*
युग-युगों के बाद ऐसा दिन दिखाया
चंडिका का मंत्र, अभिनन्दन करो रे !
आ गई बेला करो प्रस्थान रण का ,
सामने आ शक्ति का वंदन करो रे ,
*
महाशक्ति बने कि सम्मुख खड़ी दुर्गा
साथ हो कर हाथ के आयुध बढ़ाओ
राष्ट्र को ऐसा सुअवसर कब मिले फिर
स्वाभिमान जगे ,कि अपना सिर उठाओ
*
उधर पश्चिम द्वार कब से खटखटाता ,
सिन्धु नद व्याकुल प्रतीक्षा में खड़ा है
टेरती रावी ,शतद्रु हिलोर भरती ,
मनुजता के कत्ल का दानव अड़ा है
*
पूर्व सागर के किनारे बाहु फैला,
बंग घायल बार-बार पुकार भरता ,
अंक में भर लो मुझे फिर से मिला लो
खंड-खंडित, भग्न अंतर ले बिखरता .
*
पौध विष की जड़ सहित क्षिति से उखाड़ो
बुद्धि-विद्या-ज्ञान के दुश्मन सदा के,
मनुज-संस्कृति के विदारक दस्यु-धर्मी
विश्व-द्रोही, जीव तम के, रक्त - प्यासे ,
*
कृतघ्नी बन पूर्वजों का, अन्न-जल का ,
जन्म-भू से द्रोह करना जो सिखा दे .
युग-युगों की साधनाओं के सुफल को ,
मत्त पशु सा खूँद दे, जड़ से मिटा दे .
*
उठो शिव-संकल्प ले, अह्वान स्वर में ,
चंडिका के दूत बन, दे दो चुनौती
प्रलयकारी शक्ति के इस संचरण में
पूर्ण कर लो, काल से माँगी मनौती !
*
यह विरूपित, महादेश स्वरूप पा ले ,
कंठ में अपनी वही मणि-माल डाले .
और गुरु-गंभीर स्वर जय-स्तोत्र गूँजें
अवतरण नव कर चलें जीवन- ऋचाएँ !
*
युग-युगों के बाद ऐसा दिन दिखाया
चंडिका का मंत्र, अभिनन्दन करो रे !
आ गई बेला करो प्रस्थान रण का ,
सामने आ शक्ति का वंदन करो रे ,
*
महाशक्ति बने कि सम्मुख खड़ी दुर्गा
साथ हो कर हाथ के आयुध बढ़ाओ
राष्ट्र को ऐसा सुअवसर कब मिले फिर
स्वाभिमान जगे ,कि अपना सिर उठाओ
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उधर पश्चिम द्वार कब से खटखटाता ,
सिन्धु नद व्याकुल प्रतीक्षा में खड़ा है
टेरती रावी ,शतद्रु हिलोर भरती ,
मनुजता के कत्ल का दानव अड़ा है
*
पूर्व सागर के किनारे बाहु फैला,
बंग घायल बार-बार पुकार भरता ,
अंक में भर लो मुझे फिर से मिला लो
खंड-खंडित, भग्न अंतर ले बिखरता .
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पौध विष की जड़ सहित क्षिति से उखाड़ो
बुद्धि-विद्या-ज्ञान के दुश्मन सदा के,
मनुज-संस्कृति के विदारक दस्यु-धर्मी
विश्व-द्रोही, जीव तम के, रक्त - प्यासे ,
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कृतघ्नी बन पूर्वजों का, अन्न-जल का ,
जन्म-भू से द्रोह करना जो सिखा दे .
युग-युगों की साधनाओं के सुफल को ,
मत्त पशु सा खूँद दे, जड़ से मिटा दे .
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उठो शिव-संकल्प ले, अह्वान स्वर में ,
चंडिका के दूत बन, दे दो चुनौती
प्रलयकारी शक्ति के इस संचरण में
पूर्ण कर लो, काल से माँगी मनौती !
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यह विरूपित, महादेश स्वरूप पा ले ,
कंठ में अपनी वही मणि-माल डाले .
और गुरु-गंभीर स्वर जय-स्तोत्र गूँजें
अवतरण नव कर चलें जीवन- ऋचाएँ !
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Very impressive creation.
जवाब देंहटाएंअद्भुत ....!
जवाब देंहटाएंकमाल का लेखन है आपका ...!!नमन आपकी लेखनी को ....हृदय से ...!!
वाह....
जवाब देंहटाएंबेमिसाल......
सादर
अनु
बहुत सुंदर !
जवाब देंहटाएंबहुत ही सशक्त और प्रेरक, शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम.
ओजपूर्ण!!!
जवाब देंहटाएंओज़स्वी ... कभी कहीं पे एक रचना पढ़ी थी ...
जवाब देंहटाएंभारत पुनीत भारत विशाल ... इस विशाल पुनीत देश को आज ऐसी ही लेखनी और पुनः तलवार की जरूरत है ...
बहुत सुन्दर ...अद्भुत रचना के लिए बचाई
जवाब देंहटाएंवाह ! बहुत शानदार रचना
जवाब देंहटाएंभारत को आज ऐसे ही बल की जरूरत है..बधाई जोशमयी इस रचना के लिए!
जवाब देंहटाएंआह्वान संग चुनौतियों के बीच शंखनाद करती रणभेरी माता जी प्रणाम स्वीकारें नमन योग्य
जवाब देंहटाएंअर्थपूर्ण , सशक्त रचना
जवाब देंहटाएंप्रभावित करती रचना .
जवाब देंहटाएंपुकारती धरा तुझे..
जवाब देंहटाएंझँकझोरती पंक्तियाँ..
अद्भुत ....!!!
जवाब देंहटाएंआज ऐसी ही ललकार की जरूरत है जो सोयी आत्मा को जगा दे .
नमन ....
बहुत ही सुन्दर कविता..
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना।।।
जवाब देंहटाएंआपकी इस ब्लॉग-प्रस्तुति को हिंदी ब्लॉगजगत की सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुतियाँ ( 6 अगस्त से 10 अगस्त, 2013 तक) में शामिल किया गया है। सादर …. आभार।।
जवाब देंहटाएंकृपया "ब्लॉग - चिठ्ठा" के फेसबुक पेज को भी लाइक करें :- ब्लॉग - चिठ्ठा