*
धिक्कार नं. 1.
तोड़ा घर बाँटा आँगन भी बाप कर लिये दूजे
अनजानी गैरों की धरती को तीरथ कह पूजे
गर्भनाल उनके बापों की अब भी जहाँ गड़ी है
हीन मनों में उस धरती के प्रति यों घृणा भरी है .
पुरखों को नकार भागे थे ये कृतघ्न औ कायर
अपने सारे सच झुठला देते हैं जिल्लत सह कर .
अरे, अभी उनकी तो नानी यहीं कहीं पर होगी -
ऐसी औलादों पर अपने करम कूटती रोती.
युग-युग के संस्कार भूल बन बैठे कैसे बर्बर,
हम ही जियें पूर्व पुरुषों के नाम-निशान मिटा कर ,
अर्जित ज्ञान ,कला विद्यायें औऱ सभ्यता-संस्कृति
उनके लिये व्यर्थ हो जातीं ,पशुवत् हो जिनकी मति .
सब अस्तित्व मिटा डालेंगे धरोहरी कृतियाँ भी ,
इतिहासों के पृष्ठ साक्षी देते उन अतियों की .
धिक्, ऐसे लोगों पर जो इंसानी शक्लें धारे
प्यास खून की लिये हुये ,मानवता के हत्यारे .
जन्नत इनके लिये जहाँ पर हूरें मिलें बहत्तर ,
ऊपर से गिलमा-लौंडों की भीड़ खड़ी हो तत्पर .
अब तो मिलें शहद की नदियाँ ,हूरें हों गिलमा हों
ऐसी मेहर होय अल्ला की हरदम रँग-रलियां हों
एक बार उकसा कर हव्वा ने हमें यहाँ ला डाला
किन्तु अक्ल पर हम जड़ देते अल्ला वाला ताला
सारी मर्यादा नरत्व की तोड़-तोड़ फेंकी है,
आपस में लड़ मरो धरित्री तुम्हें शाप देती है.
यह उन्माद कहाँ ले जायेगा ,क्या दे पायेगा ,
सदियाँ धिक्कारेंगी तुमको, समय बीत जायेगा
क्या थे ,क्या हो गये ,पीढ़ियाँ झोंक रहे दोज़ख में ,
सोचो ज़रा कहाँ जाते हो यदि मानव हो सच में !
*
धिक्कार नं. 2.
और यहाँ पर आस्तीन के साँप पले हैं घर में
काँटे बिछा रहे जो आगे बढ़ती हुई डगर में.
उड़ा रहे जो थूक वतन पे मर मिटनेवालों पर .
हर छींटा बन जाय तमाचा उनके ही गालों पर .
आँखों और अक्ल पर चर्बी चढ़ी हुई जो, छाँटें.
कैसा व्रत है कठिन ,जरा वे देखें स्वयं निभा के .
खा-खा जिस पर पले उसी माटी को खूँद रहे हैं
अपनों पर कर वार ,पराये हाथों कूद रहे हैं .
माँ के आंचल की कालिख बन मद में झूम रहे हैं
अब तक इस धरती पर छुट्टे कैसे घूम रहे हैं .
ऐसे नमक-हरामी,जाने क्यों पैदा हो जाते
जिस धरती पर पलें उसी पर विष के बीज उगाते .
जहाँ निरापद दाँव देखते आक्रामक बन जाते
जोखिम देख भागते सच से अपनी दुमें दबा के
इनकी अगर सुनो तो कानो में पड़ जायें छाले,
इनकी ढपली अलग बजे इनके सब खेल निराले
फिफ़्थ-कालमी बाज़ नहीं अपनी हरकत से आते ,
हाथ बँटाने के अवसर , दुश्मन से हाथ मिलाते,
जनवादी ,समवादी बनते ,धूर्त-बुद्धि धिक् उनकी
लानत उस प्रबुद्धता पर , धिक्-धिक् ऐसे परपंची.
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धिक्कार नं. 1.
तोड़ा घर बाँटा आँगन भी बाप कर लिये दूजे
अनजानी गैरों की धरती को तीरथ कह पूजे
गर्भनाल उनके बापों की अब भी जहाँ गड़ी है
हीन मनों में उस धरती के प्रति यों घृणा भरी है .
पुरखों को नकार भागे थे ये कृतघ्न औ कायर
अपने सारे सच झुठला देते हैं जिल्लत सह कर .
अरे, अभी उनकी तो नानी यहीं कहीं पर होगी -
ऐसी औलादों पर अपने करम कूटती रोती.
युग-युग के संस्कार भूल बन बैठे कैसे बर्बर,
हम ही जियें पूर्व पुरुषों के नाम-निशान मिटा कर ,
अर्जित ज्ञान ,कला विद्यायें औऱ सभ्यता-संस्कृति
उनके लिये व्यर्थ हो जातीं ,पशुवत् हो जिनकी मति .
