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हड्डी चिंचोड़ने की आदत
अपने बस में कहाँ कुत्तों के .
मांस देख ,मुँह से टपकाते लार
वहीं मँडराते ,सूँघते .
तप्त मांस-गंध से हड़की
लालसा रह-रह,
आँखों में लपलपाती ,
तप्त मांस-गंध से हड़की
लालसा रह-रह,
आँखों में लपलपाती ,
अाकुल पंजे रह-रह काँपते ,
टूट पड़ते मौका देख .
बाप ,भाई, फूफा, मामा ,चाचा ,
रिश्ते ,बेकार सारे .
बताओ ,बेटी-बहन किधर से
गर्म गोश्त नहीं होतीं ?
फिर तो अहल्या हो ,उपरंभा हो ,
निर्भया या कोई नादान बाला ,
क्या फ़र्क पड़ता है ?
भयभीत हो दबा ले भले
टेढी दुम ,
कौन सीधी कर पाया आज तक ?
बाज़ आया कभी
अपने कुत्तेपन से !
अपने कुत्तेपन से !
आदमी ऐसा क्यों होता है ?
*
- प्रतिभा.
इतना ही नहीं और भी होता है ये आदमी
जवाब देंहटाएंसब कुछ कह देना सब के बस में नहीं होता है
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति।
दिनांक 12/12/2017 को...
जवाब देंहटाएंआप की रचना का लिंक होगा...
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी इस चर्चा में सादर आमंत्रित हैं...
आभार,कुलदीप जी.
जवाब देंहटाएंसही कहा प्रतिभा जी कि यही बात आज तक समझ में नहीं आई कि आदमी ऐसा क्यों होता हैंंं? सुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंमेरे समझ से जिस तरह से जानवरों में कुछ सीधे और कुछ बहुत हिंसक जानवर होते हैं उसी तरह आदमी भी एक जैसे नहीं होते
जवाब देंहटाएंसही बात कहना आसान नहीं होता... बहुत उम्दा रचना
जवाब देंहटाएंवाह ! क्या ख़ूब कहा !
जवाब देंहटाएंआदमी का वहशीपन धीरे-धीरे सतह पर आ गया है। रोज़ आ रहे समाचारों से विचलित कवि मन कुछ इसी तरह मुखर होकर गरियाता है आदमी के दरिंदा हो जाने पर। रिश्ते अब रोज़ कलंकित हो रहे हैं। सभ्यता की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए हम कहाँ आ गए हैं जहाँ सबसे ख़तरनाक़ प्राणी आदमी हो गया है। सोचने को विवश करती संवेदनाओं को झिंझोड़ती रचना।
आदमी अपनी सत्ता/शारीरिक बल के सुख/आवेग में ऐसा होता है ... अपनी पाशविक प्रवृति के मद में अट्टहास करता है ... ये आज से नहीं अनादी काल से हो रह है ... आज के समय में तो सभी सीमाएं पार कर गया है ... सोचने को विवश करती हुयी रचना ...
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