी!
मैं भी पूरा पढ़ी
हटाएंलेकिन असमर्थ हूँ कुछ कहने में
बस एक बार पढ़ कर तत्क्षण दावा करना
जवाब देंहटाएंमैंने पढ़ ली, गुन ली समझी कविता समग्र |
संभव हो सकता किसी किसी के लिए मगर,
जिसका हो रोम रोम सिहरा वो क्या बोले ...
मैं तो पूरा डूबा भी नहीं अभी केवल ..
लहरों ने मुझे समेटा भर है आँचल में |
ये लहरें ही देंगी उछाल वापस मुझको ...
तब शायद वाणी साथ निभा पाए मेरा
जीते जी महाकाल को किसने देखा है,
जिसने देखा वो भला बता पाया किसको ?
अद्भुत चिंतन , लेखन, गुंजन, लय ताल छंद
सब ज्यों सम्मुख, बस शेष परोसा जाना भर ...
कुछ और भले कहने में नहीं समर्थ मगर ,
है महाकाल को नमन, लेखनी को प्रणाम !!!!!
आपकी प्रतिक्रिया पढ़ कर आपके ब्लाग पर जाने का प्रयत्न किया -नहीं मिला.फिर सलिल से आपके कथ्य के सहारे फ़ेसबुक पर आपका परिचय (आशुकवि/ सञ्चालक ,गीतकार/ हास्य +क्रिएटिव राईटर (विज्ञापन फ़िल्म,जिंगल,शीर्षक गीत,रेडियो+टीवी सीरियल)जाना .इतना बहुमुखी व्यक्तित्व की सराहना पाना मेरे लेखन के लिये गौरव की बात है .आपने इतने मनोयोग से पढ़ कर टिप्पणी की मैं आभारी हुई .
हटाएं.
मैंने भी इस टिप्पणी से प्रभावित होकर टिप्पणीकार का परिचय जानना चाहा था .पर पता मिला फेसबुक पर जो इन्होंने अपनी टिप्पणी में खुद ही दिया है .टिप्पणी को एक सुन्दर कविता बन देना कोई इनसे और सलिल भाई से सीखे .
हटाएंमैंने भी इस टिप्पणी से प्रभावित होकर टिप्पणीकार का परिचय जानना चाहा था .पर पता मिला फेसबुक पर जो इन्होंने अपनी टिप्पणी में खुद ही दिया है .टिप्पणी को एक सुन्दर कविता बन देना कोई इनसे और सलिल भाई से सीखे .
हटाएंमैंने भी इस टिप्पणी से प्रभावित होकर टिप्पणीकार का परिचय जानना चाहा था .पर पता मिला फेसबुक पर जो इन्होंने अपनी टिप्पणी में खुद ही दिया है .टिप्पणी को एक सुन्दर कविता बन देना कोई इनसे और सलिल भाई से सीखे .
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंमाँ आपने जिस तरह महाकाल के निस्सीम , विविध और विराट स्वरूप को प्रस्तुत किया है और उसे प्रेरणा बनाकर जिस ओज के साथ कवि का आह्वान किया है , अद्भुत है . अभिभूत हूँ पढ़कर .महाकाल को सबकुछ दाँव पर लगाकर आने वाला , तम को ललकारने वाला और ‘शीश काटकर भुँइ ‘ धरने वाला कवि चाहिये .’लक्षित और व्यंजित’ को पूरे प्रभाव के साथ लिपिबद्ध करने वाला और ‘परिमार्जित रुचि’ वाला साहसी कवि चाहिये जो विसंगतियों को ललकारे भी और जीवन के सौन्दर्य व आनन्द को भी पहचाने . कवि को प्रेरणा देने व ललकारने के लिये महाकाल की प्रेरणा एक बड़ा सन्देश है . भला जंग को किसी फूल से छुटाया जा सकता है ... हाँ भाई सलिल जी ने सही कहा है कि बिना लय के कविता पढ़ना कविता के साथ अन्याय है . और यह भी कि राम की शक्ति पूजा के ( उसका भी प्रारंभिक हिस्सा) बाद वैसी कविता यही मिली है पढ़ने .नतमस्तक हूँ .
जवाब देंहटाएंप्रिय गिरिजा,
हटाएंजिस प्रकार तुमने भावन किया ,अंतर्निहित जो कुछ खोज लिया उसमें तुम्हारी अपनी संवेदना का पूरा योगदान है. बाहर की प्रतिच्छवि तभी प्रत्यक्ष होती है जब अंतर्मन स्वयं बिंबित-प्रतिबिंबित होने में समर्थ हो. अपेक्षायें दोनों ओर समरूप हों तभी तो...