सब अस्तित्व मिटा डालेंगे धरोहरी कृतियाँ भी ,
इतिहासों के पृष्ठ साक्षी देते उन अतियों की .
धिक्, ऐसे लोगों पर जो इंसानी शक्लें धारे
प्यास खून की लिये हुये ,मानवता के हत्यारे .
जन्नत इनके लिये जहाँ पर हूरें मिलें बहत्तर ,
ऊपर से गिलमा-लौंडों की भीड़ खड़ी हो तत्पर .
अब तो मिलें शहद की नदियाँ ,हूरें हों गिलमा हों
ऐसी मेहर होय अल्ला की हरदम रँग-रलियां हों
एक बार उकसा कर हव्वा ने हमें यहाँ ला डाला
किन्तु अक्ल पर हम जड़ देते अल्ला वाला ताला
सारी मर्यादा नरत्व की तोड़-तोड़ फेंकी है,
आपस में लड़ मरो धरित्री तुम्हें शाप देती है.
यह उन्माद कहाँ ले जायेगा ,क्या दे पायेगा ,
सदियाँ धिक्कारेंगी तुमको, समय बीत जायेगा
क्या थे ,क्या हो गये ,पीढ़ियाँ झोंक रहे दोज़ख में ,
सोचो ज़रा कहाँ जाते हो यदि मानव हो सच में !
धिक्कार नं. 2.
और यहाँ पर आस्तीन के साँप पले हैं घर में
काँटे बिछा रहे जो आगे बढ़ती हुई डगर में.
उड़ा रहे जो थूक वतन पे मर मिटनेवालों पर .
हर छींटा बन जाय तमाचा उनके ही गालों पर .
आँखों और अक्ल पर चर्बी चढ़ी हुई जो, छाँटें.
कैसा व्रत है कठिन ,जरा वे देखें स्वयं निभा के .
खा-खा जिस पर पले उसी माटी को खूँद रहे हैं
अपनों पर कर वार ,पराये हाथों कूद रहे हैं .
माँ के आंचल की कालिख बन मद में झूम रहे हैं
अब तक इस धरती पर छुट्टे कैसे घूम रहे हैं .
ऐसे नमक-हरामी,जाने क्यों पैदा हो जाते
जिस धरती पर पलें उसी पर विष के बीज उगाते .
जहाँ निरापद दाँव देखते आक्रामक बन जाते
जोखिम देख भागते सच से अपनी दुमें दबा के
इनकी अगर सुनो तो कानो में पड़ जायें छाले,
इनकी ढपली अलग बजे इनके सब खेल निराले
फिफ़्थ-कालमी बाज़ नहीं अपनी हरकत से आते ,
हाथ बँटाने के अवसर , दुश्मन से हाथ मिलाते,
जनवादी ,समवादी बनते ,धूर्त-बुद्धि धिक् उनकी
लानत उस प्रबुद्धता पर , धिक्-धिक् ऐसे परपंची.
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सटीक और सुन्दर ।
जवाब देंहटाएंआपके शब्द रो आज जैसे आग उगल रहे हैं ... और उगलें भी क्यों नहीं ... सच पूछो तो ज़्यादातर लोगों के मन में आग है पर उसको सटीक और सार्थक शब्द नहीं मिल पाते जो आपने दिए हैं .... नमन है ऐसे निडर, ओजस्वी, साहसी और मर्म पर प्रहार करते शब्दों को ...
जवाब देंहटाएंकाश ! आयातित पूर्वजों और धर्म वाले भारतीय इस सत्य पर कुछ चिंतन कर पाते ।
जवाब देंहटाएंई-मेल से प्राप्त -
जवाब देंहटाएंदोनों धिक्कारें सत्य का निरूपण करती हुई , मन को उद्वेलित करती हैं। वर्तमान भारत में विनाशकारी सांप्रदायिकता का भुजंग सर्वत्र विषभरी फुफकारें छोड़ता हुआ आगे बढ़ रहा है । आस्तीन के साँप भी स्वार्थरत होकर शासन के विरुद्ध षड्यंत्रकारी चालें चल रहे हैं ।
यही यथार्थ बेबाक़ होकर प्रतिभा जी ने बख़ूबी चित्रित किया है ,जोमन पर चोट करता है.।बहुत सच्चाई सामने रख दी है । साधुवाद!!
शकुन्तला बहादुर
एकदम खून खौलते मन के भाव- एकदम स्वभाविक इन बर्बर जानवरों को ऐसी ही धिक्कार जरुरी है...सच कहा यह इन्सान हैं ही नहीं...कलम जब तलवार बन जाये तब ऐसी लेखनी निकलती है...बधाई एवं साधुवाद!!
जवाब देंहटाएंwaah ! bahut sundar
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