शनिवार, 20 मार्च 2010

निवृत्ति

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चाहती हूँ जिऊं जीवन के बचे दिन ,
यहाँ के कोलाहलों से दूर सुरसरि के किनारे !
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देव-सा हिमगिरि जहां दर्शन दिखाए ,
प्रकाशित निर्मल रहें सारी दिशाएँ
मन यही करता यहाँ से दूर जिस थल
न हों जटिला बुद्धि के तर्किल सहारे !
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द्वंद्व-रहित निचिन्त होकर जी सकूँ मैं ,
शान्ति को पंचामृतों सा पी सकूँ मैं ,
बँधी सारी डोरियों को खोल कर ,
उन्मुक्ति का संज्ञान अंतर में सँवारे
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सभी आपाधापियाँ छूटें यहीं पर ,
तू न मैं, सारे अहं बीतें यहीं पर ,
एक हल्कापन सहज ही घेर ले
छाये चतुर्दिक जाल कर दे स्वच्छ सारे !
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दर्शकों में जा मिलूँ कपड़े बदल कर ,
आज तक के सभी आरोपण निफल कर
नाट्य -रूपक जो निभाने में लगे थे ,
मंच छोड़ूँ , फेंक दूँ संवाद सारे !
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मित्र यह तन की नहीं, मन की थकन है ,
तुम हँसो तो यह तुम्हारा ही वहम है ,
व्यर्थ मत संवेदना का बोझ देना
बेवजह कहना न कुछ बिन ही विचारे !
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मिला मन ऐसा, कहीं लगता नहीं है ,
लोक का व्यवहार अब सधता नहीं है ,
खड़ी चकराई रहूँ बेमेल सी
इस अजनबीयत को कहां तक शीश धारे !
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4 टिप्‍पणियां:

  1. कई रंगों को समेटे एक खूबसूरत भाव दर्शाती बढ़िया कविता...बधाई

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  2. खड़ी चकराई रहूँ बेमेल सी
    इस अजनबीयत को कहां तक शीश धारे !

    वाक़ई !
    कभी कभी ऐसा ही महसूस होता है एकदम.......सहजता को चाहते हुए अक्सर कितने जटिल हो जाते हैं हमारे मन......बेवजह भार बढ़ता जाता है....और यही वजन इस दुनिया से और भी ज़्यादा जोड़ देता है.....भारहीन होकर सांसारिक विषयों से ऊपर उठ जाएँ...तो जीवन सफल हो !

    'लोक का व्यवहार अब सधता नहीं है ,'
    :)..मुझसे तो अभी से सब झंझट लगने लगा है.....:( ...मुझे भी ५० साल पहले जन्म ले लेना चाहिए था.....आजकल का तेज़ी से भागता ज़माना कई जगह पीछे छोड़ देता है..:(

    बहरहाल....
    ''फेंक दूँ संवाद''.....बहुत बढियां लगा ये पढना...संवाद फेंक देना..:)
    बहुत ही अच्छी कविता...और सरल भी....:)

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