माँ आपने जिस तरह महाकाल के निस्सीम , विविध और विराट स्वरूप को प्रस्तुत किया है और उसे प्रेरणा बनाकर जिस ओज के साथ कवि का आह्वान किया है , अद्भुत है . अभिभूत हूँ पढ़कर .महाकाल को सबकुछ दाँव पर लगाकर आने वाला , तम को ललकारने वाला और ‘शीश काटकर भुँइ ‘ धरने वाला कवि चाहिये .’लक्षित और व्यंजित’ को पूरे प्रभाव के साथ लिपिबद्ध करने वाला और ‘परिमार्जित रुचि’ वाला साहसी कवि चाहिये जो विसंगतियों को ललकारे भी और जीवन के सौन्दर्य व आनन्द को भी पहचाने . कवि को प्रेरणा देने व ललकारने के लिये महाकाल की प्रेरणा एक बड़ा सन्देश है . भला जंग को किसी फूल से छुटाया जा सकता है ... हाँ भाई सलिल जी ने सही कहा है कि बिना लय के कविता पढ़ना कविता के साथ अन्याय है . और यह भी कि राम की शक्ति पूजा के ( उसका भी प्रारंभिक हिस्सा) बाद वैसी कविता यही मिली है पढ़ने .नतमस्तक हूँ .
जवाब देंहटाएंमेरे आने में देरी का ये असर हुआ की सभी शब्द शायद कह दिए गए या इस कालजयी रचना ने स्वयं लिखवा लिए ... सच में अनुपम काव्यानुभूति है इस रचना को पढना ... मन के कवि युग के कवि को आह्वान करती आपकी रचना ... महाकाल को शब्दों के काल खंड में समेटने का भागीरथ प्रयास ... मुद्रा, भाव, स्वाद, अर्थ को शब्दों में अजर अमर बनाने के साहस को चुनौती देता काव्य .... शायद कुछ भी कहने को शब्द अपूर्ण हैं मेरे पास ... अप्रतिम रचना ...
जवाब देंहटाएंबस .... " तुम तद्रुप हो गए अजर अमर "
जवाब देंहटाएंअदभुत रचना
जवाब देंहटाएंसादर
अप्रतिम अद्भुत अभिव्यक्ति...निशब्द करते अहसास...
जवाब देंहटाएंयह रचना मैं पहले भी पढ़ कर बिना कुछ लिखे जा चुकी हूँ ... दरअसल इस रचना पर कुछ कहने या लिखने का साहस ही नहीं हुआ ... बस सारे नव रस में जैसे डूबी सी ही रह गयी थी .... आज भी कुछ लिखने की सामर्थ्य नहीं है . बस ये कहना चाहूंगी कि इस कविता को पढ़ते हुए मुझे दिनकर की ओजस्वी वाणी का अहसास हुआ और जैसे कुरुक्षेत्र पद्धति हूँ वैसे ही इसे भी पढ़ा ... बार बार पढ़ा .... सादर .
जवाब देंहटाएंमेल से प्रप्त -
जवाब देंहटाएं" वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम ,
त्वया ततं विश्वमनन्तरूपम् । " - गीता
***
जिसका दर्शन नहीं किया है ,
तुमने ,मैंने और किसी ने ।
विश्वरूप उस महाकाल का,
चित्र बनाया इस कविता ने ।।
*
नवरस, षट् रस, भावानुभाव को,
द्वन्द्वात्मक जग के स्वरूप को।
जिसने "स्व" में किया समाहित,
शुभ और अशुभ,समय- असमय को ।।
*
अन्तर्मन में पैठ के गहरे ,
ध्यानस्थ मन से जिसको जाना ।
है अपूर्व ये ज्ञान तुम्हारा,
जो तुमने उसको पहचाना ।।
*
निर्विकार होकर जो जग का,
संचालन, संहारण करता ।
बार बार कविता में डूबी,
समझ न पाई उसकी सत्ता ।।
*
रहस्यमयी अद्भुत विभूति की,
मुझे हुई अनुभूति सुखद सी ।
अक्षम हूँ अभिव्यक्ति में उसकी,
" गूँगे के गुड़ " की ही जैसी ।।
********
- शकुन्तला बहादुर
चित्र बनाया इस कविता ने ।।
*
नवरस, षट् रस, भावानुभाव को,
द्वन्द्वात्मक जग के स्वरूप को।
जिसने "स्व" में किया समाहित,
शुभ और अशुभ,समय- असमय को ।।
*लिख रही हूँ । आपको ठीक लगे तो वहाँ पर डाल सकती हैं ।
महाकाल -
" वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम ,
त्वया ततं विश्वमनन्तरूपम् । " - गीता
***
जिसका दर्शन नहीं किया है ,
तुमने ,मैंने और किसी ने ।
विश्वरूप उस महाकाल का,
अन्तर्मन में पैठ के गहरे ,
ध्यानस्थ मन से जिसको जाना ।
है अपूर्व ये ज्ञान तुम्हारा,
जो तुमने उसको पहचाना ।।
*
निर्विकार होकर जो जग का,
संचालन, संहारण करता ।
बार बार कविता में डूबी,
समझ न पाई उसकी सत्ता ।।
*
रहस्यमयी अद्भुत विभूति की,
मुझे हुई अनुभूति सुखद सी ।
अक्षम हूँ अभिव्यक्ति में उसकी,
" गूँगे के गुड़ " की ही जैसी ।।
********
- शकुन्तला बहादुर
बहुत ही उम्दा .... sundar lekh .... Thanks for sharing this nice article!! :) :)
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